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बुधवार, 5 मार्च 2014

हिजाब मत रखिए ...!

वो:  बहाना  बना  के  मिलते  हैं
हम  जहां  को  बता  के  मिलते  हैं

साज़े-दिल  छेड़-छेड़  जाते  हैं
ख़्वाब  में  जब  वो:  आ  के  मिलते  हैं

बेवफ़ाई,  फ़रेब,  ख़ुदग़र्ज़ी
क्या  सिले  ये:  वफ़ा  के  मिलते  हैं

हरकतों  पर  नज़र  रखें  उनकी
जो  बहुत  मुस्कुरा  के  मिलते  हैं

आप  हमसे  हिजाब  मत  रखिए
यूं  भी  हम  सर  झुका  के  मिलते  हैं

अह् ले-दिल  जब  ख़ुदी  पे  आते  हैं
लाख  ख़तरे  उठा  के  मिलते  हैं

ऐ  फ़रिश्तों !  उन्हें  सलाम  कहो
नक़्श  जिनसे  ख़ुदा  के  मिलते  हैं !

                                                    ( 2014 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: साज़े-दिल: हृदय रूपी वाद्य, बेवफ़ाई: छल; फ़रेब: कपट;  ख़ुदग़र्ज़ी: स्वार्थ; सिले: प्रतिदान; वफ़ा: आस्था; 
हिजाब: पर्दा, आवरण; अह् ले-दिल: हृदय में आस्था रखने वाले; ख़ुदी: अपनी अस्मिता; नक़्श: मुख-चिह्न।

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