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शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

हटाइए दिल को !

ख़ुदी  को  याद  रख  के  भूल  जाइए  दिल  को
तलाशे-हुस्न  में  क्यूं  कर  गंवाइए   दिल  को

रखा  है  बांध  के  यूं    ज़ुल्फे-ख़मीदा  में   उसे
सिला-ए-इश्क़     यही   है   सताइए  दिल  को

कोई  कमी  है  इस  शहर  में  हुस्न  वालों  की
यहां-वहां    जहां    चाहे     गिराइए   दिल  को

मेरे  मज़ार  पे   फिर   आज   रौशनी-सी  है
तुलू   हुई   हैं    उम्मीदें    बुझाइए  दिल  को

ज़मीं-ए-मीर-ओ-ग़ालिब   पे   जो  हुए  पैदा
सुख़नवरों  से  कहां  तक  बचाइए  दिल  को

ज़रा  बताए    क्या  बुराई  है    मयनोशी  में
उसी  से  पूछ  लें  ज़ाहिद  बुलाइए  दिल  को

बुला   रहा   है    ख़ुदा    अर्श  पे   ज़माने  से
ख़याले-यार  से  अब  तो  हटाइए  दिल  को !

                                                           ( 2013 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुदी: अस्मिता, स्वाभिमान; तलाशे-हुस्न: सौंदर्य की खोज; ज़ुल्फे-ख़मीदा: घुंघराली लटें; सिला-ए-इश्क़: प्रेम का प्रतिदान; 
मज़ार: समाधि; तुलू: उदित; ज़मीं-ए-मीर-ओ-ग़ालिब: महान शायर मीर तक़ी 'मीर' और मिर्ज़ा ग़ालिब की भूमि; सुख़नवरों: रचनाकारों, शायरों; मयनोशी: मदिरा-पान; ज़ाहिद: धर्मोपदेशक; अर्श: आकाश, परलोक; ख़याले-यार: प्रिय का विचार, प्रिय का मोह।

हंगामे आरज़ू

हाँ  बादे तर्के इश्क़   भी  इक  हादसा  हुआ
देखा  उन्हें  तो  हश्र सा  दिल  में  बपा  हुआ

अब  उसके  बाद  पूछ  न  क्या  माजरा  हुआ
अपनी  ख़ता  पे  सर  था  किसी  का  झुका  हुआ

ज़ुल्फों  में  ख़ाके राह  गिरेबां  फटा  हुआ
दूर  आ  गया  जुनूं  में  तुझे  ढूंढता  हुआ

पूछा  जो  उनसे  कौन  था  पहलू  में  ग़ैर  के
मारे  हया  के  फिर  न  उठा  सर  झुका  हुआ

हंगामे आरज़ू  न  हुआ  ख़त्म  जीते  जी
मर कर  के  ख़्वाहिशों  का  मेरी  फ़ैसला  हुआ

देखा  जो  उसने  लुत्फ़  से  'राजन'  रक़ीब  को
पहलू  से  ख़ून  हो  के  मेरा  दिल  जुदा  हुआ

                                                             -चित्रेन्द्र  स्वरूप  'राजन'

शब्दार्थ: बादे तर्के इश्क़: प्रेम-परित्याग के बाद; हादसा: दुर्घटना; हश्र: प्रलय; बपा: उठा हुआ; माजरा: घटना;  ख़ता: दोष, भूल; 
ख़ाके राह: रास्ते की धूल; गिरेबां: उपरिवस्त्र; जुनूं: उन्माद; पहलू: गोद; हया: लज्जा; हंगामे आरज़ू: इच्छाओं का शोर; लुत्फ़: रुचि;  
रक़ीब: प्रतिद्वंदी। 




बुधवार, 18 सितंबर 2013

ज़िंदगी यूं दर-ब-दर

अगर    उफ़क़  पे    हमारी  नज़र  नहीं  होती
सबा-ए-सहर   ख़ुश्बुओं  से   तर   नहीं  होती

हमीं ने  आपकी  आंखों  में  कशिश  पैदा  की
मगर  हमीं  पे    आपकी    नज़र  नहीं  होती

वक़्त  करता  है  बहुत  कोशिशें  मिलाने  की
कभी  तुम्हें  कभी  हमको  ख़बर  नहीं  होती

शबे-विसाल  भी  आती  है  शबे-हिजरां  भी
हरेक  रात  की   लेकिन    सहर  नहीं  होती

तेरी  दुआ  भी    हमें    यूं  फ़रेब  लगती  है
हमारे  ग़म  में  कभी  पुरअसर  नहीं  होती

तेरे    हुज़ूर   में    इंसान    गर     बराबर  हैं
तो  तेरी  नज़्रे-करम  क्यूं  इधर  नहीं  होती

ख़ुदा  अगर  हमारे  सर  पे  हाथ  रख  देता
हमारी  ज़िंदगी  यूं  दर-ब-दर  नहीं  होती  !

                                                           ( 2013 )

                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: उफ़क़: क्षितिज; सबा-ए-सहर: प्रभात-समीर; तर: भीगी; कशिश: आकर्षण; शबे-विसाल: मिलन-निशा; शबे-हिजरां: वियोग-निशा; सहर: उषा; फ़रेब: छल; पुरअसर: प्रभावकारी; हुज़ूर: दरबार, समक्ष; नज़्रे-करम: कृपा-दृष्टि; दर-ब-दर: द्वार-द्वार भटकती, यायावर।

सोमवार, 16 सितंबर 2013

ये: गुनाहों का घर

दिल     अगर    बेख़बर    नहीं  होता
दर्द        शामो-सहर        नहीं  होता

हुस्न      तेरा     अगर    करामत  है
हम  पे  क्यूं  कर   असर  नहीं  होता

जिस्म  रहता  जो  रूह  से  मिल  के
ये:   गुनाहों    का   घर     नहीं  होता

पास       आतीं      न     मंज़िलें  मेरे
तू     अगर     हमसफ़र   नहीं  होता

जो    न    होती    दुआ    बुज़ुर्गों  की
शे'र           ज़ेरे-बहर       नहीं  होता

जल्वागर  हैं   नज़र  में   रख  लीजे
मोजज़ा      उम्र    भर     नहीं  होता

दूर     रहते     अगर     सियासतदां
ख़ाक    दिल  का  शहर   नहीं  होता !

                                             ( 2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: करामत: चमत्कारी; ज़ेरे-बहर: छंद में; जल्वागर: प्रकट, दृश्यमान; मोजज़ा: चमत्कार; सियासतदां: राजनेता।

रविवार, 15 सितंबर 2013

इनायत किया करें

चल  कर  किसी  फ़क़ीर  की  सोहबत  किया  करें
हम  सोचते  हैं  हम  भी  इबादत  किया  करें

फिरते  हैं  दिल  के  चोर  शहर  में  गली-गली
कब  तक  ज़रा-सी  शै  की  हिफ़ाज़त  किया  करें

रखते  हैं  अपने  दिल  में  हर  मुरीद  की  जगह
हम  वो:  नहीं  के:  दिल  पे  सियासत  किया  करें

चुन-चुन  के  बांटते  हैं  शबे-वस्ल  का  इनाम
वो:  हैं  ख़ुदा  तो  सब  पे  इनायत  किया  करें

अच्छा  नहीं  के:  बज़्म  में  इस्लाह  दे  कोई
बेहतर  है  दिल  में  आ  के  नसीहत  किया  करें

जी  तो  रहे  हैं  अपनी  ख़ुदी  को  संभाल  के
किस  बात  पे  ख़ुदा  से  शिकायत  किया  करें ?

                                                                 ( 2013 )

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़क़ीर: साधु; सोहबत: संगति;  इबादत: पूजा-पाठ;  शै: वस्तु;  हिफ़ाज़त: सुरक्षा;   मुरीद: प्रशंसक;  शबे-वस्ल:मिलन-निशा;           इनायत: कृपा; बज़्म: गोष्ठी;  इस्लाह: परामर्श, सुझाव; नसीहत: समझाना; ख़ुदी: स्वत्व। 

शनिवार, 14 सितंबर 2013

ये: ख़ूं-रेज़ी ये: वहशत..

चलो  बस  ठीक  है  हम  ही  क़दम  पीछे  हटाते  हैं
ज़रा  देखें  तो  हम  भी    आप    कैसे  दूर  जाते  हैं

हमारे   साथ    उनके  नाज़-ओ-अंदाज़    वाहिद  हैं
कभी  नज़रें    मिलाते  हैं    कभी  आंखें  दिखाते  हैं

बड़े    ख़ुद्दार   बनते  हैं    न  आएं     ख़्वाब  में  मेरे
यहां  क्या  दावतें  दे-दे  के  महफ़िल  में  बुलाते  हैं

सियासत  ने  ज़रा  सी  देर  में   ख़ू  ही  बदल  डाली
ज़िबह  करते  हुए  भी  आजकल  वो:  मुस्कुराते  हैं

इसी  को  लोग  अपना  धर्म  या  मज़हब  समझते  हैं
किसी  की  जान  लेते  हैं    किसी  का  घर  जलाते  हैं

ये:  ख़ूं-रेज़ी  ये:  वहशत  तो  महज़  तफ़रीह  है  उनकी
मगर   इस  ज़ौक़    में    लाखों     घरोंदे    टूट  जाते  हैं

बसाया  हमने  अपने  दिल  में  जबसे  नाम  मौला  का
फ़रिश्ते  भी     हमारे    घर  के  आगे    सर  झुकाते  हैं !

                                                                             ( 2013 )

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नाज़-ओ-अंदाज़: भाव-भंगिमाएं; वाहिद: नितांत भिन्न, अनूठे; ख़ुद्दार: स्वाभिमानी; महफ़िल: सभा;
ख़ू: चारित्रिक विशिष्टता; ज़िबह: धर्म-सम्मत रूप से वध; ख़ूं-रेज़ी: रक्त-पात; वहशत: उन्माद; ज़ौक़: मनोरंजन।




गुरुवार, 12 सितंबर 2013

ख़ुदकुशी का गुनाह

ख़्वाब  पर     ऐतबार    कर  लीजे
ज़िंदगी   को     बहार    कर  लीजे

ख़ुदकुशी  का   गुनाह   मत  कीजे
इश्क़  का    रोज़गार     कर  लीजे

दर्द  को   दीजिए   जगह  दिल  में
शाइ'री  को    क़रार     कर   लीजे

हम  भी  आख़िर  ख़ुदा  के  बंदे  हैं
दोस्तों   में     शुमार     कर  लीजे

रफ़्ता-रफ़्ता    पिघल  रहे  हैं   वो:
और  कुछ    इंतज़ार    कर  लीजे

है   सियासत   पसंद     तो  पहले
रूह   को     दाग़दार      कर  लीजे

छू   न   पाएंगे     अज़्मते-ग़ालिब
आप  कोशिश  हज़ार    कर  लीजे !

                                           ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ऐतबार: विश्वास; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या; गुनाह: पाप, अपराध; क़रार: सांत्वना का साधन;  बंदे: अनुयायी, मानने वाले;   
शुमार: सम्मिलित;   रफ़्ता-रफ़्ता: धीमे-धीमे;    सियासत: राजनीति, छल-कपट;    रूह: आत्मा;     दाग़दार: कलंकित; 
अज़्मते-ग़ालिब: महान शायर जनाब मिर्ज़ा ग़ालिब की प्रतिष्ठा, उच्च स्थान ।