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गुरुवार, 22 अगस्त 2013

हिज्र में सब्र ...

दीद  का  दिन  गुज़र  न  जाए  कहीं
वक़्त  अपना  ठहर  न  जाए  कहीं

है  शबे-वस्ल   जागते  रहिए
ख़्वाब  कोई  बिखर  न  जाए  कहीं

इख़्तिलाफ़ात  घर  में  बेहतर  हैं
घर  से  बाहर  ख़बर  न  जाए  कहीं 

हिज्र  में  सब्र  यूं  ज़रूरी  है
ग़म  इधर  से  उधर   न   जाए  कहीं

दर्द  को  काफ़िया  बना  तो  लें
ये:  ख़िलाफ़े-बहर  न  जाए  कहीं

ज़िंदगी   का  ख़ुमार  बाक़ी  है
ये:  नशा  भी  उतर  न  जाए  कहीं

लोग  फिर  आ  रहे  हैं  सड़कों  पे
शाह  की  फ़ौज  डर  न  जाए  कहीं !

                                                ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दीद: दर्शन; शबे-वस्ल: मिलन की रात्रि; इख़्तिलाफ़ात: मतभेद ( बहुव.); हिज्र: वियोग; काफ़िया: शे'र में आने वाला तुकांत शब्द; ख़िलाफ़े-बहर: छंद के विरुद्ध; ख़ुमार: तंद्रा।

बुधवार, 21 अगस्त 2013

शाह की शाम

दिल  किसी  दिन  मचल  न  जाए  कहीं
हाथ   से    ही   निकल     न  जाए  कहीं

देर      से      सज-संवर     रहे    हैं    वो
आईना    ही    पिघल    न    जाए  कहीं

शैख़     पीता     तो      है    सलीक़े    से
पीते-पीते      संभल     न     जाए  कहीं

वो        उतारू      हैं      नज़रसाज़ी    पे
तीर  हम  पे  भी    चल    न  जाए  कहीं

आज    है      यार      मेहरबां     हम  पे
उसकी  फ़ितरत    बदल  न  जाए  कहीं

मुद्दतों         बाद       हाथ      आया    है
वक़्त   फिर  से   बदल   न  जाए   कहीं

क़ौम       बेताब       है      बग़ावत   को
शाह  की    शाम    ढल    न  जाए  कहीं !

                                                  (2013 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शैख़: अति-धार्मिक; नज़रसाज़ी: आंख से इशारे, नैन-मटक्का; मेहरबां: कृपालु; फ़ितरत: स्वभाव; क़ौम: राष्ट्र; बग़ावत: विद्रोह।

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

वो बात कब हुई ?

मंज़ूर       मेरी      अर्ज़े-मुलाक़ात     कब  हुई
जो   पूछते  हो   तुम   के  मुनाजात  कब  हुई

मौसम   मेरी   तरह   सुख़न-नवाज़   तो  नहीं
क्या    पूछिए   हुज़ूर   के   बरसात    कब  हुई

मरते   रहे     ग़रीब    चमकता   रहा    बाज़ार
अह्दो-अमल    में   उसके  इंज़िबात  कब  हुई

तेरा    निज़ाम    है    फ़िदा     सरमाएदार    पे
मुफ़लिस   पे    तेरी   नज़्रे-इनायात   कब  हुई

इक़बाले-जुर्म    से   हमें     इनकार    तो  नहीं
जिस  बात  पे  ख़फ़ा  है  तू  वो  बात  कब  हुई ?

                                                                ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अर्ज़े-मुलाक़ात: भेंट की प्रार्थना; मुनाजात: पूजा-अर्चना; सुख़न-नवाज़: संवाद-प्रेमी; प्रतिज्ञा और आचरण; इंज़िबात: दृढ़ता; निज़ाम: प्रशासन;  सरमाएदार: पूंजीपति; मुफ़लिस: वंचित, निर्धन;   नज़्रे-इनायात: कृपा-दृष्टि; इक़बाले-जुर्म: अपराध-स्वीकार;  
ख़फ़ा: क्रोधित। 

रविवार, 18 अगस्त 2013

वो मसीहा बना न दे...

ज़िक्रे-यारां   रुला   न  दे  हमको
ख़ुल्द  से  भी  उठा  न  दे  हमको

ऐ लबे-दोस्त ! ज़ब्त कर दो दिन
ज़िंदगी  की  दुआ  न  दे  हमको

हम   ग़मे-रोज़गार  से   ख़ुश  हैं
ख़्वाब  कोई  नया  न  दे  हमको

क़ब्र   मेरी   सजा    रहा  है   यूं
वो  मसीहा  बना  न  दे  हमको

दोस्त   गिनने  लगें   रक़ीबों  में
वक़्त  ऐसी  सज़ा  न  दे  हमको

बेरुख़ी  ठीक    मगर    तर्के-वफ़ा ?
ज़ख्म  इतना  बड़ा  न  दे  हमको !

दोस्ती     का    पयाम    भेजा  है
शाह  फिर  से  हरा  न  दे  हमको !

                                             ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ज़िक्रे-यारां: मित्रों का उल्लेख; ख़ुल्द: स्वर्ग; ऐ लबे-दोस्त: मित्र के अधर; ज़ब्त कर: संयम रख;   ग़मे-रोज़गार: आजीविका का दुःख; मसीहा: ईश्वरीय दूत; रक़ीबों: शत्रुओं; बेरुख़ी: उदासीनता;   तर्के-वफ़ा: निर्वाह से मुंह मोड़ना; पयाम: संदेश।

शनिवार, 17 अगस्त 2013

यार से अर्ज़े-हाल ..

दिल  की  बातें  कमाल  की  बातें
ख़ूबसूरत    ख़याल       की  बातें

अर्श  पे     कर  रहे  हैं     सय्यारे
चांद  की  अल-हिलाल  की  बातें

कह  गए  सब  सहेलियों  में  वो:
बेख़ुदी  में    विसाल     की  बातें

दिल  को  कमज़ोर  बना  देती  हैं
फ़िक्रो-रंजो-मलाल    की     बातें

आख़िरत  तक  जवान  रहती  हैं
यार  से    अर्ज़े-हाल     की  बातें

शैख़ साहब का  दिल  धड़कता  है
सुन  के  हुस्नो-जमाल  की  बातें

झुर्रियां   भी    बयान    करती  हैं
हुस्न  के    माहो-साल  की  बातें

इस  ज़ईफ़ी   में  क्या  सुनाएं  हम
अपने    जाहो-जलाल    की  बातें  !

                                           ( 2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अर्श: आकाश; सय्यारे: नक्षत्र; अल-हिलाल: नए चांद के ठीक ऊपर शुक्र ग्रह के दिखाई पड़ने का दृश्य; विसाल: मिलन; फ़िक्रो-रंजो-मलाल: चिंता, दुःख और क्षोभ; अर्ज़े-हाल: ( प्रेम की ) स्वीकारोक्ति; हुस्नो-जमाल: सौंदर्य और यौवन; माहो-साल: महीने और साल; ज़ईफ़ी: वृद्धावस्था; तेज-प्रताप।


गुरुवार, 15 अगस्त 2013

बहक न जाए नज़र...

इश्क़    ईमान    हुआ  जाता  है
दर्द      तूफ़ान    हुआ    जाता  है

चल  दिए  दोस्त  बदगुमां  हो  के
शहर   वीरान    हुआ    जाता  है

बहक  न  जाए  नज़र  महफ़िल में
दिल  निगहबान  हुआ    जाता  है

ख़ुदकुशी  कर  न  लें  मियां  ग़ालिब
घर    परेशान     हुआ    जाता  है

खुल  गया  राज़  हमसे  उल्फ़त  का
वो:    पशेमान    हुआ    जाता  है

हाले-दिल    पे    ग़ज़ल   कहें  कैसे
दाग़     उन्वान     हुआ    जाता  है 

देख   के    रंग    सियासतदां    के
मुल्क    हैरान    हुआ    जाता  है !

                                     ( 2013 )

                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:   ईमान: एक मात्र आस्था; बदगुमां हो के : बुरा मान कर; निगहबान: प्रहरी; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या;  
मियां  ग़ालिब: हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, 19 वीं शताब्दी के महान शायर; उल्फ़त: लगाव, प्रेम; पशेमान: लज्जित;
हाले-दिल: मनःस्थिति; दाग़: कलंक;    उन्वान: शीर्षक;  सियासतदां: राजनीतिज्ञ। 

क़ैद है रिज़्क़ ...!

मुल्क  उलझा  है  सौ  सवालों  में
क़ैद  है  रिज़्क़  कितने  तालों  में

इत्तेफ़ाक़न   नज़र  में   आए   वो
और  बस, बस  गए  ख़यालों  में

हुक्मरां      मस्त   हुए     बैठे  हैं
हर  तरफ़  से   घिरे   दलालों  में

भूख    जब  इंतेहा  पे    आती  है
आग लगती है दिल के छालों  में

आज  भी   बाज़   नहीं  आए  वो
मुब्तिला  हैं    तमाम   चालों  में

लूट   लेते   हैं    एक   मिसरे  में
है हुनर अब  भी  बा-कमालों  में

छटपटाता   है  छूटने   के   लिए
फंस गया मुल्क किनके जालों  में !


                                            ( 2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रिज़्क़: भोजन, रोज़ी-रोटी; इत्तेफ़ाक़न: संयोग से; हुक्मरां: शासक-वर्ग; इंतेहा: अति; बाज़: छोड़ना; मुब्तिला: व्यस्त; 
मिसरे  में: वाक्य, पंक्ति में;   बा-कमालों: प्रतिभावानों।