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रविवार, 15 मई 2016

हिलाल है दिल का ...

आजकल  तंग  हाल  है  दिल  का
उलझनों  में  सवाल  है  दिल  का

कुछ  उन्हें  भी  ग़ुरूर  है  दिल  पर
कुछ  हमें  भी  ख़्याल  है  दिल  का

चैन  ख़ुद  को  न  राह  ख़्वाबों  को
इश्क़  क्या  है  बवाल  है  दिल  का

आशिक़ों  की  बड़ी  फ़जीहत  है
क़ब्र  में  भी  मलाल  है  दिल  का

तीरगी  रूह  पर  जहां  उतरे
रौशनी  को  हिलाल  है  दिल  का

इश्क़  पर  ही  सवाल  क्यूं  उट्ठें
बंदगी  भी  जवाल  है  दिल  का

अर्श  तक  ज़लज़ले  मचा  डाले
दर्दे-दिल  भी  कमाल  है  दिल  का !

                                                                     (2016)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : ग़ुरूर : अभिमान ; ख़्याल : चिंता ; चैन : संतोष ; बवाल : उपद्रव ; फ़जीहत : दुर्दशा ; क़ब्र : समाधि ; मलाल : खेद ; तीरगी : अंधकार ; रूह : आत्मा ; हिलाल : नवोदित चंद्र ; बंदगी : भक्ति ; जवाल : अवनति, पतन ; अर्श : आकाश ; ज़लज़ले : भूकंप ; कमाल : चमत्कार ।

शुक्रवार, 13 मई 2016

कहा-सुना मेरा ...

मर्सिया  आपने  पढ़ा  मेरा
मक़बरा  आज  रो  दिया  मेरा

लोग  तो  दिल  जलाए  बैठे  हैं
क्या  बुरा  है  कि  घर  जला  मेरा

मौत  ही  दाएं-बांए  होती  थी
दर  हमेशा  खुला  मिला  मेरा

उन्स  कहिए  कि  आशिक़ी  कहिए
सर  अदब  में  झुका  रहा  मेरा

इस  तरफ़  मौज  उस  तरफ़  साहिल
लुट  गया  आज  नाख़ुदा  मेरा

बदगुमानी  तबाह  कर  देगी
मानिए  आप  मश्वरा  मेरा

एक  दिन  एतबार  कर  देखें
दिल  ज़ियादह  बुरा  नहीं  मेरा

हिज्र  का  वक़्त  आ  गया  यारों
माफ़  कीजे  कहा-सुना  मेरा !

                                                                              (2016)

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मर्सिया : शोक गीत; मक़बरा : समाधि; दर : द्वार ; उन्स : अनुराग ; आशिक़ी : प्रेम ; अदब : सम्मान ; मौज : तरंग, लहर ; 
साहिल : तट ; नाख़ुदा : खेवनहार, नाविक; बदगुमानी : संदेह, आधारहीन विचार ; मश्वरा : परामर्श ; एतबार : विश्वास ; हिज्र : वियोग ।

मंगलवार, 3 मई 2016

ग़ज़ल हम पर !

कोई  दावा  न  कीजिए  ग़म  पर
अब  ख़ुदा  मेह्रबान  है  हम  पर

ज़ख़्म  दर  ज़ख़्म   खिला  जाए  है
पढ़  गया  कौन  दुआ  मरहम  पर

मौत  है  दिल्लगी  पे  आमादा
दिल  उतारू  है  ख़ैर-मक़दम  पर

दश्त   को आग  के  हवाले  कर
वाज़  करते  हैं  लोग  मौसम  पर

रिज़्क़  हम  पर  हराम  है  उनका
बज़्म  जिनकी  है  शाह  के  दम  पर

हमसफ़र  लौट  आए  हज  कर  के
आप  अटके  हैं  ज़ुल्फ़  के  ख़म  पर

सोज़  उसकी  क़िर्अत  का  ऐसा  है
पढ़  रहा  हो  कोई  ग़ज़ल  हम  पर  !

                                                                     (2016)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दावा : वाद ; मेह्रबान : कृपालु ; ज़ख़्म : घाव ; दुआ : मंत्र, प्रार्थना ; दिल्लगी : ठिठोली, परिहास ; आमादा : कृत-संकल्प ; ख़ैर-मक़दम : स्वागत ; दश्त : वन ; वाज़ : उपदेश, प्रवचन ; रिज़्क़ : भोजन, आतिथ्य ; बज़्म : सभा, सामाजिक सम्मान; ख़म : मोड़, घुमाव, घुंघराला पन ; सोज़ : माधुर्य ; क़िर्अत : पवित्र क़ुर'आन का सस्वर पाठ ।


सोमवार, 2 मई 2016

दिल की बात ...

चले  जाते  मगर  पहले  बता  देते  तो  अच्छा  था
रुसूमे-तर्के-दिलदारी  निभा  देते  तो  अच्छा  था

हुई  गर  आपसे  वादा-फ़रामोशी  शरारत  में
कोई  मुमकिन  बहाना  भी  बना  देते  तो अच्छा  था

सुना  है  आपने  सब  दौलते-दिल  बांट  दी  अपनी
हमारा  क़र्ज़े-उल्फ़त  भी  चुका  देते  तो  अच्छा  था

उठाने  को  उठा  लेंगे  अकेले  बार  हम  दिल  का
ज़रा-सा  हाथ  गर  तुम  भी  लगा  देते  तो  अच्छा  था

ज़ुबां  पकड़ी  न  सर  काटा  मगर  ख़ामोश  कर  डाला
हुनर  ये:  आप  हमको  भी  सिखा  देते  तो  अच्छा  था

सरों  को  रौंद  कर  जो  लोग  'दिल  की  बात'  कहते  हैं
गरेबां  की  तरफ़    नज़रें    झुका  देते  तो  अच्छा  था

ख़बर  क्या  थी    फ़रिश्ते    लौट  जाएंगे  हमारे  बिन
फजर  से  क़ब्ल  तुम  हमको  जगा  देते  तो  अच्छा  था !

                                                                                                      (2016)

                                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : रुसूमे-तर्के-दिलदारी : हृदय का संबंध तोड़ने की प्रथाएं ; दौलते-दिल : मन की /भावनात्मक संपत्ति ; क़र्ज़े-उल्फ़त : प्रेम का ऋण ; बार : बोझ, भार ; गर : यदि ; ज़ुबां : जिव्हा ; हुनर : कौशल ; गरेबां : कंठ के नीचे का स्थान, हृदय-क्षेत्र ; फ़रिश्ते : मृत्यु-दूत ; फजर : ब्राह्म-मुहूर्त्त ; क़ब्ल : पूर्व ।


रविवार, 1 मई 2016

हक़ मांग मजूरा !

हक़  मांग  मजूरा !  हिम्मत  कर
ख़ुद्दार  किसाना  !  हिम्मत  कर
हक़दार  जवाना  !  हिम्मत  कर

जो  ख़ामोशी  से  जीते  हैं 
हक़  उनका  मारा  जाता  है
उनके  ही  ख़ून-पसीने  से 
हर  क़स्र  संवारा  जाता  है
उनके  अश्कों  से  दुनिया  का 
हर  रंग  निखारा  जाता  है
उनके  हक़  से  सरमाए  का 
हर  क़र्ज़  उतारा  जाता  है

हक़  मांग  मजूरा  !  ज़िद  कर  ले
बेज़ार  किसाना  !  ज़िद  कर  ले
दमदार  जवाना  !  ज़िद  कर  ले

उठ  लाल  फरारी  ले  कर  चल
फिर  ज़िम्मेदारी  ले  कर  चल
सारी  दुश्वारी  ले  कर  चल
सर  पर  सरदारी  ले  कर  चल
पूरी  तैयारी  ले  कर  चल

ज़ुल्मत  की  आंधी  के  आगे 
सर  और  नहीं  झुकने  देना
यह  सफ़र  बग़ावत  का,  हक़  का 
हरगिज़  न  कहीं   रुकने  देना

दुनिया  का  रंग  बदलना  है
मंज़िल  पा  कर  ही  दम  लेना

उठ,  जाग  मजूरा !  हिम्मत  कर
मज़्लूम  किसाना  !  हिम्मत  कर 
नाकाम  जवाना  !  हिम्मत  कर

हक़  मांग ! कि  तेरी  बारी  है  !

                                                                                       (2016)

                                                                                 -सुरेश  स्वप्निल

              







शनिवार, 30 अप्रैल 2016

ख़्वाब हूरों के...

जब्र  से  बंदा  बनाना  ठीक  है  ?
और  फिर  एहसां  जताना  ठीक  है  ?

रिंद  को  मजबूर  करके  ख़ुम्र  से
शैख़  को  सेहरा  सजाना  ठीक  है  ?

क्या  हक़ीक़त  है  सुने-समझे  बिना
ग़ैर  पर  तोहमत  लगाना  ठीक  है  ?

मुफ़्लिसो-मज़्लूम  की  छत  छीन  कर
ताजिरों  को  सर  चढ़ाना  ठीक  है  ?

आदमी  को  हाशिये  पर  डाल  कर
ज़ार  का  जन्नत  बसाना  ठीक  है  ?

शाह  का  सारे  फ़राईज़ भूल  कर
इशरतों  में  ज़र  लुटाना  ठीक  है  ?

जब  मज़ाहिब  में  अक़ीदत  ही  नहीं
ख़्वाब  हूरों  के  दिखाना  ठीक  है  ?

तूर  पर  हमको  बुला  कर  आपका
आस्मां  से  मुस्कुराना  ठीक  है  ?

                                                                              (2016)

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जब्र : बल ; बंदा : भक्त, अनुयायी ; एहसां : अनुग्रह ; रिंद : मद्यप ; ख़ुम्र : मदिरा ; शैख़ : धर्मोपदेशक ; सेहरा : वर को पहनाया जाने वाला शिरो-वस्त्र, पगड़ी ; हक़ीक़त : यथार्थ, वास्तविकता ; ग़ैर : अन्य ; तोहमत : आरोप, दोष ; मुफ़्लिसो-मज़्लूम : वंचित-दलित ; ताजिरों : व्यापारियों ; हाशिये : सीमांत ; ज़ार : निरंकुश शासक ; जन्नत : स्वर्ग ; फ़राईज़ : कर्त्तव्य (बहुव.) ; इशरतों : विलासिताओं ; ज़र : धन, स्वर्ण ; मज़ाहिब : धर्म (बहुव.) ; अक़ीदत : आस्था ; ख़्वाब : स्वप्न ; हूरों : अप्सराओं ; तूर : एक मिथकीय पर्वत, ईश्वर के प्रकट होने का स्थान ; आसमां : आकाश, स्वर्ग ।

बुधवार, 20 अप्रैल 2016

मैकदा है गवाह...

जब  हमें  रास्ता  नहीं  होता
दोस्तों  का  पता  नहीं  होता

सब  गुनहगार  हैं  मुहब्बत  के
अब  कोई  बे-ख़ता  नहीं  होता

खैंच  लाता  है  दिल  को  सीने  से
शे'र  यूं  ही  क़त्'.अ  नहीं  होता

रोग  दिल  का  न  हम  लगा  लेते
दर्द  भी  लापता   नहीं  होता

मुश्किलाते-ग़रीबो-मुफ़लिस  से
शाह  को  वास्ता  नहीं  होता

मैकदा  है  गवाह  सदियों  से 
शैख़  भी  देवता  नहीं  होता

तूर  पर  वो  दिखाई  देते  हैं
पर  कभी  राब्ता  नहीं  होता  !

                                                                       (2016)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गुनहगार : अपराधी ; बे-ख़ता : निर्दोष, दोष-रहित ; क़त्'.अ : समाप्त ; मुश्किलाते-ग़रीबो-मुफ़लिस : निर्धन-वंचितों की कठिनाइयों ; वास्ता : संबंध, चिंता ; मैकदा : मदिरालय ; शैख़ : धर्मोपदेशक ; तूर :एक मिथकीय पर्वत, जहांईश्वर ने हज़रत मूसा अलैहि सलाम को दर्शन दिए थे ; राब्ता : संपर्क ।