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मंगलवार, 3 मई 2016

ग़ज़ल हम पर !

कोई  दावा  न  कीजिए  ग़म  पर
अब  ख़ुदा  मेह्रबान  है  हम  पर

ज़ख़्म  दर  ज़ख़्म   खिला  जाए  है
पढ़  गया  कौन  दुआ  मरहम  पर

मौत  है  दिल्लगी  पे  आमादा
दिल  उतारू  है  ख़ैर-मक़दम  पर

दश्त   को आग  के  हवाले  कर
वाज़  करते  हैं  लोग  मौसम  पर

रिज़्क़  हम  पर  हराम  है  उनका
बज़्म  जिनकी  है  शाह  के  दम  पर

हमसफ़र  लौट  आए  हज  कर  के
आप  अटके  हैं  ज़ुल्फ़  के  ख़म  पर

सोज़  उसकी  क़िर्अत  का  ऐसा  है
पढ़  रहा  हो  कोई  ग़ज़ल  हम  पर  !

                                                                     (2016)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दावा : वाद ; मेह्रबान : कृपालु ; ज़ख़्म : घाव ; दुआ : मंत्र, प्रार्थना ; दिल्लगी : ठिठोली, परिहास ; आमादा : कृत-संकल्प ; ख़ैर-मक़दम : स्वागत ; दश्त : वन ; वाज़ : उपदेश, प्रवचन ; रिज़्क़ : भोजन, आतिथ्य ; बज़्म : सभा, सामाजिक सम्मान; ख़म : मोड़, घुमाव, घुंघराला पन ; सोज़ : माधुर्य ; क़िर्अत : पवित्र क़ुर'आन का सस्वर पाठ ।


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