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मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

सब्ज़े के निशां ...

वो  अपना  अज़्म  हम  में  ढूंढते  हैं
ख़ुशी  की  राह  ग़म  में  ढूंढते  हैं

हमारी  बदनसीबी  हम  अभी  तक
वफ़ाओं  को  क़सम  में  ढूंढते  हैं

बसे  हैं  जो  रग़े-दिल  में  उन्हें  हम
न  जाने  किस  वहम  में  ढूंढते  हैं

दिले-सहरा  में  सब्ज़े  के  निशां  हम
किसी  की  चश्मे-नम  में  ढूंढते  हैं  

मिटाना  चाहते  हैं  जो  ख़ुदी  को
वो  ख़ुद्दारी  सितम  में  ढूंढते  हैं

मिला  दुनिया-ए-फ़ानी  में  हमें  जो
उसे  मुल्के -अदम  में  ढूंढते  हैं

ख़ुदा  का  घर  हमें  कोई  दिखा  दे
इनायत  के  भरम  में  ढूंढते  हैं  ! 

                                                                         (2016)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अज़्म: अस्मिता, महत्व; वफ़ाओं: निष्ठाओं; रग़े-दिल: हृदय के तंतु, वहम: संदेह; दिले-सहरा : मरुस्थल का हृदय; सब्ज़ा : हरीतिमा;  निशां : चिह्न ; चश्मे-नम : द्रवित नयन ; ख़ुदी : आत्म-बोध;  ख़ुद्दारी : स्वाभिमान; सितम : अत्याचार ; दुनिया-ए-फ़ानी : नश्वर संसार; मुल्के-अदम : ईश्वर का देश, परलोक; इनायत : कृपा ; भरम : भ्रम ।

सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

...अपना नाम पढ़ !

अर्श  पर  लिक्खा  हुआ  पैग़ाम  पढ़
और  उसमें  दर्ज   अपना  नाम  पढ़

बात ऐसी कह कि  दिल पर जा  लगे
मीर  का    दीवान    सुब्हो-शाम  पढ़

एह्तरामे - शैख़    मंहगा    शौक़  है
रिंदे-नादां  !  बोतलों   के   दाम  पढ़

क़त्ले-नाहक़  वहशियत  है  कुफ़्र  है
ऐ  मुजाहिद ! ठीक  से  इस्लाम  पढ़

क्या  हुआ  चंगेज़ो-हिटलर  का  बता
जाबिरे-तारीख़    का     अंजाम   पढ़

शर्म  से    गड़   जाएगी    जम्हूरियत 
ताजदारों    के    नए     एहकाम  पढ़

जी, कहा हमने  'अनलहक़'  दें  सज़ा
ऐ  फ़रिश्ते !  ज़ोर  से   इल्ज़ाम  पढ़  !'

                                                                        (2016)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अर्श:  आकाश, क्षितिज;  पैग़ाम : संदेश;  दर्ज : अंकित; मीर : हज़रत मीर तक़ी 'मीर', 19 वीं सदी के महान शायर; दीवान : रचना-संग्रह; एह्तरामे - शैख़ : मदिरा-विरोधी धर्म-भीरु का सम्मान; क़त्ले-नाहक़ : निरर्थक हत्या; वहशियत : उन्माद, पागलपन; कुफ़्र : ईश्वर-द्रोह; चंगेज़ो-हिटलर : चंगेज़ ख़ान, मंगोलिया का एक आततायी, आक्रमणकारी शासक और हिटलर, जर्मनी का नस्लवादी शासक; जाबिरे-तारीख़ : इतिहास-प्रसिद्ध अत्याचारी; अंजाम : परिणाम; जम्हूरियत : लोकतंत्र; ताजदारों : राष्ट्र-प्रमुखों ; एहकाम : आदेश; अनलहक़ : 'अहं ब्रह्मास्मि', इस्लाम के महान अद्वैतवादी दार्शनिक हज़रत मंसूर अ.स., का उद्घोष, जिन्हें उनके विचारों के कारण सूली पर चढ़ा दिया गया था; फ़रिश्ते : मृत्यु-दूत ; इल्ज़ाम : आरोप ।


शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

रंगे-ख़ुद्दारी न हो ...

हिज्र  हम  पर  इस  तरह  भारी  न  हो
जिस्म  में  हर  वक़्त   बेज़ारी    न  हो

दीद  का  दिन  है  मुक़र्रर   आज  फिर
ये:  ख़बर  तो काश !  सरकारी   न  हो

आ  गए    वो     सरबरहना      सामने
आईने   पर   बेख़ुदी       तारी     न  हो

शैख़    पी  कर    आए  हैं    बाज़ार  से
रिंद  के  घर   बेवजह   ख़्वारी   न   हो

ख़ुशनसीबी  आजकल  मुमकिन   नहीं
शाह  से    गर     दोस्ती-यारी      न  हो

इंक़िलाबी    सोच  भी   किस  काम  का
गर    मुकम्मल    रोज़    तैयारी  न  हो

चल   पड़े   हैं   वो   ख़ुदा  की    राह  पर
देखिए      इस    बार      दुश्वारी    न  हो

नाम     से     मेरे    उसे     मत   जोड़िए
जिस   ग़ज़ल   में    रंगे-ख़ुद्दारी     न  हो  !

                                                                               (2016)

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हिज्र: वियोग; जिस्म : शरीर; बेज़ारी : विमुखता; दीद: दर्शन; मुक़र्रर: सुनिश्चित; सरबरहना: बिना सिर ढांके; बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति; तारी: छा जाना; शैख़: धर्म-भीरु, मदिरा-विरोधी; रिंद: मदिरा-प्रेमी; बेवजह :  अकारण; ख़्वारी: अपमान; ख़ुशनसीबी: सौभाग्य; मुमकिन : संभव; गर: यदि; इंक़िलाबी: क्रांतिकारी; मुकम्मल: परिपूर्ण; दुश्वारी :कठिनाई;रंगे-ख़ुद्दारी: स्वाभिमान का रंग ।




पासबां कोई नहीं

शायरी  का  क़द्रदां   कोई  नहीं
इस  शग़ल  का  आसमां  कोई  नहीं

आलिमो-उस्ताद  हैं  सब  बज़्म  में
बस  हमारा  हमज़ुबां  कोई  नहीं

आज़मा  लें  तीर  सारे  आज  ही
बाद  इसके  इम्तिहां  कोई  नहीं

दोस्तों  की  भीड़  में  हैं  सैकड़ों
और  हम  पर  मेह्रबां  कोई  नहीं

नफ़्रतों की  आग  में  सब  जल  गया
क्या  वतन  का  पासबां   कोई  नहीं 

चाहता  है  जब्र  से  दिल   जीतना
शाह  जैसा  बदगुमां  कोई  नहीं

जाएंगे  सारे  अकेले  क़ब्र  तक
इस  सफ़र  में  कारवां  कोई  नहीं  !


                                                                            (2016)


                                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़द्रदां: मूल्य समझने वाला; शग़ल : अभिरुचि, समय बिताने का साधन; आसमां : आकाश, संभावना; आलिमो-उस्ताद : विद्वान एवं गुरु ; बज़्म : गोष्ठी; हमज़ुबां : सम भाषी; मेह्रबां : कृपालु; नफ़्रतों: घृणाओं; पासबां : रक्षक, ध्यान रखने वाला; जब्र: अत्याचार; बदगुमां : कु-विचारी, भ्रमित; कारवां : यात्री-समूह।  

गुरुवार, 28 जनवरी 2016

...दिलजले भी रहें !

मुश्किलें    भी  रहें    फ़ासले     भी  रहें
पर  कहीं  इश्क़  के  सिलसिले  भी  रहें

जी  हमें   प्यार  है   अपनी   तन्हाई  से
दोस्तों    के   कभी    क़ाफ़िले    भी  रहें

क़िस्स:-ए-इश्क़  में    ताज़गी  के  लिए
क्या  बुरा  है  कि  शिकवे-गिले  भी  रहें

आक़बत    शायरी    से    संवर  जाएगी
ज़ीस्त  में  रिज़्क़  के  मशग़ले  भी  रहें

है  रग़ों  में   रवां   गर्म  ख़ूं   जब  तलक
जंग  में    फ़त्ह   के    वल्वले    भी  रहें

ये:   ख़राबात   है    लाह  का    दर  नहीं
दिलरुबा    भी  रहे    दिलजले   भी  रहें

है  बहुत  दूर  मंज़िल  ख़ुदा  की    मियां
अर्श  की    राह  में    मरहले     भी  रहें  !

                                                                              (2016)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़ासले:अंतराल;  सिलसिले : अनुक्रम; तन्हाई :एकांत; काफ़िले : समूह; आक़बत : अंतिम गति, परलोक; ज़ीस्त : जीवन; 
रिज़्क़ : आजीविका; मशग़ले : व्यस्तताएं; रग़ों : नाड़ियों; रवां : गतिमान; ख़ूं : रक्त; तलक : तक; जंग :युद्ध, संघर्ष; फ़त्ह:विजय; वल्वले:उमंगें; ख़राबात:मदिरालय;  लाह: अल्लाह (संक्षिप्त); दर : द्वार; दिलरुबा : मनमोहन ; दिलजले : हृदय-दग्ध; अर्श: आकाश, स्वर्ग; मरहले : पड़ाव, विश्राम स्थल । 

 

बुधवार, 27 जनवरी 2016

दर्द का कारवां ...

दोस्ती  में  हमें  वो  जहां  दे  गए
ढाई  ग़ज़  की  ज़मीं  आस्मां  दे  गए

दो  घड़ी  के  लिए  हमसफ़र  वो  हुए
जब  गए  दर्द  का  कारवां  दे  गए

हिज्र  से  क़ब्ल  वो  रू-ब-रू  यूं  हुए
चश्म  को  ख़ामुशी  की  ज़ुबां  दे  गए

ख़ूब  रुस्वा  किया  आपकी  नज़्म  ने
दुश्मनों  को  नई  दास्तां  दे  गए

उनके  यौमे-शहादत  पे  तातील हो
इश्क़  में  जान  जो  नौजवां  दे  गए

लोग  फ़ाक़ाकशी  से  परेशान  हैं
और  फिर  शाह  झूठा  बयां  दे  गए

मग़फ़िरत  की  दुआ  की  जिन्होंने  वही
रूह   को  ज़ख़्म   के  भी  निशां  दे गए  !

                                                                              (2016)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: हमसफ़र: सहयात्री; कारवां: यात्री-समूह; हिज्र : वियोग; क़ब्ल: पूर्व; रू-ब-रू : सम्मुख; चश्म : नयन; ख़ामुशी : मौन; ज़ुबां : भाषा, शब्दावली; रुस्वा : लज्जित; नज़्म : गीत, कविता; दास्तां : आख्यान; यौमे-शहादत : बलिदान दिवस; तातील: सार्वजनिक अवकाश; फ़ाक़ाकशी : उपवास, भुखमरी; मग़फ़िरत : मोक्ष; रूह : आत्मा।  


शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

दिल बताशा ...

दुख़्तरे-रज़  ने  तमाशा  कर  दिया
शैख़  का  ईमां  ख़ुलासा  कर  दिया

लूट  कर  दिल  आप  यूं  चलते  बने
जिस तरह  अहसां  बड़ा-सा  कर  दिया

दे  रहे  हैं    इश्क़  पर   इल्ज़ाम  वो
जैसे  हमने  जुर्म  ख़ासा  कर  दिया

तीरगी       की     बेहयाई    देखिए
चांदनी  पर    इस्तगासा    कर  दिया

मान  कर  हमने   ख़ुदा  का   मशवरा
दर्द  से  दिल  को  शनासा  कर  दिया

दिल न  सीने से  निकल कर  आ गिरे
सामने  गर  हमने  कासा  कर  दिया

भेज  कर  घर  पर  फ़रिश्ते  आपने
दिल  हमारा  भी  बताशा  कर  दिया !

                                                                       (2016)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: दुख़्तरे-रज़ : अंगूर की बेटी, मदिरा; शैख़:धर्मोपदेशक; ईमां: आस्था; ख़ुलासा:सबके सामने लाना, रहस्योद्घाटन करना; अहसां: अनुग्रह; इल्ज़ाम :दोषारोपण; जुर्म: अपराध; ख़ासा: बहुत बड़ा; तीरगी : अंधकार; बेहयाई: निर्लज्जता; इस्तगासा :वाद दायर करना; मशवरा:  परामर्श, सुझाव; शनासा: परिचित; कासा : भिक्षा-पात्र; फ़रिश्ते : मृत्युदूत।