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शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

रंगे-ख़ुद्दारी न हो ...

हिज्र  हम  पर  इस  तरह  भारी  न  हो
जिस्म  में  हर  वक़्त   बेज़ारी    न  हो

दीद  का  दिन  है  मुक़र्रर   आज  फिर
ये:  ख़बर  तो काश !  सरकारी   न  हो

आ  गए    वो     सरबरहना      सामने
आईने   पर   बेख़ुदी       तारी     न  हो

शैख़    पी  कर    आए  हैं    बाज़ार  से
रिंद  के  घर   बेवजह   ख़्वारी   न   हो

ख़ुशनसीबी  आजकल  मुमकिन   नहीं
शाह  से    गर     दोस्ती-यारी      न  हो

इंक़िलाबी    सोच  भी   किस  काम  का
गर    मुकम्मल    रोज़    तैयारी  न  हो

चल   पड़े   हैं   वो   ख़ुदा  की    राह  पर
देखिए      इस    बार      दुश्वारी    न  हो

नाम     से     मेरे    उसे     मत   जोड़िए
जिस   ग़ज़ल   में    रंगे-ख़ुद्दारी     न  हो  !

                                                                               (2016)

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हिज्र: वियोग; जिस्म : शरीर; बेज़ारी : विमुखता; दीद: दर्शन; मुक़र्रर: सुनिश्चित; सरबरहना: बिना सिर ढांके; बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति; तारी: छा जाना; शैख़: धर्म-भीरु, मदिरा-विरोधी; रिंद: मदिरा-प्रेमी; बेवजह :  अकारण; ख़्वारी: अपमान; ख़ुशनसीबी: सौभाग्य; मुमकिन : संभव; गर: यदि; इंक़िलाबी: क्रांतिकारी; मुकम्मल: परिपूर्ण; दुश्वारी :कठिनाई;रंगे-ख़ुद्दारी: स्वाभिमान का रंग ।




पासबां कोई नहीं

शायरी  का  क़द्रदां   कोई  नहीं
इस  शग़ल  का  आसमां  कोई  नहीं

आलिमो-उस्ताद  हैं  सब  बज़्म  में
बस  हमारा  हमज़ुबां  कोई  नहीं

आज़मा  लें  तीर  सारे  आज  ही
बाद  इसके  इम्तिहां  कोई  नहीं

दोस्तों  की  भीड़  में  हैं  सैकड़ों
और  हम  पर  मेह्रबां  कोई  नहीं

नफ़्रतों की  आग  में  सब  जल  गया
क्या  वतन  का  पासबां   कोई  नहीं 

चाहता  है  जब्र  से  दिल   जीतना
शाह  जैसा  बदगुमां  कोई  नहीं

जाएंगे  सारे  अकेले  क़ब्र  तक
इस  सफ़र  में  कारवां  कोई  नहीं  !


                                                                            (2016)


                                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़द्रदां: मूल्य समझने वाला; शग़ल : अभिरुचि, समय बिताने का साधन; आसमां : आकाश, संभावना; आलिमो-उस्ताद : विद्वान एवं गुरु ; बज़्म : गोष्ठी; हमज़ुबां : सम भाषी; मेह्रबां : कृपालु; नफ़्रतों: घृणाओं; पासबां : रक्षक, ध्यान रखने वाला; जब्र: अत्याचार; बदगुमां : कु-विचारी, भ्रमित; कारवां : यात्री-समूह।  

गुरुवार, 28 जनवरी 2016

...दिलजले भी रहें !

मुश्किलें    भी  रहें    फ़ासले     भी  रहें
पर  कहीं  इश्क़  के  सिलसिले  भी  रहें

जी  हमें   प्यार  है   अपनी   तन्हाई  से
दोस्तों    के   कभी    क़ाफ़िले    भी  रहें

क़िस्स:-ए-इश्क़  में    ताज़गी  के  लिए
क्या  बुरा  है  कि  शिकवे-गिले  भी  रहें

आक़बत    शायरी    से    संवर  जाएगी
ज़ीस्त  में  रिज़्क़  के  मशग़ले  भी  रहें

है  रग़ों  में   रवां   गर्म  ख़ूं   जब  तलक
जंग  में    फ़त्ह   के    वल्वले    भी  रहें

ये:   ख़राबात   है    लाह  का    दर  नहीं
दिलरुबा    भी  रहे    दिलजले   भी  रहें

है  बहुत  दूर  मंज़िल  ख़ुदा  की    मियां
अर्श  की    राह  में    मरहले     भी  रहें  !

                                                                              (2016)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़ासले:अंतराल;  सिलसिले : अनुक्रम; तन्हाई :एकांत; काफ़िले : समूह; आक़बत : अंतिम गति, परलोक; ज़ीस्त : जीवन; 
रिज़्क़ : आजीविका; मशग़ले : व्यस्तताएं; रग़ों : नाड़ियों; रवां : गतिमान; ख़ूं : रक्त; तलक : तक; जंग :युद्ध, संघर्ष; फ़त्ह:विजय; वल्वले:उमंगें; ख़राबात:मदिरालय;  लाह: अल्लाह (संक्षिप्त); दर : द्वार; दिलरुबा : मनमोहन ; दिलजले : हृदय-दग्ध; अर्श: आकाश, स्वर्ग; मरहले : पड़ाव, विश्राम स्थल । 

 

बुधवार, 27 जनवरी 2016

दर्द का कारवां ...

दोस्ती  में  हमें  वो  जहां  दे  गए
ढाई  ग़ज़  की  ज़मीं  आस्मां  दे  गए

दो  घड़ी  के  लिए  हमसफ़र  वो  हुए
जब  गए  दर्द  का  कारवां  दे  गए

हिज्र  से  क़ब्ल  वो  रू-ब-रू  यूं  हुए
चश्म  को  ख़ामुशी  की  ज़ुबां  दे  गए

ख़ूब  रुस्वा  किया  आपकी  नज़्म  ने
दुश्मनों  को  नई  दास्तां  दे  गए

उनके  यौमे-शहादत  पे  तातील हो
इश्क़  में  जान  जो  नौजवां  दे  गए

लोग  फ़ाक़ाकशी  से  परेशान  हैं
और  फिर  शाह  झूठा  बयां  दे  गए

मग़फ़िरत  की  दुआ  की  जिन्होंने  वही
रूह   को  ज़ख़्म   के  भी  निशां  दे गए  !

                                                                              (2016)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: हमसफ़र: सहयात्री; कारवां: यात्री-समूह; हिज्र : वियोग; क़ब्ल: पूर्व; रू-ब-रू : सम्मुख; चश्म : नयन; ख़ामुशी : मौन; ज़ुबां : भाषा, शब्दावली; रुस्वा : लज्जित; नज़्म : गीत, कविता; दास्तां : आख्यान; यौमे-शहादत : बलिदान दिवस; तातील: सार्वजनिक अवकाश; फ़ाक़ाकशी : उपवास, भुखमरी; मग़फ़िरत : मोक्ष; रूह : आत्मा।  


शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

दिल बताशा ...

दुख़्तरे-रज़  ने  तमाशा  कर  दिया
शैख़  का  ईमां  ख़ुलासा  कर  दिया

लूट  कर  दिल  आप  यूं  चलते  बने
जिस तरह  अहसां  बड़ा-सा  कर  दिया

दे  रहे  हैं    इश्क़  पर   इल्ज़ाम  वो
जैसे  हमने  जुर्म  ख़ासा  कर  दिया

तीरगी       की     बेहयाई    देखिए
चांदनी  पर    इस्तगासा    कर  दिया

मान  कर  हमने   ख़ुदा  का   मशवरा
दर्द  से  दिल  को  शनासा  कर  दिया

दिल न  सीने से  निकल कर  आ गिरे
सामने  गर  हमने  कासा  कर  दिया

भेज  कर  घर  पर  फ़रिश्ते  आपने
दिल  हमारा  भी  बताशा  कर  दिया !

                                                                       (2016)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: दुख़्तरे-रज़ : अंगूर की बेटी, मदिरा; शैख़:धर्मोपदेशक; ईमां: आस्था; ख़ुलासा:सबके सामने लाना, रहस्योद्घाटन करना; अहसां: अनुग्रह; इल्ज़ाम :दोषारोपण; जुर्म: अपराध; ख़ासा: बहुत बड़ा; तीरगी : अंधकार; बेहयाई: निर्लज्जता; इस्तगासा :वाद दायर करना; मशवरा:  परामर्श, सुझाव; शनासा: परिचित; कासा : भिक्षा-पात्र; फ़रिश्ते : मृत्युदूत।

जान ले ली चांद की....

कोई  खिड़की  कोई  दरवाज़ा  मिले
कर्बे-जन्नत  में   हवा  ताज़ा  मिले

तीरगी  ने   जान  ले  ली   चांद  की
शाहे-मौसम  को  ये  आवाज़ा  मिले

दौरे- हिज्रां  एक  दिन  भी  है  बहुत
बाद  उसके  रोज़  ख़मियाज़ा  मिले

हो  कभी  बादे-सबा  मेहमां  मेरी
मौजे-दिल  को  मख़मली  गाज़ा  मिले

हों  मुकम्मल  जंग  की  तैयारियां
दुश्मनों  का  कोई  अंदाज़ा  मिले

ख़ुल्द  है  या  काले   पानी  की  सज़ा
शायरी  का  गर  न  शीराज़ा  मिले  !

                                                                    ( 2016 )

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: कर्बे-जन्नत: स्वर्ग की यातना; तीरगी: अंधकार; शाहे-मौसम: ऋतुओं काराजा, बसंत; आवाज़ा: श्रेय, यशोकीर्त्ति; दौरे- हिज्रां: वियोग-काल; ख़मियाज़ा :क्षति-पूर्त्ति; बादे-सबा :प्रातःसमीर; मौजे-दिल: मन की तरंग; गाज़ा : झूला; मुकम्मल: परिपूर्ण; जंग : युद्ध; अंदाज़ा : अनुमान;  ख़ुल्द: स्वर्ग;  काला पानी: (उर्दू में अप्रचलित, ) अंग्रेज़ों के राज में अंडमान के कारागार में बंदी बनाना; 
शीराज़ा: संकलन ।

बुधवार, 20 जनवरी 2016

दिल मांग रहे हैं...

आदाबे-शिकायत  क्या  कहिए  वो  शाद  भी  हैं  नाशाद  भी  हैं
कहते  हैं  हमें  वो  भूल  गए  फिर  कहते  हैं   कुछ  याद  भी  हैं

दिल  मांग  रहे  हैं    जो  हमसे    सौ  बार    हमें  छू  कर  देखें
हम  मोम  कलेजा  रखते  हैं  पर  बाज़  जगह  फ़ौलाद  भी  हैं

मासूम  अदाओं  से    अब  वो     धोखा  न  हमें       दे  पाएंगे
पहचान  चुके  हैं  हम  उनको  वो  क़ातिल  हैं  सय्याद  भी  हैं

अफ़सोस नहीं  कुछ शिकवे हैं  कहिए तो सुना दें महफ़िल  में
बेज़ार   सही   बर्बाद   सही   मुश्ताक़  भी  हैं    आज़ाद  भी  हैं

गुमनाम सही  इस  बस्ती  में  कहते हैं  ग़ज़ल  सच्चे  दिल  से
शागिर्द  अगर  हैं  ग़ालिब  के   तो  चार  जगह   उस्ताद  भी  हैं

या  ख़ुश हो कर  ख़ुम  दे हमको  या  और कहीं का रुख़  कर  लें
यूं  हम  दीवाने  तश्ना  लब    ज़िद  कर  लें    तो  फ़रहाद  भी  हैं

वो  अर्शे-नुहुम  पर    रहते  हैं    हम  हैं  कि   असीरे-दुनिया  हैं
नज़दीक  बहुत  हैं  हम  दोनों  कहने  को  कई  अब्आद  भी  है !

(2016)

-सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आदाबे-शिकायत : शिकायत करने के शिष्टाचार;  शाद : प्रसन्न;  नाशाद : अप्रसन्न; बाज़ : कुछ, विशिष्ट; फ़ौलाद : इस्पात; मासूम : भोली;  अदाओं : भंगिमाओं;  क़ातिल : हत्यारा; सय्याद : बहेलिया; अफ़सोस : खेद ; शिकवे : पूर्वाग्रह; महफ़िल : गोष्ठी; बेज़ार : परेशान; मुश्ताक़ : आतुर; शागिर्द : शिष्य; ग़ालिब : हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, महान शायर ; उस्ताद : गुरु; ख़ुम : मदिरा पात्र; रुख़ : दिशा; तश्नालब : प्यासे अधर वाले; फ़रहाद : शीरीं-फ़रहाद की प्रेम-कथा का नायक, जो पहाड़ खोद कर नहर निकाल लाया था ; अर्शे-नुहुम : नौवां आकाश, मिथक के अनुसार ख़ुदा के रहने का स्थान ; असीरे-दुनिया : संसार के बंदी ; अब्आद : दूरियां, अंतराल ।