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शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

जान ले ली चांद की....

कोई  खिड़की  कोई  दरवाज़ा  मिले
कर्बे-जन्नत  में   हवा  ताज़ा  मिले

तीरगी  ने   जान  ले  ली   चांद  की
शाहे-मौसम  को  ये  आवाज़ा  मिले

दौरे- हिज्रां  एक  दिन  भी  है  बहुत
बाद  उसके  रोज़  ख़मियाज़ा  मिले

हो  कभी  बादे-सबा  मेहमां  मेरी
मौजे-दिल  को  मख़मली  गाज़ा  मिले

हों  मुकम्मल  जंग  की  तैयारियां
दुश्मनों  का  कोई  अंदाज़ा  मिले

ख़ुल्द  है  या  काले   पानी  की  सज़ा
शायरी  का  गर  न  शीराज़ा  मिले  !

                                                                    ( 2016 )

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: कर्बे-जन्नत: स्वर्ग की यातना; तीरगी: अंधकार; शाहे-मौसम: ऋतुओं काराजा, बसंत; आवाज़ा: श्रेय, यशोकीर्त्ति; दौरे- हिज्रां: वियोग-काल; ख़मियाज़ा :क्षति-पूर्त्ति; बादे-सबा :प्रातःसमीर; मौजे-दिल: मन की तरंग; गाज़ा : झूला; मुकम्मल: परिपूर्ण; जंग : युद्ध; अंदाज़ा : अनुमान;  ख़ुल्द: स्वर्ग;  काला पानी: (उर्दू में अप्रचलित, ) अंग्रेज़ों के राज में अंडमान के कारागार में बंदी बनाना; 
शीराज़ा: संकलन ।

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