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सोमवार, 4 जनवरी 2016

हर शख़्स को मकां ...

हज़ार  बार      अक़ीदत  का     इम्तिहां  देंगे
तू  जिस तरह से  कहे  उस तरह से  जां  देंगे

नज़र  उठाइए     उम्मीदवार        कितने  हैं
कि  एक  दिल  है  इसे  कब-किसे-कहां  देंगे

तमाम   रहबरां     लंबी   ज़ुबान      रखते  हैं
ज़मीं  जो  दे  न  सके  क्या  वो  आस्मां   देंगे

जहां  जगह  नहीं    बैतुल  ख़ला   बनाने  की
वो  कह रहे हैं  कि  हर शख़्स  को  मकां  देंगे

अवाम    ढूंढ  रहे  हैं    वतन  के    वुज़रा  को 
जो    कह  रहे  थे    उन्हें      दौलते-जहां  देंगे

नए   मिज़ाज     पुराने    उसूल     क्यूं  मानें
नवा-ए-वक़्त  को     तरजीह     नौजवां  देंगे

जहां  के  दर्द    ग़ज़ल  में    बयान  तो  कीजे
दुआ   जनाब  को    दिन-रात     बेज़ुबां  देंगे !

                                                                                        (2016)

                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अक़ीदत: आस्था; इम्तिहां:परीक्षा; उम्मीदवार:प्रत्याशी; रहबरां: नेतागण; लंबी ज़ुबान: अतिशयोक्ति करना; ज़मीं: भूमि; 
आस्मां: आकाश;बैतुल ख़ला: शौचालय; शख़्स: व्यक्ति; मकां: भवन; अवाम:जन-साधारण; वुज़रा: मंत्रीगण; दौलते-जहां: संसार-भर का धन; मिज़ाज: स्वभाव; उसूल: सिद्धांत; नवा-ए-वक़्त: आधुनिक विचारधारा; तरजीह: प्राथमिकता; बयान: अभिव्यक्त; दुआ: शुभकामना; जनाब: श्रीमान; बेज़ुबां: जिनके पास बोलने की क्षमता न हो, मूक ।

शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

मुंह छुपाने जगह...

इश्क़    ख़ानाख़राब     करता  है
सांस  लेना    अज़ाब   करता  है

क़त्ल  ग़ुन्चे  भी  कर  गुज़रते  हैं
ज़ुल्म   वो  वो   शबाब  करता  है

एक  ही  वस्फ़  है  वफ़ा  का  जो
दर्द  को     कामयाब    करता  है

एक  चेहरा  है  ख़्वाब  में  अक्सर
ख़्वाहिशों  को  गुलाब  करता  है

जज़्ब:-ए-इश्क़  हर  ज़माने  में
हर  अदा   लाजवाब   करता  है

मुंह  छुपाने जगह नहीं  मिलती
वक़्त  जब  बे-नक़ाब  करता  है

गर  ख़ुदा  ज़ख़्म  भर  नहीं  सकता
तो  तलब  क्यूं   जवाब    करता  है  ?

                                                              (2016)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ानाख़राब: गृह-विमुख; अज़ाब: पाप, श्राप समान; ग़ुन्चे: कलियां; ज़ुल्म: अत्याचार; शबाब: यौवन; वस्फ़: चारित्रिक गुण; वफ़ा: निष्ठा; कामयाब: सफल; ख़्वाहिशों: इच्छाओं; जज़्ब:-ए-इश्क़: प्रेम की भावना; तलब:मांगना।

बुधवार, 30 दिसंबर 2015

...दिल को यूं मसलते हैं

दिल  अगर  ख़ुशफ़हम  नहीं  होता
आज  सीने  में  ग़म   नहीं  होता

आप  खुल  कर  कलाम  कर  लेते
तो  हमें  कुछ  वहम  नहीं  होता

ख़ाकसारी  वज़्न  बढ़ाती  है
आपका  अज़्म  कम  नहीं  होता

वो  मेरे  दिल  को  यूं  मसलते  हैं
एक  रेश:  भी  ख़म  नहीं  होता

ज़ार  जावेद  हो  गए होते
जो  रिआया  में  दम  नहीं  होता

काश ! मेरी  दुआएं  बर  आतीं
कोई  भी  चश्म  नम  नहीं  होता

कौन  उसकी  दुहाइयां  देता
गर  ख़ुदा  बेरहम  नहीं  होता !

                                                                   (2015)

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुशफ़हम: सदाप्रसन्न रहने वाला; कलाम: संवाद, बातचीत; वहम: भ्रम; ख़ाकसारी: विनम्रता; वज़्न: गुरुत्व, भार; अज़्म: अस्मिता, सम्मान, सामाजिक स्थिति; रेश::तन्तु; ख़म: बांका, टेढ़ा; ज़ार:रूस के प्राचीन, अत्याचारी शासक; जावेद: शास्वत, स्थायी, अमर;रिआया: नागरिक गण; बर : फलीभूत होना; चश्म: नयन; नम:भर आना; दुहाइयां : सहायताकेलिएपुकारलगाना, स्मरणकरना;  गर:यदि; बेरहम: निर्दयी।

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

इतने हसीन हैं...

उनके  ख़िलाफ़  कोई  शिकायत  न  हो  सकी
इतने  हसीन  हैं   कि  अदावत    न  हो  सकी

पैग़ाम    शैख़   को    तो    मुलाक़ात   रिंद  से
हमसे तो इस तरह की सियासत  न  हो  सकी

दे  आएं    मेरे  मर्ग़  की    उनको    ख़बर  ज़रा
इतनी  भी   दोस्तों  से   शराफ़त   न  हो  सकी

उस्तादो-वाल्दैन    भी   समझा   के    थक  गए
शामिल  तुम्हारी  ख़ू  में  सदाक़त  न  हो  सकी

बुलबुल    उदास    है   कि    हवाएं   मुकर  गईं
सय्याद  के   ख़िलाफ़    बग़ावत    न  हो  सकी

रिज़्वां !  तेरा  यक़ीन     नहीं     मालिकान  को
तुझसे तो तितलियों की हिफ़ाज़त  न  हो  सकी

हमने        हज़ार     साल    गुज़ारे     सुजूद  में
अफ़सोस !  आसमां  से  इनायत  न  हो  सकी  !

                                                                                    (2015)

                                                                             -सुरेश  स्वप्निल 


शब्दार्थ: हसीन: सुदर्शन; अदावत: शत्रुता; पैग़ाम:संदेश; शैख़ : धर्म-भीरु, मदिरा-विरोधी; रिंद: मद्य-प्रेमी; सियासत: कूटनीति, दोहरापन; मर्ग़ : देहांत; शराफ़त : शिष्टता; उस्तादो-वाल्दैन : गुरुजन एवं माता-पिता; ख़ू : चारित्रिक गुण, विशिष्टताएं; सदाक़त : सत्यता; बुलबुल : कोयल; सय्याद: बहेलिया; बग़ावत: विद्रोह; रिज़्वां: रिज़्वान, मिथक के अनुसार स्वर्ग (जन्नत) के उद्यान का रक्षक; मालिकान: स्वामी-वर्ग, यहां आशय ईश्वर तथा देवता-गण; हिफ़ाज़त:सुरक्षा; सुजूद: आपाद-मस्तक प्रणाम, सज्दे का बहुव.; अफ़सोस: खेद; आसमां: आकाश, परलोक, ईश्वर; इनायत: कृपा ।

सोमवार, 28 दिसंबर 2015

सज्दों की फ़िक्र...

दिन  रात     ज़िंदगी     से     परेशां     रहा  करें
उस  पर  भी  सर  पे  अर्श  के  एहसां  रहा  करें

ज़रदार  को  मु'आफ़    सभी   रोज़:-ओ-नमाज़
सज्दे  में    बस     ग़रीब    मुसलमां   रहा  करें

रखते  हैं    जो  निगाह    हमारी      निगाह  पर
बेहतर  है    वो  भी      साहिबे-ईमां    रहा  करें

किस-किस  की  नफ़्रतों  को  हवा  दीजिए  यहां
बन  कर  किसी के  चश्म  के  अरमां  रहा  करें

तफ़्रीहे-आसमां    से     ज़रा    वक़्त     ढूंढ  कर
कुछ  दिन  ज़मीने-मुल्क  के   मेहमां  रहा  करें

सरमाय:  नूर     नेक  कमाई   है     ज़ीस्त  की
कोई   गुनाह     हो   तो       पशेमां     रहा  करें

इल्ज़ामे-कुफ़्र     हमको    गवारा    नहीं  मियां
सज्दों  की    फ़िक्र  है    तो     मेह्रबां  रहा  करें !

                                                                                      (2015)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: परेशां: विकल; अर्श: आकाश,  ईश्वर; एहसां: अनुग्रह; ज़रदार: स्वर्णशाली, समृद्ध; मु'आफ़: क्षमा, मुक्ति; रोज़:-ओ-नमाज़ : व्रत और प्रार्थनाएं; सज्दे: भूमिवत प्रणाम; मुसलमां: आस्तिक; साहिबे-ईमां : आस्थावान; नफ़्रतों: घृणाओं; चश्म: नयन; अरमां:अभीष्ट; तफ़्रीहे-आसमां:आकाश की सैर; ज़मीने-मुल्क: देश की धरा; मेहमां: अतिथि; सरमाय: नूर: (आध्यात्मिक) प्रकाश की पूंजी; नेक:शुभ, पुण्य; ज़ीस्त:जीवन; गुनाह: अपराध; पशेमां: लज्जित; इल्ज़ामे-कुफ़्र: अनास्था का आरोप; गवारा : स्वीकार; मेह्रबां: कृपालु।


शनिवार, 26 दिसंबर 2015

... झमेला बना दिया

काशी  को  कालिया  ने  कटैला  बना दिया
गंगो-जमन  के  रंग  को  मैला  बना  दिया

दर्ज़ी  को  दें  दुआएं  कि  हज्जाम  को  ईनाम
बदशक्ल  शाहे-वक़्त  को  छैला  बना  दिया

थाली  में  दाल  है  न  मुक़द्दर  में  मुर्ग़ीयां
हर  ज़ायक़ा  अना  ने  कसैला  बना  दिया

दिल्ली था  जिसका  नाम  उसे  ढूंढते  हैं  सब  
जम्हूरियत  ने  ख़ूब  झमेला  बना  दिया

ला'नत  है  रहबरों  के  सियासी  शऊर  पर
बज़्मे-सुख़न  को  जिसने  तबेला  बना  दिया

उस  ज़ह्र  की  दवा  न  मिली  क़ैस  को  कभी
जिसने  गुले-गुलाब  को  लैला  बना  दिया

है  दौरे-तरक़्क़ी  कि  तबाही  का  सिलसिला
जिसने  अठन्नियों  को  अधेला  बना  दिया !

                                                                                     (2015)

                                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: काशी: वाराणसी; कालिया:कृष्ण-कथा में वर्णित कालिया नाग; कटैला: काला-कत्थई रंग का एक अर्द्ध-मूल्यवान रत्न; गंगो-जमन: गंगा-यमुना; हज्जाम: केश काटने वाला; बदशक्ल: कुरूप; शाहे-वक़्त: वर्त्तमान शासक; छैला: सजा-संवरा पुरुष; मुक़द्दर: भाग्य; ज़ायक़ा: स्वाद; अना: अहंकार; कसैला: कषाय; जम्हूरियत: लोकतंत्र; ला'नत: धिक्कार; रहबरों : नेताओं; सियासी: राजनैतिक; शऊर: विवेक; बज़्मे-सुख़न:सृजनकर्मियों  की गोष्ठी; तबेला: पशुओं को बांधने का स्थान; ज़ह्र:जहर, विष; क़ैस: लैला का प्रेमी, 'मजनूं';   गुले-गुलाब: गुलाब का फूल; लैला:मजनूं की प्रेमिका, काली रात, -के समानकृष्ण-वर्णी; दौरे-तरक़्क़ी : प्रगति /विकास का काल; तबाही: विध्वंस; सिलसिला: क्रम; अधेला: आधे पैसे का सिक्का, अब अप्रचलित ।

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

मियां ! दीवानगी क्यूं...?


शराफ़त  पर  किसी    की  आपको  शर्मिंदगी  क्यूं   है
न  जाने   आपके  औसाफ़  में    ऐसी    कमी   क्यूं  है

हमें  जिसने    गिराया  था    ज़माने  की   निगाहों  में
हमारे  चश्म   में   उसके  लिए   इतनी   नमी  क्यूं  है

चला  कर  पीठ  पर  ख़ंजर  जो   एहसां  भी   जताते  हैं
लबों   पर  आज  फिर  उनके  ये  लफ़्ज़े-दोस्ती  क्यूं  है

हमारी   जान    ले   कर  भी    हमीं  पर   जान  देते  हो
हमारे   वास्ते    अब  भी     मियां !   दीवानगी   क्यूं  है

वही   जानें     वही   समझें     ये   कैसा    इस्तगासा  है
हमारा  जुर्म    ज़ाहिर  है    तो  ये    रस्साकशी   क्यूं  है

हमारा वक़्त आया   चल दिए   कह कर   'ख़ुदा हाफ़िज़'
दिले-एहबाब   में    इस बात पर   मीठी  ख़ुशी   क्यूं  है

हमारे  ग़म    उसी  के  हैं     हमारी    हर   ख़ुशी  उसकी
ख़ुदा   है  दोस्त  भी  है  तो  अभी   तक  अजनबी क्यूं है ?

                                                                                             (2015)

                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शराफ़त: शिष्टता; शर्मिंदगी: लज्जा का अनुभव; औसाफ़: प्रकृतिगत विशिष्टताएं, अच्छाइयां; चश्म:नयन, दृष्टि; ख़ंजर: क्षुरी; एहसां: अनुग्रह; लबों: होठों; लफ़्ज़े-दोस्ती: मित्रता  का शब्द; दीवानगी: उन्मत्त प्रेम;   इस्तगासा: न्यायालय में प्रस्तुत किया जाने वाला अपराध का विवरण; जुर्म: अपराध;  ज़ाहिर:प्रकट, सिद्ध; ख़ुदा हाफ़िज़: 'ईश्वर रक्षा करे'; मित्रों के हृदय;  अजनबी:अपरिचित।