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सोमवार, 16 मार्च 2015

उनका असलहा होगा !

किसी   ने  कुछ  सुना  होगा  किसी  ने  कुछ  कहा  होगा
ख़बर  यूं  ही  नहीं  बनती,  कहीं  कुछ  तो  रहा  होगा  !

त'अल्लुक़  तोड़  कर  तुमसे  बहुत  कुछ  खो  दिया  हमने
हमें  खो  कर  मगर  तुमने  कहीं  ज़्यादा  सहा  होगा

परेशां      हम   अकेले   ही    नहीं  वादाख़िलाफ़ी  से
लहू  उस  बेवफ़ा  की  आंख   से  भी   तो  बहा  होगा

किया  था  आपको  आगाह  हमने  शाह  की  ख़ू  से
यक़ीं   के    टूटने   का  हादसा    अब  बारहा   होगा

अवामे-हिंद   हैं  हम,  जब  बग़ावत  को  खड़े  होंगे
हमारे    हाथ  होंगे   और  उनका    असलहा  होगा  !

                                                                                            (2015)

                                                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: त'अल्लुक़: संबंध; परेशां: व्यथित; वादाख़िलाफ़ी: वचन टूटना; बेवफ़ा: वचन तोड़ने वाला; आगाह: पूर्व-सूचित; ख़ू: स्वभाव, व्यक्तित्व; यक़ीं: विश्वास; हादसा: दुर्घटना; बारहा: बार-बार; अवामे-हिंद: भारत के जन-सामान्य; बग़ावत: विद्रोह; असलहा: शस्त्र-भंडार ।






मंगलवार, 10 मार्च 2015

हमारे बाद का मौसम !

किसी  के  दर्द  का  मौसम,  किसी  की  याद  का  मौसम
ग़मे-दुनिया  से      हैरां  है     दिले-नाशाद     का  मौसम

न   बुलबुल   के   तराने   हैं,   न   है   परवाज़  शाहीं  की
चमन  में  आ  गया  जैसे    किसी  सय्याद   का  मौसम

सियासत  की  नवाज़िश  ने  किसी  घर  को  नहीं  बख़्शा
कहीं  एहसान  की    बारिश,   कहीं    फ़र्याद  का   मौसम

हरइक   शै  नाचती  है    उंगलियों  पर    तिफ़्ले-नादां  के
कहां   इस  दौर  के   जलवे,  कहां    अज्दाद  का   मौसम

उधर   अज़हद  अमीरी   है,    इधर  हैं   रिज़्क़  के    लाले
मुबारक   हो    मुरीदे-शाह     को    अज़्दाद    का  मौसम

किसी  की  जान  ले  लें   या   किसी  का  घर  जला  डालें
मुआफ़िक़  है    तुम्हारी  फ़ौज  के   इफ़्साद  का   मौसम 

हम  अपनी  नस्ल  के  हक़  में  लड़ेंगे  आख़िरी  दम  तक
उमीदों   से     सजा   होगा     हमारे   बाद     का    मौसम !

                                                                                               (2015)

                                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ग़मे-दुनिया: संसार का दुःख; हैरां: चकित; दिले-नाशाद: दुःखी हृदय; तराने: गीत; परवाज़: उड़ान; शाहीं: एक मिथकीय पक्षी; चमन: उपवन; सय्याद: बहेलिया; नवाज़िश: देन; एहसान: अनुग्रह; फ़र्याद: याचना; शै: अस्तित्वमान वस्तु; तिफ़्ले-नादां: अबोध शिशुओं; जलवे: प्रदर्शन, दिखावे; अज्दाद: बाप-दादे, पूर्वजों; अज़हद: अतिशय, अपार; रिज़्क़: दो समय का भोजन; लाले: अभाव; मुबारक: शुभ; मुरीदे-शाह: शासक के प्रशंसकों; अज़्दाद: विरोधाभासों, परस्पर विरोधी चीज़ों; मुआफ़िक़: अनुकूल; इफ़्साद: उपद्रवों; नस्ल: आगामी पीढ़ी; हक़: पक्ष ।

शनिवार, 7 मार्च 2015

नवाले-यार का मौसम !

ख़्याले-यार  का  मौसम
विसाले-यार  का  मौसम

बुरा  हो  रस्मे-हिज्रां  का
मलाले-यार  का  मौसम

हिजाबों  से  परेशां  है
जमाले-यार  का  मौसम

बड़ा  ख़ामोश  क़ातिल  है
सवाले-यार  का  मौसम

उसूलों  की  कमाई  है
नवाले-यार  का  मौसम

हुआ  फिर  तूर  पर  तारी
कमाले-यार  का  मौसम

पड़ेगा  शाह  पर  भारी
जलाले-यार  का  मौसम !

                                                 (2015)

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़्याले-यार: प्रिय का ध्यान; विसाल: मिलन; रस्मे-हिज्रां: वियोग की प्रथा; मलाल: खेद; हिजाब: मुखावरण; जमाल: यौवन; सवाले-यार: प्रिय के प्रश्न; उसूल: सिद्धांत; नवाले-यार: प्रिय की कृपा, अनुग्रह; तूर: मिस्र के शाम क्षेत्र में एक मिथकीय पर्वत, जहां हज़रत मूसा अ.स. को अल्लाह की झलक मिली थी; तारी: छा जाना; कमाल: चमत्कार; जलाल: प्रताप, तेज । 

शुक्रवार, 6 मार्च 2015

हाथ मसलता मौसम...

वक़्त-बे-वक़्त  बदलता  मौसम
धूप  की  याद  में  जलता  मौसम

कर  रहा  है  जफ़ा  ग़रीबों  से
हाथ  से  रोज़  निकलता  मौसम

है  रवानी  पसंद  आंखों  को
अश्क  बन-बन  के  पिघलता  मौसम

तिफ़्ले-नादान  की   तरह  हमसे
रूठ  जाता  है  संभलता  मौसम 

छोड़  बैठा  बहार  का  दामन
रह  गया  हाथ  मसलता  मौसम
 
लड़खड़ा  जाए  ना  कहीं  ईमां
तेग़  की  धार  प'  चलता  मौसम

रोज़  बद्कार  हुआ  जाए  है
शाह  के  रंग  में  ढलता  मौसम !

                                                              (2015)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अनीति, अन्याय; रवानी: गति; तिफ़्ले-नादान: अबोध शिशु; बहार: बसंत; दामन: आंचल; 
ईमां: आस्था; तेग़: तलवार; बद्कार: कुकर्मी । 

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

दीदार, नामुमकिन !

नई  तहज़ीब  नामुमकिन,  नए  इक़्दार  नामुमकिन
मुहब्बत  का  करें  हम  आपसे  इज़्हार,  नामुमकिन !

बहुत-से  लोग  हैं  हमको  जहां  में  फ़िक्र  करने  को
रहें  अपने  लिए  हम  रात-दिन  बेज़ार,  नामुमकिन

बुलाएं  रोज़  उनको  ख़्वाब  में,  लेकिन  न  आएंगे
हज़ारों  कोशिशें  ज़ाया,   हज़ारों  बार   नामुमकिन

निभाना  चाहते  हैं  जो,  उन्हें  मुश्किल नहीं  होती
मगर  हर  दोस्त हो  हर  बात  पर  तैयार,  नामुमकिन

ज़माने  का  चलन  है  बेगुनाहों  को  सज़ा  देना
करें  हम  शाह  से  इंसाफ़  की  दरकार,  नामुमकिन

उठाए  हैं  मफ़ायद  टूट  कर  सरमाएदारों  से
ग़रीबों  के  लिए  हो  मुल्क  की  सरकार,  नामुमकिन

सुना  तो  है  बुज़ुर्गों  से,  ख़ुदा  जल्वानुमा  होगा
मजाज़ी  तौर  पर  भी  हो  कभी  दीदार,  नामुमकिन !

                                                                                           (2015)

                                                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तहज़ीब: सभ्यता; नामुमकिन: असंभव; इक़्दार: जीवन-मूल्य; इज़्हार: अभिव्यक्ति, प्रकट करना; जहां: संसार; बेज़ार: चिंतित, व्याकुल; ज़ाया: व्यर्थ; ज़माने: दुनिया; चलन: परंपरा; बेगुनाहों: निरपराधों; मफ़ायद: लाभ; सरमाएदारों: पूंजीपतियों; बुज़ुर्गों: बड़े-बूढ़ों; जल्वानुमा: प्रकट; मजाज़ी: दैहिक, सांसारिक; दीदार: दर्शन। 

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

'सलीब तय है !'

आदाब, दोस्तों ।
आपके लिए एक ख़बर है, मेरी ग़ज़लों का पहला मज्मू'आ 'सलीब तय है' उनवान से, नई दिल्ली के दख़ल प्रकाशन ने शाया किया है। नई दिल्ली के प्रगति मैदान में चल रहे आलमी किताब मेले (World Book Fare),
14 से 23 फ़रवरी, 2015 के दौरान यह किताब मेले में हाल नं. 12-A, स्टॉल नं. 295 पर मौजूद है। जो एहबाब किताब मेले में न जा पाएं, वो जनाब अशोक कुमार पाण्डेय को ashokk34@gmail.com पर e-mail भेज कर मंगा सकते हैं।
किताब पर आपकी राय का मुंतज़िर रहूंगा।
हमेशा आपका दोस्त
सुरेश स्वप्निल

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

सरकार कब थी ?

तुम्हारे  हाथ  में  तलवार  कब  थी
अगर  थी,  तो  बदन  में  धार  कब  थी

बचाना  चाहते  थे  तुम  सफ़ीना
हमारे  सामने  मझधार  कब  थी

गवारा   हो  न  पाया  सर  झुकाना
मुहब्बत  थी,  मगर  लाचार  कब  थी

किए  थे   मुल्क  से   वादे  हज़ारों
अमल  में  शाह  के  रफ़्तार  कब  थी

ख़ुदा  जाने  किसी  ने  क्या  संवारा
हमें  इमदाद  की  दरकार  कब  थी

जिसे  मौक़ा  मिला  लूटा  उसी  ने
वतन  के  वास्ते  सरकार  कब  थी

वुज़ू  थी,  वज्ह  थी,  जामो-सुबू  थे
ख़ुदा  की  राह  में  दीवार  कब  थी  ?

                                                              (2015)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: सफ़ीना: नाव; गवारा: सह्य; लाचार: निर्विकल्प; अमल: क्रियान्वयन; रफ़्तार: गति; इमदाद: सहायता (बहुव.); दरकार: मांग, आवश्यकता; मौक़ा: अवसर; वास्ते: हेतु; वुज़ू: नमाज़ के लिए आवश्यक स्वच्छता; वज्ह: कारण; जामो-सुबू: मदिरा-पात्र और घट ।