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शनिवार, 7 मार्च 2015

नवाले-यार का मौसम !

ख़्याले-यार  का  मौसम
विसाले-यार  का  मौसम

बुरा  हो  रस्मे-हिज्रां  का
मलाले-यार  का  मौसम

हिजाबों  से  परेशां  है
जमाले-यार  का  मौसम

बड़ा  ख़ामोश  क़ातिल  है
सवाले-यार  का  मौसम

उसूलों  की  कमाई  है
नवाले-यार  का  मौसम

हुआ  फिर  तूर  पर  तारी
कमाले-यार  का  मौसम

पड़ेगा  शाह  पर  भारी
जलाले-यार  का  मौसम !

                                                 (2015)

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़्याले-यार: प्रिय का ध्यान; विसाल: मिलन; रस्मे-हिज्रां: वियोग की प्रथा; मलाल: खेद; हिजाब: मुखावरण; जमाल: यौवन; सवाले-यार: प्रिय के प्रश्न; उसूल: सिद्धांत; नवाले-यार: प्रिय की कृपा, अनुग्रह; तूर: मिस्र के शाम क्षेत्र में एक मिथकीय पर्वत, जहां हज़रत मूसा अ.स. को अल्लाह की झलक मिली थी; तारी: छा जाना; कमाल: चमत्कार; जलाल: प्रताप, तेज । 

शुक्रवार, 6 मार्च 2015

हाथ मसलता मौसम...

वक़्त-बे-वक़्त  बदलता  मौसम
धूप  की  याद  में  जलता  मौसम

कर  रहा  है  जफ़ा  ग़रीबों  से
हाथ  से  रोज़  निकलता  मौसम

है  रवानी  पसंद  आंखों  को
अश्क  बन-बन  के  पिघलता  मौसम

तिफ़्ले-नादान  की   तरह  हमसे
रूठ  जाता  है  संभलता  मौसम 

छोड़  बैठा  बहार  का  दामन
रह  गया  हाथ  मसलता  मौसम
 
लड़खड़ा  जाए  ना  कहीं  ईमां
तेग़  की  धार  प'  चलता  मौसम

रोज़  बद्कार  हुआ  जाए  है
शाह  के  रंग  में  ढलता  मौसम !

                                                              (2015)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अनीति, अन्याय; रवानी: गति; तिफ़्ले-नादान: अबोध शिशु; बहार: बसंत; दामन: आंचल; 
ईमां: आस्था; तेग़: तलवार; बद्कार: कुकर्मी । 

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

दीदार, नामुमकिन !

नई  तहज़ीब  नामुमकिन,  नए  इक़्दार  नामुमकिन
मुहब्बत  का  करें  हम  आपसे  इज़्हार,  नामुमकिन !

बहुत-से  लोग  हैं  हमको  जहां  में  फ़िक्र  करने  को
रहें  अपने  लिए  हम  रात-दिन  बेज़ार,  नामुमकिन

बुलाएं  रोज़  उनको  ख़्वाब  में,  लेकिन  न  आएंगे
हज़ारों  कोशिशें  ज़ाया,   हज़ारों  बार   नामुमकिन

निभाना  चाहते  हैं  जो,  उन्हें  मुश्किल नहीं  होती
मगर  हर  दोस्त हो  हर  बात  पर  तैयार,  नामुमकिन

ज़माने  का  चलन  है  बेगुनाहों  को  सज़ा  देना
करें  हम  शाह  से  इंसाफ़  की  दरकार,  नामुमकिन

उठाए  हैं  मफ़ायद  टूट  कर  सरमाएदारों  से
ग़रीबों  के  लिए  हो  मुल्क  की  सरकार,  नामुमकिन

सुना  तो  है  बुज़ुर्गों  से,  ख़ुदा  जल्वानुमा  होगा
मजाज़ी  तौर  पर  भी  हो  कभी  दीदार,  नामुमकिन !

                                                                                           (2015)

                                                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तहज़ीब: सभ्यता; नामुमकिन: असंभव; इक़्दार: जीवन-मूल्य; इज़्हार: अभिव्यक्ति, प्रकट करना; जहां: संसार; बेज़ार: चिंतित, व्याकुल; ज़ाया: व्यर्थ; ज़माने: दुनिया; चलन: परंपरा; बेगुनाहों: निरपराधों; मफ़ायद: लाभ; सरमाएदारों: पूंजीपतियों; बुज़ुर्गों: बड़े-बूढ़ों; जल्वानुमा: प्रकट; मजाज़ी: दैहिक, सांसारिक; दीदार: दर्शन। 

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

'सलीब तय है !'

आदाब, दोस्तों ।
आपके लिए एक ख़बर है, मेरी ग़ज़लों का पहला मज्मू'आ 'सलीब तय है' उनवान से, नई दिल्ली के दख़ल प्रकाशन ने शाया किया है। नई दिल्ली के प्रगति मैदान में चल रहे आलमी किताब मेले (World Book Fare),
14 से 23 फ़रवरी, 2015 के दौरान यह किताब मेले में हाल नं. 12-A, स्टॉल नं. 295 पर मौजूद है। जो एहबाब किताब मेले में न जा पाएं, वो जनाब अशोक कुमार पाण्डेय को ashokk34@gmail.com पर e-mail भेज कर मंगा सकते हैं।
किताब पर आपकी राय का मुंतज़िर रहूंगा।
हमेशा आपका दोस्त
सुरेश स्वप्निल

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

सरकार कब थी ?

तुम्हारे  हाथ  में  तलवार  कब  थी
अगर  थी,  तो  बदन  में  धार  कब  थी

बचाना  चाहते  थे  तुम  सफ़ीना
हमारे  सामने  मझधार  कब  थी

गवारा   हो  न  पाया  सर  झुकाना
मुहब्बत  थी,  मगर  लाचार  कब  थी

किए  थे   मुल्क  से   वादे  हज़ारों
अमल  में  शाह  के  रफ़्तार  कब  थी

ख़ुदा  जाने  किसी  ने  क्या  संवारा
हमें  इमदाद  की  दरकार  कब  थी

जिसे  मौक़ा  मिला  लूटा  उसी  ने
वतन  के  वास्ते  सरकार  कब  थी

वुज़ू  थी,  वज्ह  थी,  जामो-सुबू  थे
ख़ुदा  की  राह  में  दीवार  कब  थी  ?

                                                              (2015)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: सफ़ीना: नाव; गवारा: सह्य; लाचार: निर्विकल्प; अमल: क्रियान्वयन; रफ़्तार: गति; इमदाद: सहायता (बहुव.); दरकार: मांग, आवश्यकता; मौक़ा: अवसर; वास्ते: हेतु; वुज़ू: नमाज़ के लिए आवश्यक स्वच्छता; वज्ह: कारण; जामो-सुबू: मदिरा-पात्र और घट ।


गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

आसमां बदल डाला !

मुफ़लिसों  ने  जहां  बदल  डाला
देख  लो,  आसमां   बदल  डाला

थी  हमें  भी  उमीद  जल्वों  की
'आप'ने  तो  समां  बदल  डाला 

बढ़  गए  ज़ुल्म  जब  ग़रीबों  पर
क़ौम  ने  हुक्मरां  बदल  डाला

आहे-मज़्लूम  के  करिश्मे  ने
हर  भरम,  हर  गुमां  बदल  डाला

मंज़िलों  पर  निगाह  थी  जिनकी
वक़्त  पर  कारवां  बदल  डाला

आंधियों  का  कमाल  ही  कहिए
परचमों  का  निशां  बदल  डाला

तोड़  पाए  न  दिल  हमारा  जब
तो  ग़मों  ने  मकां  बदल  डाला !

                                                           (2015)

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुफ़लिसों: वंचितों; जहां: संसार; आसमां: आकाश, संभावनाएं; उमीद: आशा; जल्वों: दर्शनों, दृश्य-विधानों; समां: वातावरण; ज़ुल्म: अत्याचार; क़ौम: राष्ट्र, देश; हुक्मरां: शासक; आहे-मज़्लूम: अत्याचार-पीड़ितों के आर्त्तनाद; करिश्मे: चमत्कार; भरम: भ्रम; 
गुमां: अनुमान; मंज़िलों: लक्ष्यों; कारवां: यात्री-दल; परचमों: ध्वजों; निशां: प्रतीक, चिह्न; मकां: घर । 


जरायम भुला दें ?

चलो,  आज  दिल  को  ठिकाने  लगा  दें
किसी  और  बेहतर  जगह  पर  बसा  दें

नज़र  के  लिए  तरबियत  है  ज़रूरी
इसे  अब  धड़कना,  तड़पना  सिखा  दें

ज़ेह् न  कह  रहा  है,  मियां ! बख़्श  भी  दो
कहां  तक  तुम्हें  ज़िंदगी  की  दुआ  दें

जिगर  है  कि  बस,  डूबना  चाहता  है
न  आएं, मगर  कुछ  मदावा  बता  दें

न  हाथों  में  ताक़त,  न  पांवों  में  क़ुव्वत
क़लम  से  तो  हम  आसमां  को  झुका  दें

हमें  शाह  से     दुश्मनी      तो  नहीं  है
मगर  किस  तरह  से  जरायम  भुला  दें  ?

मिलेंगे  किसी  और  दिन  ज़िंदगी  से
अभी  मौत  से  एक  वादा  निभा  दें  !

                                                                         (2015)

                                                                -सुरेश   स्वप्निल 

शब्दार्थ: तरबियत: संस्कार, शिक्षा; ज़ेह् न: मस्तिष्क; बख़्श: छोड़ना; जिगर: यकृत, साहस; मदावा: उपचार; ताक़त: शक्ति, क़ुव्वत: सामर्थ्य; क़लम: लेखनी; आसमां: आकाश, ईश्वर; ज़रायम: अपराध (बहुव.) ।