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सोमवार, 5 जनवरी 2015

क़र्ज़ चुकाना था...

शायर   था,    दीवाना  था
छोड़ो  जी,  अफ़साना  था

तूफ़ानों  से  क्या  शिकवा
फ़ितरत  में  टकराना  था

दानिश्ता    दिल  दे    बैठे
आख़िर  क़र्ज़  चुकाना  था

सोचो,    तो   मजबूरी  थी
समझो,   तो  याराना  था 

ख़ूब   लड़े,        जीते-हारे
मक़सद  जी  बहलाना  था

ख़ामोशी  से       टूट  गया
शायद  ख़्वाब  सुहाना  था

रब   से      कैसी      उम्मीदें
क्या  काफ़िर  कहलाना  था  ?!

                                                              (2014)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दीवाना: उन्मत्त; अफ़साना: गल्प, कहानी; शिकवा: आपत्ति; फ़ितरत: स्वभाव; दानिश्ता: जान-बूझ कर; 
मक़सद: उद्देश्य; ख़ामोशी: शांति; रब: प्रभु; काफ़िर: नास्तिक । 


रविवार, 4 जनवरी 2015

क़सम तो न हो !

मर्ग  के   बाद    कोई  सितम    तो  न  हो
दिल  जले  तो  जले  रंजो-ग़म  तो  न  हो

क़ब्र  में    हो  सुकूं    अम्न  हो     सब्र  हो
बस  हमें   ज़िंदगी  का   वहम  तो  न  हो

दफ़्न   के  बाद  भी   दिल   धड़कता  रहे
इस  तरह  दोस्तों  का  करम  तो  न  हो

कल  सभी  जाएंगे  मुट्ठियां   खोल  कर
दांव  पर   आज  दीनो-धरम   तो  न  हो

ताजिरों  को    खुली   लूट  की     छूट  है
दुश्मने-आम  पर   यूं   रहम   तो  न  हो

मुल्क  में   मुफ़लिसी   बेबसी   सब  रहे
रिज़्क़  के  नाम  से  आंख  नम  तो  न  हो

है  ख़ुदा    गर  कहीं    तो    तग़ाफुल  करे 
मोमिनों  पर  वफ़ा  की   क़सम  तो  न  हो  !

                                                                          (2014)

                                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मर्ग: मृत्यु; सितम: अत्याचार; रंजो-ग़म: खेद और दुःख; सुकूं: संतोष; अम्न: शांति; सब्र: धैर्य; वहम: भ्रम; दफ़्न: मिट्टी में दबाना; करम: कृपा; दीनो-धरम: आस्था और धर्म; ताजिरों: व्यापारियों; दुश्मने-आम: सामान्य-जन का शत्रु; रहम: दया; मुल्क: देश; मुफ़लिसी: निर्धनता; बेबसी: विवशता; रिज़्क़: दो समय का भोजन; नम: गीली; गर: यदि; तग़ाफुल: आपत्ति, आक्षेप; मोमिनों: आस्तिकों; वफ़ा: निष्ठा ।


शनिवार, 3 जनवरी 2015

बे-हिजाबी देख ली ...

वक़्त  की    ना-कामयाबी    देख  ली
हर  कहीं  दिल  की  ख़राबी  देख  ली

तोड़  डाला    पारसाई  का    गुमां  
आईने  ने   बे-हिजाबी    देख  ली

पास    आते  ही    पशेमां    हो  गए
चश्मे-जां  की  इल्तिहाबी  देख  ली

यूं  हमें  रुस्वा  किया  मंहगाई  ने
शाह  ने  ख़ाली  रकाबी   देख  ली

याद  आती  है  किसी  की  रौशनी
तूर  की   रंगत  गुलाबी   देख  ली

रात  भर  बारिश  हुई  इख़लास  की
ख़ूने-दिल  की   इंसिबाबी   देख  ली

इक  अज़ां  पर  सामने  आ  ही  गए
आपकी  भी   इज़्तिराबी   देख  ली  !

                                                               (2015)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ना-कामयाबी: असफलता; ख़राबी: दुर्दशा; पारसाई: पवित्रता;  गुमां: अभिमान, भ्रम; बे-हिजाबी: निरावरणता; पशेमां: लज्जित; चश्मे-जां: प्रिय की दृष्टि;  इल्तिहाबी: आग उगलना, लपट; रुस्वा: अपमानित;  रकाबी: छोटी थाली; रौशनी: प्रकाश; तूर: कोहे-तूर, मिस्र मिथकीय पर्वत, जहां हज़रत मूसा अ.स. ने ईश्वर के प्रकाश की एक झलक देखी थी; इख़लास: निश्छल, निःस्वार्थ प्रेम; ख़ूने-दिल: हृदय का रक्त; इंसिबाबी: रिसाव;  इज़्तिराबी: व्याकुलता । 

गुरुवार, 1 जनवरी 2015

ये: भगवा लबादे...

शहर  के  इरादे  ग़लत  तो  नहीं  हैं  ?
कहीं  इश्क़ज़ादे  ग़लत  तो  नहीं  हैं  ?

बयाज़े-नज़र  में  बयां  कुछ  नहीं  है
ये:  सफ़हात  सादे  ग़लत  तो  नहीं  हैं  ?

यक़ीं  है  हमें  पर  तसल्ली  नहीं  है
ये:  पुरज़ोर  वादे  ग़लत तो  नहीं  हैं  ?

दिए   जा  रहे  हैं  जहां   को  नसीहत
ये:  भगवा  लबादे  ग़लत  तो  नहीं  हैं  ?

जहां   शाह  कह  दे  वहीं   जान  दे  दें
ये:  मजबूर  प्यादे  ग़लत  तो  नहीं  हैं ?

                                                                     (2015)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: इरादे: मंतव्य; इश्क़ज़ादे: प्रेम-संतान (व्यंगार्थ); बयाज़े-नज़र: दृष्टि-दैनंदिनी; बयां: वक्तव्य; सफ़हात: पृष्ठ (बहुव.); यक़ीं: विश्वास; तसल्ली: आश्वस्ति; पुरज़ोर: बलीकृत; नसीहत: उपदेश, शिक्षा; लबादे: लंबे वस्त्र; मजबूर: विवश; प्यादे: पैदल सैनिक । 

बुधवार, 31 दिसंबर 2014

मन्नतों का जवाब...


शाह   जब    बे-नक़ाब    होते हैं
देर   तक   दिल  ख़राब   होते हैं

ख़ार  हम    बाज़ वक़्त   होते हैं
यूं    अमूमन    गुलाब    होते हैं

कौन  चाहत   करे  फ़रिश्तों  की
लोग    भी    लाजवाब    होते हैं

आप   आंखें  खुली   रखा  कीजे
ख़्वाब    ख़ाना-ख़राब    होते हैं

दर्दे-दिल  मुफ़्त  में  नहीं  मिलते
मन्नतों     का    जवाब     होते हैं

ताज  सर   पर  नहीं  रहा   करते
ज़ुल्म   जब   बे-हिसाब    होते हैं

कोई  बतलाए,  कब   करें  सज्दा
होश  में   कब    जनाब   होते हैं ?

                                                               (2014)

                                                        -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: बे-नक़ाब: अनावृत्त; ख़ार: कंटक; बाज़ वक़्त: कभी-कभार, समयानुसार; अमूमन: सामान्यतः; फ़रिश्तों: देवदूतों; 
ख़ाना-ख़राब: यायावर, यहां-वहां भटकने वाले; दर्दे-दिल: मन की पीड़ा; मन्नतों: प्रार्थनाओं; ज़ुल्म: अत्याचार; सज्दा: प्रणिपात;   
जनाब: श्रीमान, महोदय, यहां ईश्वर के संदर्भ में । 

सोमवार, 29 दिसंबर 2014

गहरा कुहासा ...

यूं  ज़ुबां  फिसली  तमाशा  हो  गया
हर  हक़ीक़त  का  ख़ुलासा  हो  गया

बाम  पर  आकर  खड़े  वो  क्या  हुए
चांद  का  चेहरा  ज़रा-सा  हो  गया

ख़्वाब  में  तस्वीर  उनकी  देख  ली
चश्मे-तश्ना  को  दिलासा  हो  गया

दाम    आटे-दाल   के    इतने  बढ़े
क़र्ज़  में  नीलाम  कासा  हो  गया

शाह  मुजरिम  है  गुलों  के  क़त्ल  का
तितलियों  पर    इस्तगासा   हो  गया

उफ़ !  निज़ामे-स्याह  की  बदकारियां
अर्श  तक    गहरा  कुहासा    हो  गया

मज़हबी  तकरीर  सुन  कर  ख़ुल्द  में
दर्दे-सर    फिर    बेतहाशा    हो  गया  !

                                                              (2014)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ुबां: जिव्हा, शब्द; हक़ीक़त: यथार्थ, सच्चाई; ख़ुलासा: उद्घाटन; बाम: वातायन; चश्मे-तश्ना: तृषित नयन; दिलासा: सांत्वना, आश्वस्ति; दाम: मूल्य; क़र्ज़: ऋण; कासा: भिक्षा-पात्र; मुजरिम: अपराधी; गुलों: पुष्पों; क़त्ल: हत्या; इस्तगासा: वाद; निज़ामे-स्याह: अंधेर का राज्य; बदकारियां: कुकर्म; अर्श: आकाश; मज़हबी: धार्मिक; तकरीर: भाषण; ख़ुल्द: स्वर्ग; दर्दे-सर: सिर की पीड़ा; बेतहाशा: अत्यधिक, असीम ।

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

ये दौरे-दहशत...

न  दिल  रहेगा, न  जां  रहेगी
रहेगी      तो     दास्तां  रहेगी

है  वक़्त  अब  भी  निबाह  कर  लें
तो  ज़िंदगी  मेह्रबां  रहेगी

तुम्हारे  आमाल  तय  करेंगे
कि  रूह  आख़िर  कहां  रहेगी

थमा  सफ़र  जो  कभी  हमारा
ग़ज़ल  हमारी  रवां  रहेगी

मिरे  मकां  का  तवाफ़  करना
कि  हर  तमन्ना  जवां  रहेगी

ये  दौरे-दहशत  तवील  होगा
जो  चुप  अभी  भी  ज़ुबां  रहेगी

उड़ेगी  जब  ख़ाक  ज़र्रा-ज़र्रा
फ़िज़ा  में  अपनी   अज़ाँ  रहेगी !

                                                         (2014)

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दास्तां: आख्यान, कथा; निबाह: निर्वाह; मेह्रबां: कृपालु; आमाल: आचरण; रवां: प्रवाहमान; मकां: समाधि, क़ब्र; तवाफ़: परिक्रमा; तमन्ना: अभिलाषा; जवां: युवा; दौरे-दहशत: आतंक का समय; तवील: विस्तृत; ज़ुबां: जिव्हा; ख़ाक: चिता की भस्म; ज़र्रा-ज़र्रा: कण-कण; फ़िज़ा: वातावरण ।