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मंगलवार, 12 अगस्त 2014

... दूर तलक रौशनी नहीं !

दिल  में  रहा,  निगाह  बचा  कर  चला  गया
वो:  शख़्स  हमें   राह  भुला  कर  चला  गया

हम  बदगुमां  न  थे  वो:  मगर मेह्रबां  न  था
अच्छे  दिनों  के  ख़्वाब  दिखा  कर  चला  गया

शायद  किसी  ज़ेह्न  का  मुबारक  ख़्याल  था
मुरझाए  हुए  फूल  खिला  कर  चला  गया

ये  क्या  तिलिस्म  है  दिले-वादा-निबाह  का 
आया  ज़रूर,  ख़्वाब  में  आ  कर  चला  गया

क्या  ख़ूब  दोस्त  था  कि  जहां  मोड़  आ  गया
कमबख़्त  वहीं  हाथ  छुड़ा  कर  चला  गया 

मेरे   शहर   में     दूर  तलक      रौशनी  नहीं
एहसास  तिरा  दिल  को  बुझा  कर  चला  गया

मदहोश  हुक्मरां  को  कोई  फ़िक्र  ही  नहीं
आया   ग़ुबार,  शहर  जला  कर  चला  गया !

                                                                                  (2014)

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 
शब्दार्थ: बदगुमां: भ्रमित; मेह्रबां: कृपालु; ज़ेह्न: मस्तिष्क; मुबारक: शुभ; तिलिस्म: कूट-प्रपंच, टोना; दिले-वादा-निबाह: निर्वाह करने वाले का हृदय; एहसास: अनुभूति; मदहोश: उन्मत्त; हुक्मरां: प्रशासक;   ग़ुबार: झंझावात। 

सोमवार, 11 अगस्त 2014

परिंदों को क्यूं सज़ा ...?

दिल  बदल  जाए  तो  बता  दीजे
ये  न  हो,  ख़त  से  इत्तिला  दीजे

या  चलें  साथ  हमसफ़र  बन  कर
या    हमें     राह  से     हटा  दीजे

आज  ज़िंदा  हैं,  आज  मिल  लीजे
मौत  के   बाद   क्या  दुआ  दीजे

लोग  फ़ाक़ाकशी  से  आजिज़  हैं
भूख  की    कारगर    दवा  दीजे

है  शिकायत  अगर  फ़रिश्तों  से
तो  परिंदों  को  क्यूं  सज़ा  दीजे

आप  इस  दौर  का  करिश्मा  हैं
हम  गया  वक़्त  हैं,  भुला  दीजे

क़ब्ल  इसके  कि  ख़ून  पानी  हो
ज़ुल्म  की  सल्तनत  मिटा  दीजे !

                                                              (2014)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़त: पत्र; इत्तिला: सूचना; हमसफ़र: सहयात्री; फ़ाक़ाकशी: लंघन, भूखे रहना; आजिज़: तंग, असहाय; 
कारगर: प्रभावी; फ़रिश्तों: देवदूतों; परिंदों: पक्षियों; करिश्मा: चमत्कार; क़ब्ल: पूर्व; सल्तनत: साम्राज्य। 

शनिवार, 9 अगस्त 2014

चांद पर तोहमतें...

जो  न  आया  कभी  बुलाने  से
ख़्वाब  वो  आ  गया  बहाने  से

इश्क़  का  इम्तिहां  नहीं  देंगे
बाज़  आ  जाएं  आज़माने  से

कौन  है  जो  मिरे  रक़ीबों  को
रोकता  है  क़रीब  आने  से  ?

रूह  पर  रहमतें  बरसती  हैं
रस्मे-राहे-वफ़ा  निभाने  से

दोस्त-एहबाब  रूठ  जाएंगे
बज़्म  में  आइना  दिखाने  से

हाथ  से  बात  छूट  जाती  है
दर्द  को  मुद्द'आ  बनाने  से

नूर  किरदार  को  नहीं  मिलता
चांद  पर  तोहमतें  लगाने  से  !

                                                                (2014)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रक़ीबों: प्रिय व्यक्तियों (व्यंजना); रहमतें: ईश्वरीय कृपाएं; रस्मे-राहे-वफ़ा: निर्वाह के मार्ग की प्रथा; दोस्त-एहबाब: मित्र एवं प्रियजन; बज़्म: सभा, सार्वजनिक रूप से; मुद्द'आ: विवाद का विषय; नूर: प्रकाश; किरदार: व्यक्तित्व, चरित्र; तोहमतें: आरोप, दोष।

... ख़ुदा कहा जाए ?

दिल  दिया  जाए  या  लिया  जाए
मश्विरा  रूह  से  किया  जाए

दर्दे-दिल  है  कि  बस,  क़यामत  है
हिज्र  में  किस  तरह   सहा  जाए

और  कुछ  देर  खेलिए  दिल  से
और  कुछ  देर  जी  लिया  जाए

दिल  प'  निगरानियां  रहें   वरना
क्या  ख़बर,  कब  फ़रेब  खा  जाए

दाल-रोटी    जहां    नसीब    नहीं
किस   यक़ीं   पर  वहां  जिया  जाए

हो  चुकी  सैर   ख़ुल्द  की  काफ़ी
लौट  कर  आज  घर  चला  जाए

मोमिनों  का  जिसे  ख़्याल  न  हो
क्या  उसे  भी  ख़ुदा  कहा  जाए  ? 

                                                       (2014)

                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मश्विरा: परामर्श; रूह: आत्मा; क़यामत: प्रलय; निगरानियां: चौकसी; फ़रेब: छल; नसीब: उपलब्ध; यक़ीं: विश्वास;  ख़ुल्द: स्वर्ग; मोमिन: आस्था रखने वाले । 

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

....सलीक़ा मुस्कुराने का

    'साझा आसमान'  की  400वीं  ग़ज़ल

हमें  तूफ़ाने-ग़म  से  पार  पाना  ख़ूब  आता  है
नज़र  के  वार  से  दामन  बचाना  ख़ूब  आता  है

तजुर्बा  है  हमें  आधी  सदी  से  जो  बग़ावत  का
सितमगर  के  इरादों  को  हराना  ख़ूब  आता  है

जिन्हें  आया  नहीं  अब  तक  सलीक़ा  मुस्कुराने  का
उन्हें  बिन  बात  के  आंसू  बहाना  ख़ूब  आता  है

ख़ुदा  क़ायम  रखे  उन  दोस्तों  की  बे-हयाई  को
जिन्हें  वक़्ते-ज़रूरत  मुंह  छुपाना  ख़ूब  आता है

किसी  के  ज़ख्म  पर  मरहम  लगाना  भी  कभी  सीखो
तुम्हें  बस  दोस्तों  के  दिल  जलाना  ख़ूब  आता  है 

सियासत  ने  हमेशा  से  उन्हीं  को  अज़्म  बख़्शा  है
जिन्हें  अपने  सभी  वादे  भुलाना  ख़ूब  आता  है

फ़रेबो-मक्र  से  ऊंचाइयों  पर  बैठने  वालों
अवामे-हिंद  को  नीचे  गिराना  ख़ूब  आता  है !

                                                                                          (2014)

                                                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तूफ़ाने-ग़म: दुःख का झंझावात; दामन:हृदय; तजुर्बा: अनुभव; बग़ावत: विद्रोह; सितमगर: अत्याचारी; सलीक़ा: ढंग; 
क़ायम: शाश्वत, स्थायी; बे-हयाई: निर्लज्जता; वक़्ते-ज़रूरत: आवश्यकता के समय; ज़ख्म: घाव; अज़्म  बख़्शा: महानता/प्रमुखता दी; फ़रेबो-मक्र: छल-कपट; अवामे-हिंद: भारतीय जन । 

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

रियासत बचा लीजिए !

सल्तनत  आपकी  है  सता  लीजिए
हसरतें  आज  सारी    मिटा  लीजिए

सोचने  का  तरीक़ा  बदल  जाएगा
खोल  कर  दिल  कभी  मुस्कुरा  लीजिए

आप  ईज़ा-ए-दिल  से  परेशां  न  हों
बस  किसी  दिन  हमें  घर  बुला  लीजिए

हाथ  थक  जाएंगे  चोट  करते  हुए
ज़ुल्म  के  माहिरों  को  बुला  लीजिए

आपके  ज़ुल्म  हम  पर  बहुत  हो  चुके
अब  कहीं  और  दिल  को  लगा  लीजिए

सरकशी  घुल  गई  है  लहू  में  मिरे
आप  अपनी  हिफ़ाज़त  बढ़ा  लीजिए

चल  पड़े  हैं  मुहिम  पर सिपाहे-अमन
हो  सके  तो  रियासत  बचा  लीजिए  !

                                                                     (2014)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सल्तनत: राज्य; हसरतें: इच्छाएं; ईज़ा-ए-दिल: हृदय का कष्ट, रोग; ज़ुल्म: अत्याचार; माहिरों: प्रवीणों, विशेषज्ञों; सरकशी: विद्रोह; लहू: रक्त; हिफ़ाज़त: सुरक्षा; मुहिम: अभियान; सिपाहे-अमन: शांति-सेनाएं; रियासत: राज्य।

गुरुवार, 31 जुलाई 2014

दुआ ज़रूरी है !

दोस्ती  में  वफ़ा  ज़रूरी  है
ख़्वाहिशों  की  ख़ता  ज़रूरी  है

चोर  दिल  के  हों  या  निगाहों  के
मुजरिमों  को  सज़ा  ज़रूरी  है

मानी-ए-ज़िंदगी  समझने  को
मुफ़लिसी  का  मज़ा  ज़रूरी  है

मस्लके-इश्क़  के  मुजाहिद में
ज़ब्त  का  माद्दा  ज़रूरी  है

ये  जो  एहसास  की  तिजारत  है
इसमें  सबका  नफ़ा  ज़रूरी  है

रूह  जब  राह  से  भटक  जाए
तो  नया  फ़लसफ़ा  ज़रूरी  है

चाहिए  इक  सनम  इबादत  को
आशिक़ी  में  ख़ुदा  ज़रूरी  है

हम  चले  अर्श  की  ज़ियारत  पर
आपकी  भी  दुआ  ज़रूरी  है  !


                                                      (2014)

                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़्वाहिशों: इच्छाओं; ख़ता: अपराध, दोष; मुजरिमों: अपराधियों; मानी-ए-ज़िंदगी: जीवन का यथार्थ; मुफ़लिसी: निर्धनता, निस्पृहता; मस्लके-इश्क़: प्रेम का पंथ; मुजाहिद: धर्म-योद्धा; ज़ब्त: सहिष्णुता; माद्दा: सामर्थ्य; एहसास: भावनाएं; तिजारत: व्यापार, लेन-देन; नफ़ा: लाभ; फ़लसफ़ा: दर्शन, चिंतन; सनम: प्रिय पात्र; इबादत: पूजा; अर्श: आकाश, देवलोक; ज़ियारत: तीर्थयात्रा।