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मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

डूबने की जगह...

लोग  ख़ामोश  रह  नहीं  पाते
और  खुल कर  भी  कह  नहीं  पाते

ज़ीस्त का  हाथ  छोड़ने  वाले
मौत  का  साथ  सह  नहीं  पाते

अश्क   उठते  ज़रूर  हैं  दिल  से
चश्म  तक  आके  बह  नहीं  पाते

दोस्त  गिरते  हैं  जब  निगाहों  से
डूबने  की  जगह  नहीं  पाते

क़ीमतों  पर  अगर  बहस  होती
वो:  हमें  इस  तरह  नहीं  पाते

रास  आने  लगे  जिन्हें  झुकना
टूटने  की  वजह  नहीं  पाते

ख़्वाब  जो  रूह  में  न  बसते  हों
ज़िंदगी  की  सुबह  नहीं  पाते

शाह  दिल  से  न  हम  रहे  होते
रोज़  अपनों  से  शह  नहीं  पाते  !

                                                       (2014)

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ीस्त: जीवन; अश्क: आंसू; चश्म: आंख; रूह: आत्मा; शह: चुनौती। 

रविवार, 13 अप्रैल 2014

राज़ अफ़शा न हो...

आह  निकली  है  ग़मगुसारों  की
जान  जाए  न  बेक़रारों  की 

आए  हैं  बाग़  में  सनम  जबसे
गुमशुदा  है  अना  बहारों  की

राज़  अफ़शा  न  हो  शहंशह  का
सांस  अटकी  है  राज़दारों  की

जो  कहें  वो: ज़ुबां-ए-दिल  से  कहें
आज  क़ीमत  नहीं  इशारों  की 

फ़िक्र  करते  नहीं  सियासतदां 
मुल्क  में  पड़  रही  दरारों  की

तख़्त  पर  एक  बार  बैठे,  तो
कौन  सुनता  है  ख़ाकसारों  की

मुल्क  हो  आग  के  हवाले  जब
बात  क्या  कीजिए  शरारों  की  !

                                                     (2014)

                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ग़मगुसार: दूसरों का दु:ख दूर करने वाले; बेक़रार: व्यथित, व्याकुल; अना: घमंड, अहंकार; राज़: रहस्य; अफ़शा: प्रकट; राज़दार: रहस्य जानने वाले; ज़ुबां-ए-दिल: हृदय से; सियासतदां: राजनैतिक लोग; ख़ाकसार: दलित/वंचित; शरारे: चिंगारियां। 


शनिवार, 12 अप्रैल 2014

हुनर भूल जाएंगे !

हम  इल्मे-ग़ज़लगोई  अगर  भूल  जाएंगे
समझो  कि  ज़िंदगी  का  हुनर  भूल  जाएंगे

साहब  हैं  आप,  आपकी  बातों  का  क्या  यक़ीं
कहते  हैं  जो  इधर  वो:  उधर  भूल  जाएंगे

रखते  हैं  यार  याद  ज़माने  की  हर  गली
लेकिन  हमारे  घर  की  डगर  भूल  जाएंगे

साक़ी  से   कभी  आंख  मिला  कर  तो  देखिए
दुनिया  की  शराबों  का  असर  भूल  जाएंगे

क़ातिल  को  ये:  गुमां  है,  नए  रंग-रूप  से
सब  उसके  गुनाहों  की  ख़बर  भूल  जाएंगे

बेशक़   ख़ुदा  हों  आप  मगर  हम  भी  कम  नहीं
हद  की  तो  हम  आदाबे-नज़र  भूल  जाएंगे

देखा  कहां  जनाब  शबे-तार  का  जमाल
पर्दा  उठा  तो  हुस्ने-क़मर  भूल  जाएंगे

कब  तक  बना  रहेगा  शबे-वस्ल  का  ग़ुरूर
हमसे  नज़र  मिली  तो  बह्र  भूल  जाएंगे  !

                                                                    (2014)

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इल्मे-ग़ज़लगोई: ग़ज़ल कहने की कला; हुनर: कौशल; साक़ी: मदिरा-पात्र देने वाला; गुमां:भ्रम; गुनाहों: अपराधों; हद: अति; आदाबे-नज़र: दृष्टि का सम्मान; शबे-तार: अमावस्या, अंधेरी रात; जमाल: यौवन; हुस्ने-क़मर: चंद्रमा का सौंदर्य; शबे-वस्ल: मिलन-निशा; ग़ुरूर: गर्व,अहंकार; बह्र: छंद, मानसिक संतुलन।

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

सरे-आम सज़ा दे देना

फिर  किसी  रोज़  दवा  दे  देना
आज  ज़ख़्मों  को  हवा  दे  देना

हस्बे-मामूल  जफ़ा  करते  हो
हिज्र  के  रोज़  वफ़ा  दे  देना

हम  बुरे  वक़्त  को  निभा  लेंगे
आप  बस  एक  दुआ  दे  देना

हक़्क़े-माशूक़  आप  ही  जानें
ज़ीस्त  देना  कि  क़ज़ा  दे  देना

क्या  सियासत  नहीं  फ़रिश्तों  की
हर  सितमगर  को  रज़ा  दे  देना

रहबरे-क़ौम  का  तरीक़ा  है
होश  के  वक़्त  नशा  दे  देना

बात  मक़्ते  तलक  पहुंच  जाए
फिर  सरे-आम  सज़ा  दे  देना  !

                                                    (2014)

                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हस्बे-मामूल: दैनंदिन का व्यवहार, नियम से; जफ़ा: अनीति, अत्याचार; हिज्र: विछोह; वफ़ा: आस्था; हक़्क़े-माशूक़: प्रिय का अधिकार; ज़ीस्त: जीवन; क़ज़ा: मृत्यु; फ़रिश्तों: देवताओं; सितमगर: अत्याचारी; रज़ा: अनुशंसा, अनुमति, स्वीकृति; 
रहबरे-क़ौम: राष्ट्र-नायक;  मक़्ता: ग़ज़ल का अंतिम शे'र, संपूर्णता।


मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

गुनगुनाए वीराने ...!

इस  क़दर  रास  आए  वीराने
महफ़िलों  में  सजाए  वीराने

दौलते-दिल  लुटाई  रातों  में
और  दिन  में  कमाए  वीराने

बेरुख़ी  की  दुहाई  देते  थे
जब  मिले  साथ  लाए  वीराने

बेख़ुदी  में  गले  लगा  बैठे
उन्स  ने  यूं  मिटाए  वीराने

वस्ल  की  शब  गुज़र  गई  यूं  ही
सुब्ह  तक  गुनगुनाए  वीराने 

दिल  जतन  से  छिपाए  रखता  था
चश्मे-तर  ने  लुटाए  वीराने

नफ़रतों  ने  शहर  मिटा  डाले
दुश्मनों  ने  बसाए  वीराने

वो:  न  समझे  हमें  न हम  उनको
ख़ुल्द  में  याद   आए   वीराने  !

                                                             (2014)

                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दौलते-दिल: मन की समृद्धि; बेरुख़ी: उपेक्षा; बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति; उन्स: अनुराग; 
वस्ल की शब: मिलन-निशा; चश्मे-तर: भीगी आंखें; ख़ुल्द: स्वर्ग ।



शनिवार, 5 अप्रैल 2014

अच्छी ख़बर ...!

लोग  अच्छी  ख़बर  से  डरते  हैं
क़िस्मतों  के  क़हर  से  डरते हैं

दुश्मनों  से  नहीं  हमें  पर्दा :
दोस्तों  की  नज़र  से  डरते हैं

आप  छू  दें  तो  सांप  मर  जाए
आप  किसके  ज़हर  से  डरते  हैं

एक-दो  तो  ज़रूर   हैवां  हैं 
आप  सारे  शहर  से  डरते  हैं

नाम  आतिश-फ़िशां  बताते  हैं
और  दाग़े-शरर  से  डरते  हैं

लोग   तो  बद्दुआ  से  डरते  हैं
हम  दुआ-ए-असर  से  डरते  हैं

नूर  के  ख़्वाब  देखने  वाले
दिल  ही  दिल  में  सहर  से  डरते  हैं !
 
                                                               (2014) 

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़हर: प्रकोप;  हैवां; हैवान, पशु-स्वभाव वाले; आतिश-फ़िशां: ज्वालामुखी; दाग़े-शरर: चिंगारी का दाग़; 
बद्दुआ: श्राप; दुआ-ए-असर: प्रभावी शुभकामना; सहर: उष:काल । 

सोमवार, 17 मार्च 2014

रंगे-ईमान काम आता है

अजनबी  ही  रहे  ज़माने  में
शर्म  आती  है  मुंह  दिखाने  में

दिल  लिया  है  तो  ये:  हिचक  कैसी
नाम  अपना  हमें  बताने  में

आप  शायद  हमें  मना  लेते
पर  कमी  रह  गई  बहाने  में

वो:  ही  जानें  जो  इश्क़  करते  हैं
क्या  मज़ा  है  फ़रेब  खाने  में

आप  से  क्या  मुक़ाबिला  अपना
आप  माहिर  हैं  दिल  चुराने  में

क्या  बताएं  किसे  बताएं  अब
दर्द  होता  है  मुस्कुराने  में

कट  गई  उम्र  इम्तिहां  देते
मुब्तिला  हैं  वो:  आज़माने  में

गर  मुखौटा  कभी  हटे  उनका
आग  लग  जाएगी  ज़माने  में

रंगे-ईमान  काम  आता  है
दूरियां  रूह  की  मिटाने  में  !

                                                ( 2014 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: अजनबी: अपरिचित; फ़रेब: छल; माहिर: प्रवीण; मुब्तिला: व्यस्त; रंगे-ईमान: निष्ठा की चमक।