लोग ख़ामोश रह नहीं पाते
और खुल कर भी कह नहीं पाते
ज़ीस्त का हाथ छोड़ने वाले
मौत का साथ सह नहीं पाते
अश्क उठते ज़रूर हैं दिल से
चश्म तक आके बह नहीं पाते
दोस्त गिरते हैं जब निगाहों से
डूबने की जगह नहीं पाते
क़ीमतों पर अगर बहस होती
वो: हमें इस तरह नहीं पाते
रास आने लगे जिन्हें झुकना
टूटने की वजह नहीं पाते
ख़्वाब जो रूह में न बसते हों
ज़िंदगी की सुबह नहीं पाते
शाह दिल से न हम रहे होते
रोज़ अपनों से शह नहीं पाते !
(2014)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ज़ीस्त: जीवन; अश्क: आंसू; चश्म: आंख; रूह: आत्मा; शह: चुनौती।
और खुल कर भी कह नहीं पाते
ज़ीस्त का हाथ छोड़ने वाले
मौत का साथ सह नहीं पाते
अश्क उठते ज़रूर हैं दिल से
चश्म तक आके बह नहीं पाते
दोस्त गिरते हैं जब निगाहों से
डूबने की जगह नहीं पाते
क़ीमतों पर अगर बहस होती
वो: हमें इस तरह नहीं पाते
रास आने लगे जिन्हें झुकना
टूटने की वजह नहीं पाते
ख़्वाब जो रूह में न बसते हों
ज़िंदगी की सुबह नहीं पाते
शाह दिल से न हम रहे होते
रोज़ अपनों से शह नहीं पाते !
(2014)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ज़ीस्त: जीवन; अश्क: आंसू; चश्म: आंख; रूह: आत्मा; शह: चुनौती।
ख़्वाब जो रूह में न बसते हों
जवाब देंहटाएंज़िंदगी की सुबह नहीं पाते ...........su true.Nice poem
सुंदर गजल .......बेहतरीन !!
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