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शनिवार, 18 जनवरी 2014

महफ़िल की ख़लाओं से

हर    ज़ख़्म    सुलगता    है    यारों   की    दुआओं  से
पर    बाज़    नहीं    आते     कमबख़्त      जफ़ाओं  से

ईमां-ए-दुश्मनां        ने        उम्मीद      बचा     रक्खी
बेज़ार    हुए    जब-जब     अपनों     की   अनाऑ  से

क्यूं    शम्'अ    बुझाती    हैं  मुफ़लिस  के   घरौंदे  की
ये:      राज़      कोई      पूछे      गुस्ताख़     हवाओं  से

हम    दूर   आ    चुके    हैं    दुनिया    के    दायरों   से
आवाज़   न  अब    दीजे   महफ़िल   की   ख़लाओं  से

रहने   दे   ऐ   मुअज़्ज़िन   वो:   वक़्त    अलहदा   था
होता    था    उफ़क़    रौशन    जब   तेरी   सदाओं  से

गिन-गिन    के    रोटियां   हैं,   राशन    है   शराबों  पे
घर  क्या  बुरा  था  हमको   जन्नत  की    फ़ज़ाओं  से

मस्जिद  का  मुंह  न  देखा   मुश्किल  पड़ी  जो  हमपे
क्या    ख़ाक     दुआ    मांगें    पत्थर   के   ख़ुदाऑ  से  !

                                                                                ( 2014 )

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ज़ख़्म: घाव;  कमबख़्त: अभागे; जफ़ाओं: अन्यायों, अत्याचारों; बेज़ार: दु:खी; अनाओं: अहंकारों; मुफ़लिस: विपन्न, निर्धन; गुस्ताख़: उद्दण्ड;  महफ़िल की ख़लाओं: सभा के एकांतों; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला;  अलहदा: भिन्न, अलग; उफ़क़: क्षितिज; 
रौशन: प्रकाशमान;  फ़ज़ाओं: शोभाओं, रंगीनियों। 

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

... हिजाबे-ख़ुदा !

ज़िद  नहीं  है  मगर  आज  दीदार  हो
तूर  से  फिर  मरासिम  का  इज़हार  हो

इश्क़  हो  या  महज़  आपकी  दिल्लगी
ये:  सियासत  मगर  आख़िरी  बार  हो

सात  तालों  में  दिल  की  हिफ़ाज़त  करें
आपको  ज़िंदगी  से  अगर  प्यार  हो

ज़ख़्म  हों  दर्द  हो  अश्क  हों  आह  हो
दुश्मनों  को  न  उल्फ़त  का  आज़ार  हो

लड़खड़ाते  रहें  हम  क़दम-दर-क़दम
वक़्त  की  तेज़  इतनी  न  रफ़्तार  हो

दीद  को  आपकी  ज़िंदगी  छोड़  दें
कोई  हम-सा  जहां  में  परस्तार  हो

ज़रिय:-ए-दुश्मनी  है  हिजाबे-ख़ुदा
क्यूं  इबादत  में  पर्दों  की  दीवार  हो ?!

                                                    ( 2014 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: दीदार: दर्शन; तूर: अरब में एक पर्वत, जिस पर चढ़ कर हज़रत मूसा ( अ.स.) ख़ुदा से वार्त्तालाप करते थे; मरासिम: सम्बंध; इज़हार: प्रदर्शन; उल्फ़त  का  आज़ार: प्रेम-रोग; दीद: 'दीदार' का लघु-रूप, दर्शन; परस्तार: पूजा करने वाला; ज़रिय:-ए-दुश्मनी: शत्रुता का उपकरण;  हिजाबे-ख़ुदा: ख़ुदा का पर्दा।


बुधवार, 15 जनवरी 2014

... ख़ंजर नहीं मिले !

इक  हम  हैं,  हमें  दोस्तों  के  घर  नहीं  मिले
इक  वो:  हैं,  जिन्हें  वक़्त  पे  ख़ंजर  नहीं  मिले

क्यूं  कर  न  मुक़दमा-ए-हत्क  हो  हुज़ूर  पर
दावत  की  बात  कह  के  वक़्त  पर  नहीं  मिले

शाहों  से  मुलाक़ात  हुई  जब  कभी  कहीं
दुनिया  गवाह,  हम  कभी  झुक  कर  नहीं  मिले

नाबीना    आईनों   के     ख़रीदार    हो  गए
बीनाईयों  को   हुस्न  के  मंज़र  नहीं  मिले 

जम्हूरे-हिंद  हो  के:  निज़ामे-अमेरिका
इंसान  ख़ासो-आम  बराबर  नहीं  मिले

जन्नत  से  लौट  आए  मियां  शैख़  तश्न: लब
हूरों  के  यां  शराब-ओ-साग़र  नहीं  मिले

इल्ज़ामे-कुफ़्र  रिंद  पे  आयद  न  हो  सका
का'बे  में  उसे  लोग  मुनव्वर  नहीं  मिले !

                                                                     ( 2014 )

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ंजर: वध के काम आने वाली क्षुरी; मुक़दमा-ए-हत्क : मानहानि का वाद; नाबीना: दृष्टि-हीन; बीनाई: सौन्दर्य समझ सकने वाली दृष्टि; हुस्न  के  मंज़र : सौन्दर्य के दृश्य;  जम्हूरे-हिंद: भारत गणराज्य;  निज़ामे-अमेरिका: अमेरिका का राज्य; ख़ासो-आम: विशिष्ट और साधारण;  शैख़: धर्मोपदेशक; तश्न: लब: प्यासे होंठ; हूरों: अप्सराओं; यां: यहां, स्थान में, घर में; इल्ज़ामे-कुफ़्र: नास्तिकता का आरोप; 
रिंद: पियक्कड़; आयद: लागू; मुनव्वर: आत्मिक रूप से प्रकाशित 
का'बा: सऊदी अरब की राजधानी मक्क: शरीफ़ में एक पवित्र स्थान जिसे मुस्लिम-परंपरा में ईश्वर का घर एवं पृथ्वी का केन्द्र माना जाताहै। 

* अंतिम पंक्ति के लिए, युवा शायर भाई रामनाथ शोधार्थी का आभार। 

सोमवार, 13 जनवरी 2014

सुकूं उन्हें न हमें ...

मेरे  नसीब,  मेरी  मुफ़लिसी  की  बातों  से
निकल  गए  हैं  शबो-सहर  मेरे  हाथों  से

हमारे  हैं  तो  हर  सफ़र  में  साथ-साथ  चलें
सुकूं  उन्हें  न  हमें  चंद  मुलाक़ातों  से

मेरे  मकां  पे  कोई  रोज़  शम्'अ  रखता  है
के:  हम  न  सोए  न  जागे  हज़ार  रातों  से

कोई  बताए  कि  हम  किस  पे  ऐतबार  करें
निकलते  आ  रहे  हैं  शैख़  ख़राबातों  से

हुआ  करें  वो:  शहंशाह  बला  से  अपनी
ख़ुदा  बचाए  मेरे  रिज़्क़  को  ख़ैरातों  से

ख़ुदा  की  ज़ात  पे  हम  क्यूं  न  अक़ीदा  रक्खें
पिघल  गए  हैं  कई  कोह  मुनाजातों  से !

                                                                  ( 2014 )

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नसीब: भाग्य, मुफ़लिसी: विपन्नता; रात्रि-प्रात:; सुकूं: संतोष; मकां: समाधि, क़ब्र, घर; ऐतबार: विश्वास; शैख़: धर्मोपदेशक; ख़राबातों: मदिरालयों; बला  से: दुर्भाग्य से; रिज़्क़: दैनिक भोजन; ख़ैरातों: दान-दक्षिणाओं; ज़ात: अस्तित्व; अक़ीदा: आस्था; कोह: पर्वत; मुनाजातों: प्रार्थनाओं। 

रविवार, 12 जनवरी 2014

जोशे-मौजे-चनाब...

ख़्वाब    ताज़ा  गुलाब  होते  हैं
ख़्वाहिशों  का  जवाब  होते  हैं

वो:  अगर  बेख़ुदी  में  मिलते  हैं
शायरी  की    किताब  होते  हैं

दिल  में  अरमान  जब  मचलते  हैं
जोशे - मौजे - चनाब  होते  हैं

बर्क़  जैसे  दिलों  पे  गिरती  है
आप  जब   बे-हिजाब  होते  हैं

रोज़  हम  राह  से  गुज़रते  हैं
रोज़    ईमां    ख़राब   होते  हैं

ख़्वाब  में  मिल  गए, ग़नीमत है 
घर  में  कब-कब  जनाब  होते  हैं ?

अश्के-तन्हाई  देख  लें  गिन  कर
हसरतों  का  हिसाब  होते  हैं !

                                              ( 2014 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़्वाहिशों: इच्छाओं; बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति; बर्क़: तड़ित, आकाशीय विद्युत; बे-हिजाब: निरावरण; 
जोशे-मौजे-चनाब: चनाब, पंजाब में बहने वाली एक नदी; की लहरों का उत्साह; अश्के-तन्हाई: एकांत के अश्रु । 

शनिवार, 11 जनवरी 2014

...आसार नहीं हैं !

यूं  इश्क़  के  मराहिल  दुश्वार  नहीं  हैं 
बस  हम  ही  ख़ुद  से  इतने  बेज़ार  नहीं  हैं 

देखो,  हमारे  तन पर  क़ीमत नहीं  लिखी 
इंसां  हैं  हम  मता-ए-बाज़ार  नहीं  हैं 

बेचें  कि  मुफ़्त  दें  दिल  मसला  उन्हीं  का  है 
हम  रास्ते  में  उनके   दीवार  नहीं  हैं 

शायद  शहर  का  मौसम  हो  ख़ुशनुमां  कभी 
फ़िलहाल  इस  ख़बर  के  आसार  नहीं  हैं 

ले  जाएं  लूट  कर  हम  दिल  आपका  कहीं 
शाइर  हैं  कोई  तुर्क-ओ-तातार  नहीं  हैं 

नंगे-जम्हूर  सामने  लाता  नहीं  कोई 
अख़बार  सरकशी  को  तैयार  नहीं  हैं 

तेरी  नवाज़िशों  की  चाहत  नहीं  हमें 
मुफ़लिस  ज़रूर  हैं  पर  लाचार  नहीं  हैं ! 

                                                        ( 2014 ) 

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इश्क़: अनुराग; मराहिल: पड़ाव; दुश्वार: कठिन; बेज़ार: अप्रसन्न;  मता-ए-बाज़ार: बाज़ार का सामान; मसला: समस्या; ख़ुशनुमां: प्रसन्नता-दायक, सुखद; आसार: लक्षण; तुर्क-ओ-तातार: तुर्की और वहीं के एक प्रदेश, तातार के निवासी जो मध्य-युग में किसी भी देश पर हमला करके लूट-पाट करके भाग जाते थे; नंगे-जम्हूर: लोकतंत्र की निर्लज्जता; सरकशी: विद्रोह, अवज्ञा;  नवाज़िशों: कृपाओं; 
मुफ़लिस: निर्धन, विपन्न। 
                                             


शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

इश्क़ का हौसला...!

दोस्त  अक्सर  वफ़ा  नहीं  करते
दोस्तों  को   ख़फ़ा  नहीं  करते

आप  जीते  रहें  तकल्लुफ़  में
फ़ासले  यूं  मिटा  नहीं  करते

इब्ने-इंसां  कमाल  की  शै  हैं
सिर्फ़  मरके  जफ़ा  नहीं  करते

क्यूं  शिकायत  न  हो  हमें  कहिए
आप  वादे  वफ़ा  नहीं  करते

दूर  रहिए  हसीन  चेहरों  से
ये:  इरादे  सफ़ा  नहीं  करते

इश्क़-यारी,  मुहब्बतो-उल्फ़त
टोटके  हैं,  शिफ़ा  नहीं  करते

हैं  वही  बदनसीब  जो  खुल  कर
इश्क़  का  हौसला  नहीं  करते 

क्या  कहें  हम  कि  आप  महफ़िल  से
दुश्मनों  को  दफ़ा  नहीं  करते

चल  पड़े  हैं  अवाम  के  दस्ते
कारवां  ये:  रुका  नहीं  करते  !

                                                ( 2014 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  वफ़ा: निर्वाह;  ख़फ़ा: रुष्ट; तकल्लुफ़: औपचारिकता; फ़ासले: अंतराल; इब्ने-इंसां: मनुष्य-संतान;  शै: जीव; 
जफ़ा: द्वेष, बे-ईमानी; वफ़ा: पूर्ण; हसीन: सुंदर; सफ़ा: सु-स्पष्ट; इश्क़-यारी: आसक्ति और मित्रता; मुहब्बतो-उल्फ़त: प्रेम और स्नेह; 
शिफ़ा: आरोग्य; महफ़िल: गोष्ठी, सभा; दफ़ा: दूर; अवाम: आम जन; दस्ते: सैन्य-दल; कारवां: यात्री-दल।