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रविवार, 5 जनवरी 2014

...उठा लें दिल को !

आप  चाहें  तो  चुरा  लें  दिल  को
राज़दां  ख़ास  बना  लें   दिल  को

उफ़!  ये:  गुस्ताख़ियां  हसीनों  की
जां  बचाएं  के:  संभालें  दिल  को

ये:  तरीक़ा  अगर  मुनासिब  हो
आप  दिन-रात  उछालें  दिल  को

इश्क़  इतना  बुरा  नहीं  शायद
लोग  इक  बार  मना  लें  दिल  को

है  शहर  में  अदब  अभी  बाक़ी
राह  में  यूं  न  निकालें  दिल  को

है  यही  फ़र्ज़  भी,  शराफ़त  भी
बदगुमानी  से  बचा  लें  दिल  को

छोड़  आए  हैं  आपके  दर  पर
काम  आए  तो  उठा  लें  दिल  को !

                                                ( 2014 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: राज़दां: रहस्य जानने वाला; गुस्ताख़ियां: धृष्टताएं; मुनासिब: उचित; अदब: शिष्टाचार; बदगुमानी: कु-धारणाएं; दर: द्वार ।

हवाओं से उम्मीद !

हमको  अब  भी   वफ़ाओं  से  उम्मीद  है
दोस्तों       की      दुआओं  से  उम्मीद  है

वो:  कभी  हम  पे  शायद  मेहरबां  न  हों
उनकी  क़ातिल   अदाओं  से   उम्मीद  है

साथ   दे    या   न  दे    ये:   ज़माना  हमें
आसमानी      सदाओं    से     उम्मीद  है

महफ़िलें  हैं   उन्हीं  की   जो  ज़रयाब  हैं
मुफ़लिसों   को  ख़लाओं  से   उम्मीद  है

आज   मौसम   हमारे    मुआफ़िक़  नहीं
कल   बदलती   हवाओं   से    उम्मीद  है

एक   दिन     राह   पर    लाएंगे  ज़िंदगी
मुल्क   को    रहनुमाओं   से   उम्मीद  है

अर्श   तो       हस्बे-मामूल      नाराज़  है
क्या  कहें   किन  ख़ुदाओं  से  उम्मीद  है  !

                                                       ( 2014 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ज़रयाब: समॄद्ध; मुफ़लिसों: निर्धनों; ख़लाओं: निर्जन स्थानों; मुआफ़िक़: समुचित, योग्य; 
रहनुमाओं: नेताओं; अर्श: आकाश, ईश्वर।

शनिवार, 4 जनवरी 2014

...तो बड़ी बात है !

दिल  किसी  से  मिले  तो  बड़ी  बात  है
आशना  बन  सके  तो  बड़ी  बात  है

इश्क़  बे-ताब  हो  ये:  ज़रूरी  नहीं
रूह  में  आ  बसे  तो  बड़ी  बात  है

हुस्न  की  सादगी  देख  कर  आसमां
मरहबा  कह  उठे  तो  बड़ी  बात  है

आंख  से  अश्क  गिरना  तो  मामूल  है
क़तर:-ए-ख़ूं  गिरे  तो  बड़ी  बात  है

सुनते-सुनते  तेरे  दर्द  की  दास्तां
आसमां  रो  पड़े  तो  बड़ी  बात  है

कोह  पर  आ  गए  हैं  अज़ां  के  लिए
मोजज़ा  हो  रहे  तो  बड़ी  बात  है

तीरगी  में  तुझे  याद  करते  हुए
शम्'ए-दिल  जल  उठे  तो  बड़ी  बात  है !

                                                          ( 2014 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आशना: साथी; बे-ताब: विकल; मरहबा: धन्य, साधु-साधु;  अश्क: अश्रु; मामूल: सामान्य बात, सहजता; 
क़तर:-ए-ख़ूं: रक्त की बूंद; दास्तां: आख्यान, कथा; आसमां: आकाश, ईश्वर; कोह: पर्वत; अज़ां: ईश्वर के नाम की पुकार; 
मोजज़ा: चमत्कार; तीरगी: अंधकार; शम्'ए-दिल: मन का दीप। 

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

...दुआएं कम हैं !

जो  इब्तिदा  में  ही  चश्म  नम  हैं
तो   आइंद:   भी   कई   सितम  हैं

सनम  अगर  हैं    हमारे  दिल  में
तो उनकी नज़्रों में हम ही  हम  हैं

ख़फ़ा  अगर  हों  तो  जान  ले  लें
हुज़ूर    यूं   तो    बहुत   नरम  हैं

इधर  हैं    तूफ़ां    उधर  तजल्ली
मेरे   मकां   पे    बड़े     करम  हैं

ज़ुबां   खुले   तो  सलीब  तय  है
मगर  वफ़ा  पे   दुआएं  कम  हैं

हमीं   ख़ुदा  को   सफ़ाई  क्यूं  दें
हमें  भी   उनपे   कई   वहम  हैं

यहां  का  सज्दा  वहां  न  कीजो
ख़ुदा,  ख़ुदा  हैं;  सनम,  सनम  हैं !

                                                    ( 2014 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इब्तिदा: आरंभ; चश्म नम: आंखें भीगी; आइंद:: आगे चल कर; सितम: अत्याचार; सनम: प्रिय; नज़्रों: दृष्टि; ख़फ़ा: रुष्ट; हुज़ूर: श्रीमान, मालिक, ईश्वर; तूफ़ां: झंझावात; तजल्ली: आध्यात्म का प्रकाश; मकां: आवास, समाधि, क़ब्र; ज़ुबां: जिव्हा; सलीब: सूली; 
वफ़ा: निर्वाह, आस्था; दुआएं: शुभकामनाएं; वहम: संदेह, आशंकाएं; सज्दा: भूमि पर शीश नवाना।


यौमे-शहादत: कॉमरेड सफ़दर हाश्मी

वह  1  जनवरी, 1989  की सुबह थी…
कॉमरेड सफ़दर 'जन नाट्य मंच' के साथियों के साथ ग़ाज़ियाबाद म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के  चुनाव में CPI (M) के उम्मीदवार की हिमायत में नाटक 'हल्ला बोल' खेल रहे थे। उसी वक़्त, कॉँग्रेस के उम्मीदवार का काफ़िला वहां से गुज़रा। इन ग़ुंडों ने नाटक रोकने के लिए कहा, जिस पर कॉमरेड सफ़दर ने उन लोगों से दूसरे रास्ते से जाने के लिए या कुछ देर इंतज़ार करने को कहा…
उन ख़ूंख़्वार दरिन्दों ने लाठी, लोहे की रॉड्स वग़ैरह से नाटक खेल रहे साथियों पर हमला कर दिया। CITU के एक कारकुन की वहीं शहादत हो गई जबकि हमले में बुरी तरह घायल कॉमरेड सफ़दर की शहादत अगले रोज़, यानि आज से ठीक 25 बरस पहले; 2  जनवरी 1989 को हुई …
शहादत के वक़्त कॉमरेड सफ़दर की उम्र सिर्फ़ 34 बरस थी  …
आज हम अपने बिछड़े साथी कॉमरेड सफ़दर हाश्मी को याद करते हुए, कॉमरेड फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' मरहूम का लिखा हुआ तराना ख़ेराजे-अक़ीदत के तौर पर पेश कर रहे हैं:

दरबारे-वतन  में   जब  इक  दिन  सब  जाने  वाले  जाएंगे
कुछ  अपनी  सज़ा  को  पहुंचेंगे  कुछ  अपनी  जज़ा  ले  जाएंगे

ऐ  ख़ाक नशीनों  उठ  बैठो  वह  वक़्त  क़रीब  आ  पहुंचा  है
जब  तख़्त  गिराए  जाएंगे  जब  ताज  उछाले  जाएंगे

अब  टूट  गिरेंगी  ज़ंजीरें  अब  ज़िंदानों  की  ख़ैर  नहीं
जो  दरिया  झूम  के  उट्ठे  हैं  तिनकों  से  न  टाले  जाएंगे

कटते  भी  चलो  बढ़ते  भी  चलो  बाज़ू  भी  बहुत  हैं  सर  भी  बहुत
चलते  भी  चलो  के:  अब  डेरे  मंज़िल  ही  पे  डाले  जाएंगे

ऐ  ज़ुल्म  के  मारो  लब  खोलो  चुप  रहने  वालो  चुप  कब  तक
कुछ  हश्र  तो  उनसे  उट्ठेगा  कुछ  दूर  तो  ना'ले  जाएंगे  !

                                                                                             -फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'

शब्दार्थ: जज़ा: पुरस्कार; ख़ाक नशीनों: दीन-हीनों; ज़िंदानों: बंदी-गृहों;  दरिया: नदी;   ज़ुल्म: अन्याय; हश्र: झंझावात; ना'ले: पुकार, शोर। 



सोमवार, 30 दिसंबर 2013

...साहिल की तरह !

देखो  न  हमें  क़ातिल  की  तरह
डर  जाएं  क्या  बुज़दिल  की  तरह

वो:  ख़्वाब  में  अक्सर  आते  हैं
ढूँढा  था  जिन्हें  मंज़िल  की  तरह

दिल  की  क़ीमत  ईमान  है  क्या
बहको  न  किसी  ग़ाफ़िल  की  तरह

तूफ़ान       हज़ारों       हार  गए
मौजूद  हैं  हम  साहिल  की  तरह

क्या   ख़ाक  मुहब्बत   की  तुमने
तड़पा  न  किए  बिस्मिल  की  तरह

कैसे   जाने    दें      तुम  ही  कहो
आए  हो  दुआ-ए-दिल  की  तरह

रखते  हैं  ख़ुदी  कुछ  तो   हम  भी
तोड़ो  न   दिल-ए-साइल  की  तरह !

                                                       ( 2013 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़ातिल: वधिक; बुज़दिल: कायर; ईमान: आस्था; ग़ाफ़िल: भ्रमित; साहिल: किनारा; बिस्मिल: घायल;  
दुआ-ए-दिल: हृदय की प्रार्थना; ख़ुदी: स्वाभिमान; दिल-ए-साइल: याचक का हृदय।


रविवार, 29 दिसंबर 2013

न मुस्कुराओ गुनाह करके !

किसी  के  दिल  को  तबाह  करके
न     मुस्कुराओ      गुनाह  करके

चलो  यह  माना   जफ़ा  नहीं  की
कहो      ख़ुदा  को    गवाह  करके

हमें   फ़लक  पर   बिठा  दिया  है
सहर    ने     ज़ेरे-पनाह     करके

न  क़ाफ़िया   न  बहर  मुकम्मल
मिलेगा   क्या    वाह  वाह  करके

किसी  पे  मिटना   ख़ता  नहीं  है
चलो  न    नीची   निगाह   करके

किया  है   दुश्मन  को  आश्ना  गर
दिखाइए  अब     निबाह     करके

ख़ुदा  को  क्या  मुंह  दिखाएंगे  वो:
जिए  जो  रू:  को  सियाह  करके  !

                                              ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जफ़ा: बेईमानी; फ़लक: आकाश; सहर: उषः काल; ज़ेरे-पनाह: शरणागत; क़ाफ़िया : शे'र की दूसरी पंक्ति में  अंतिम से पूर्व का शब्द; बहर: छंद; मुकम्मल: परिपूर्ण; ख़ता : दोष, अपराध; आश्ना: मित्र,साथी; गर: यदि; रू:: आत्मा; सियाह: काला।