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मंगलवार, 19 नवंबर 2013

तोड़ दें सब तिलिस्म !

शोख़  जज़्बात    पर  यक़ीन  नहीं
आपकी   बात     पर  यक़ीन  नहीं

यूं  यक़ीं  है    वफ़ाओं  पर  उनकी
बाज़  अवक़ात   पर  यक़ीन  नहीं

ख़्वाब  आएं  न  आएं  अब  हमको
रात  की  ज़ात   पर    यक़ीन  नहीं

तोड़  दें  सब  तिलिस्म  हम  उनके
गो    ख़ुराफ़ात    पर   यक़ीन  नहीं

पैदलों   ने     क़िला    तबाह  किया
शाह  को    मात  पर   यक़ीन  नहीं

था     भरोसा     कभी    ख़ुदाई  पर
आज    हालात  पर    यक़ीन  नहीं

ख़ाक    कर  दें     ज़मीर  को   मेरे
उन   इनायात  पर   यक़ीन  नहीं !

                                           ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शोख़  जज़्बात: चंचल भावनाएं;   वफ़ाओं;आस्थाओं; बाज़  अवक़ात: कुछ अवसर/समय; तिलिस्म: मायाजाल; गो: यद्यपि; ख़ुराफ़ात: उद्दंडता, बदमाशी; ख़ुदाई: ईश्वरीय कृति; ख़ाक: राख़;  ज़मीर: स्वाभिमान; इनायात: कृपाएं। 

सोच का दायरा

रास्तों  की  शम'अ  बुझा  लीजे
आज    ईमान    आज़मा  लीजे

है  दिमाग़ी  फ़ितूर  हुस्न  अगर
हो  सके  तो   नज़र   हटा  लीजे

आप  वाईज़  हैं  कीजिए  इस्ला:
मैकदे     से     हमें    उठा  लीजे

ख़ौफ़  है  गर  तुम्हें  ज़माने  का
तो  हमें   ख़्वाब  में   बसा  लीजे

शायरी   की    दूकान  से    आगे
सोच  का    दायरा     बढ़ा  लीजे

दूसरों   के   लिए     दुआ  करके
रूह   को    सुर्ख़रू:     बना  लीजे !

                                            ( 2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दिमाग़ी  फ़ितूर: मानसिक भ्रम; वाईज़: धर्मोपदेशक, विद्वान; इस्ला::परामर्श; मैकदे: मदिरालय; ख़ौफ़: भय;  सुर्ख़रू:: सफल। 

रविवार, 17 नवंबर 2013

हज़ारों दाग़ हैं ...!

हमारे  पास  है  ही  क्या  किसी  का  दिल  लुभाने  को
हज़ारों  दाग़  हैं     दिल  पे     ज़माने  से     छुपाने  को

न  जाने  क्या     समझ  बैठे   के:  हंगामा  मचा  डाला
ज़रा  सी  बात  थी     हमने  कहा  था     मुस्कुराने  को

न  पूछो    सामने  सब  के   हमारी  कैफ़ियत  क्या  है
सफ़ेदी  ही    बहुत  है    बज़्म  में    नज़रें  झुकाने  को

हमारी  नज़्म  पढ़  आते  हैं  वो:   अपने  तख़ल्लुस  से
नई    ईजाद     लाए      हैं    हमें     नीचा  दिखाने   को

हमीं   पे    चोट   करते   हैं     हमीं   से    रूठ   जाते  हैं
ज़रा   सा    पास   होता   तो    चले  आते    मनाने  को

अज़ीयतदेह  हैं   आमाल   अब     अहले-सियासत  के
ख़ुदा   का    नाम    लेते  हैं    जहां  को    बरग़लाने  को

हमारे   ही     पड़ोसी   हैं     खड़े   हैं    असलहे    ले  कर
हमारी   जान    लेने   को    तुम्हारा   घर    जलाने  को !

                                                                             ( 2013 )

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: कैफ़ियत: हाल-चाल; सफ़ेदी: वृद्धावस्था, सफ़ेद बाल; बज़्म: महफ़िल, गोष्ठी; नज़्म: गीत; तख़ल्लुस: कवि-नाम;  
ईजाद: आविष्कार;  पास: चिंता; अज़ीयतदेह: कष्टदायक; आमाल: आचरण;   अहले-सियासत: राजनैतिक लोग; जहां: संसार;   
बरग़लाने: भ्रमित करने; असलहे: शस्त्रास्त्र। 

शनिवार, 16 नवंबर 2013

नींद आए न तुझे !

क्या ख़बर  किसकी दुआ  लग  जाए
 यार    को      मर्ज़े-वफ़ा   लग  जाए

कौन  बचता  है    घाट  का   घर  का
जो   ज़माने   की    हवा    लग  जाए

शायरी    के      सिवा      पनाह  नहीं
जो  दिल  पे    संगे-जफ़ा   लग  जाए

हो   शिफ़ा    इश्क़   की     हरारत  से
शैख़  साहब    की     दवा   लग  जाए

जान     बच     जाए      बेगुनाहों  की
काश!  क़ातिल  को   हया  लग  जाए

वो:  तेरा  अक्स  लगेगा   जिस  दिन
चांद    को     रंगे-हिना      लग  जाए

नींद   आए   न     तुझे   भी    या  रब
क़ैस   की      आहो-सदा    लग  जाए !

                                            ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मर्ज़े-वफ़ा: निर्वाह का रोग; पनाह: शरण; संगे-जफ़ा: बे-ईमानी/अन्याय का पत्थर; शिफ़ा: आरोग्य;
हरारत: गर्मी, बुख़ार; शैख़: धर्म-भीरु, मद्यपान-विरोधी;हया: लज्जा; अक्स: प्रतिबिम्ब; रंगे-हिना: मेंहदी का रंग;
क़ैस: लैला का प्रेमी, मजनूं, प्रेमोन्मादी; आहो-सदा: चीख़-पुकार।

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

क़द्र करते हैं !

हम  जियालों  की  क़द्र  करते  हैं
बा-कमालों     की  क़द्र  करते  हैं

दर्दमंदों       पे    जां     लुटाते   हैं
दिल के छालों  की  क़द्र  करते  हैं

जो   उतरते   हैं    रूह  से     सीधे
उन  ख़यालों   की  क़द्र  करते  हैं

आप  खुल  कर  उठाइए  हम  पे
हम  सवालों   की  क़द्र  करते  हैं

जो   शबे -तार   को    उजाले  दें
उन  मशालों  की  क़द्र  करते  हैं

हम  रईसों  को   दिल  नहीं  देते
ग़म  के पालों की  क़द्र  करते  हैं

हैं  हमारे  ख़ुदा    जो    ग़ुरबा  के
आहो-नालों    की  क़द्र  करते  हैं!

                                           ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जियालों: बहादुरों; बा-कमालों: प्रतिभाशालियों; दर्दमंदों: संवेदनशीलों; शबे -तार: अंधेरी रात; 
ग़ुरबा: निर्धनों; आहो-नालों: आर्त्तनाद। 

रविवार, 10 नवंबर 2013

बग़ावत इसी में है !

हो     एहतरामे-उम्र     शराफ़त    इसी  में  है
ढहते  हुए    मज़ार  की    इज़्ज़त इसी  में  है 

हो      वक़्ते-ज़रूरत   तो     मुंह  न  दिखाइए
नादान    दोस्तों  की    नदामत    इसी  में  है

हो  निगहबां  तेरा   वही  अव्वल  वही  आख़िर
दुनिया  के    दांव-पेच  से    राहत  इसी  में  है

इज़्ज़त  का  रिज़्क़  हो  न  झुकानी  पड़े  नज़र
अल्लाह  की    इंसां  पे     इनायत   इसी  में  है

हथियार    हाथ  में    न  उठा  फ़तह  के  लिए
ऐ     आशिक़े-हुसैन     बग़ावत   इसी  में  है !

                                                            ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:   एहतरामे-उम्र: आयु का सम्मान; मज़ार: क़ब्र, यहां भावार्थ जर्जर शरीर; वक़्ते-ज़रूरत: आवश्यकता के समय; नदामत: विनम्रता, पश्चाताप; निगहबां: संरक्षक, ध्यान रखने वाला; अव्वल-आख़िर : आदि-अंत, ब्रह्म; रिज़्क़: आहार; इनायत: कृपा; फ़तह: विजय; नृशंस शासक यज़ीद के विरुद्ध अहिंसात्मक प्रतिरोध करने वाले, हज़रत इमाम हुसैन अ. स. के अनुयायी; बग़ावत: विद्रोह। 

शनिवार, 9 नवंबर 2013

घोंसले परिंदों के

नोंच   कर     फेंक   दिए     घोंसले    परिंदों  के
अब  भी     अरमान  अधूरे  हैं   कुछ  दरिंदों  के

लोग  तूफ़ान  से  बच-बच  के  निकल  जाते  हैं
क्या  फ़रिश्ते  भी  मुहाफ़िज़  नहीं  चरिन्दों  के

जाम  में   अक्से-ज़ुल्फ़   बाम  पे  निगाहे-ख़ुदा
होश  क्यूं  कर  न  फ़ाख़्ता  हों  आज  रिंदों  के !

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                                                                          ( 2013 )

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: परिंदों: पक्षियों; दरिंदों: हिंस्र पशुओं; फ़रिश्ते: देवदूत; मुहाफ़िज़: रक्षक; चरिन्दों: घास चरने वाले पशुओं; जाम: मदिरा-पात्र; अक्से-ज़ुल्फ़: लट का प्रतिबिम्ब; बाम: झरोखा; रिंदों: मद्यपों।
* ग़ज़ल फ़िलहाल नामुकम्मल है, वजह है क़ाफ़ियात का दायरा बेहद तंग होना …
** ऐतिहासिक मिथक के अनुसार, सोमनाथ मंदिर को लूटने वाले सुल्तान महमूद ग़ज़नवी का एक बेहद सुंदर ग़ुलाम था, अयाज़। एक रात जब अयाज़ महमूद के प्याले में शराब ढाल रहा था तो महमूद को उसकी ज़ुल्फ़ों की परछाईं शराब में दिखाई पड़ी.... महमूद उसी क्षण अयाज़ पर मोहित हो गया और फिर उसे दिन-रात साथ रखे रहा, अपनी मृत्यु होने तक ! इसी को लेकर अज़ीम शायर अल्लामा इक़बाल ने एक लाजवाब ग़ज़ल कही है, जिस का मक़ता है:
'न  वो:  हुस्न  में    रही  शोख़ियां     न  वो: इश्क़  में  रही  गर्मियां
न  वो:  ग़ज़नवी में  तड़प  रही  न  वो:  ख़म  है  ज़ुल्फ़े-अयाज़  में !'