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शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

क़द्र करते हैं !

हम  जियालों  की  क़द्र  करते  हैं
बा-कमालों     की  क़द्र  करते  हैं

दर्दमंदों       पे    जां     लुटाते   हैं
दिल के छालों  की  क़द्र  करते  हैं

जो   उतरते   हैं    रूह  से     सीधे
उन  ख़यालों   की  क़द्र  करते  हैं

आप  खुल  कर  उठाइए  हम  पे
हम  सवालों   की  क़द्र  करते  हैं

जो   शबे -तार   को    उजाले  दें
उन  मशालों  की  क़द्र  करते  हैं

हम  रईसों  को   दिल  नहीं  देते
ग़म  के पालों की  क़द्र  करते  हैं

हैं  हमारे  ख़ुदा    जो    ग़ुरबा  के
आहो-नालों    की  क़द्र  करते  हैं!

                                           ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जियालों: बहादुरों; बा-कमालों: प्रतिभाशालियों; दर्दमंदों: संवेदनशीलों; शबे -तार: अंधेरी रात; 
ग़ुरबा: निर्धनों; आहो-नालों: आर्त्तनाद। 

रविवार, 10 नवंबर 2013

बग़ावत इसी में है !

हो     एहतरामे-उम्र     शराफ़त    इसी  में  है
ढहते  हुए    मज़ार  की    इज़्ज़त इसी  में  है 

हो      वक़्ते-ज़रूरत   तो     मुंह  न  दिखाइए
नादान    दोस्तों  की    नदामत    इसी  में  है

हो  निगहबां  तेरा   वही  अव्वल  वही  आख़िर
दुनिया  के    दांव-पेच  से    राहत  इसी  में  है

इज़्ज़त  का  रिज़्क़  हो  न  झुकानी  पड़े  नज़र
अल्लाह  की    इंसां  पे     इनायत   इसी  में  है

हथियार    हाथ  में    न  उठा  फ़तह  के  लिए
ऐ     आशिक़े-हुसैन     बग़ावत   इसी  में  है !

                                                            ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:   एहतरामे-उम्र: आयु का सम्मान; मज़ार: क़ब्र, यहां भावार्थ जर्जर शरीर; वक़्ते-ज़रूरत: आवश्यकता के समय; नदामत: विनम्रता, पश्चाताप; निगहबां: संरक्षक, ध्यान रखने वाला; अव्वल-आख़िर : आदि-अंत, ब्रह्म; रिज़्क़: आहार; इनायत: कृपा; फ़तह: विजय; नृशंस शासक यज़ीद के विरुद्ध अहिंसात्मक प्रतिरोध करने वाले, हज़रत इमाम हुसैन अ. स. के अनुयायी; बग़ावत: विद्रोह। 

शनिवार, 9 नवंबर 2013

घोंसले परिंदों के

नोंच   कर     फेंक   दिए     घोंसले    परिंदों  के
अब  भी     अरमान  अधूरे  हैं   कुछ  दरिंदों  के

लोग  तूफ़ान  से  बच-बच  के  निकल  जाते  हैं
क्या  फ़रिश्ते  भी  मुहाफ़िज़  नहीं  चरिन्दों  के

जाम  में   अक्से-ज़ुल्फ़   बाम  पे  निगाहे-ख़ुदा
होश  क्यूं  कर  न  फ़ाख़्ता  हों  आज  रिंदों  के !

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                                                                          ( 2013 )

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: परिंदों: पक्षियों; दरिंदों: हिंस्र पशुओं; फ़रिश्ते: देवदूत; मुहाफ़िज़: रक्षक; चरिन्दों: घास चरने वाले पशुओं; जाम: मदिरा-पात्र; अक्से-ज़ुल्फ़: लट का प्रतिबिम्ब; बाम: झरोखा; रिंदों: मद्यपों।
* ग़ज़ल फ़िलहाल नामुकम्मल है, वजह है क़ाफ़ियात का दायरा बेहद तंग होना …
** ऐतिहासिक मिथक के अनुसार, सोमनाथ मंदिर को लूटने वाले सुल्तान महमूद ग़ज़नवी का एक बेहद सुंदर ग़ुलाम था, अयाज़। एक रात जब अयाज़ महमूद के प्याले में शराब ढाल रहा था तो महमूद को उसकी ज़ुल्फ़ों की परछाईं शराब में दिखाई पड़ी.... महमूद उसी क्षण अयाज़ पर मोहित हो गया और फिर उसे दिन-रात साथ रखे रहा, अपनी मृत्यु होने तक ! इसी को लेकर अज़ीम शायर अल्लामा इक़बाल ने एक लाजवाब ग़ज़ल कही है, जिस का मक़ता है:
'न  वो:  हुस्न  में    रही  शोख़ियां     न  वो: इश्क़  में  रही  गर्मियां
न  वो:  ग़ज़नवी में  तड़प  रही  न  वो:  ख़म  है  ज़ुल्फ़े-अयाज़  में !'

गुरुवार, 7 नवंबर 2013

ये: नुक़तए-नज़र ...

हमको    तीरे-नज़र  क़ुबूल  नहीं
बेशऊरों  का    दर    क़ुबूल  नहीं


दुश्मने-हुस्न   हम  नहीं  लेकिन
दिल पे  बेजा  असर  क़ुबूल  नहीं

अज़मते-मुल्क    बेचने     वालों
ये:   नुक़तए-नज़र   क़ुबूल  नहीं

चंद   सरमायदार   की     ख़ातिर
मुफ़लिसों  पे  क़हर  क़ुबूल  नहीं

कोई  समझाओ   इन  दरिंदों  को
नफ़रतों   का  ज़हर   क़ुबूल  नहीं

हमको   दोज़ख़  क़ुबूल है लेकिन
शाह    तेरा  शहर     क़ुबूल  नहीं

इब्ने-हैदर   को    छीन  ले  जाए
हमको  ऐसी  सहर  क़ुबूल  नहीं

आज   मातम   हुसैन  का  होगा
ज़िक्रे-माहो-क़मर  क़ुबूल  नहीं !

                                          ( 2013 )

                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:



अल्लः मियां बुलाते हैं !


जब  भी  तूफ़ां  क़रीब  आते  हैं
नाख़ुदा    साथ    छोड़  जाते  हैं

देख  के  लोग  साथ-साथ  हमें
संखिया  खा  के  बैठ  जाते  हैं

ज़िल्लते-हिंद  हैं  सियासतदां
क़ौम  की  बोटियां   चबाते  हैं

गर  सियासत  हमें  पसंद  नहीं
मुद्द'आ    क्यूं   इसे    बनाते  हैं

वो:  अगर शाम तक न आ पाएं
रात  भर  ख़्वाब   छटपटाते  हैं

आ   रहें    वो:     ज़रा    मदीने  से
फिर  कोई  सिलसिला  जमाते  हैं

आपके  नाम  रहा    शौक़े-सुख़न
हमको  अल्लः  मियां  बुलाते  हैं !

                                            (  2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नाख़ुदा: नाविक; संखिया: एक घातक विष; ज़िल्लते-हिंद: भारत के कलंक; क़ौम: राष्ट्र; मुद्द'आ: विवाद का विषय; 
सिलसिला: मिल बैठने की युक्ति;  शौक़े-सुख़न: रचना-कर्म। 




मंगलवार, 5 नवंबर 2013

आपका जामे-नज़र ...

जी    बड़ा   तेज़    ज़हर   पीते  हैं
आजकल    आठ  पहर    पीते  हैं

जब  कोई  ज़ख़्म  उभर  आता  है
भूल   के    अपनी    उम्र   पीते  हैं

जाम   उमरा   नहीं    छुआ  करते
ख़ूने-इंसान        मगर      पीते  हैं

जीत   के    आए   हैं     अंधेरों  को
जश्न   में     जामे-सहर     पीते  हैं

उज्र  क्यूं  हो  किसी  फ़रिश्ते  को
अपने  हिस्से  की  अगर  पीते  हैं

ईद    पे     आप     बग़लगीर  हुए
उस  इनायत  का   असर  पीते  हैं

तूर   पे    त'अर्रुफ़    हुआ   जबसे
आपका     जामे-नज़र     पीते  हैं  !

                                                 ( 2013 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जाम: मदिरा-पात्र; उमरा: अमीर ( बहुव. ), संभ्रांत-जन; ख़ूने-इंसान: मनुष्य-रक्त; जामे-सहर: उष: काल के प्रकाश की मदिरा; उज्र: आपत्ति; फ़रिश्ते: देवदूत;  बग़लगीर: गले लगना;  इनायत: कृपा; तूर: अरब का एक पहाड़ जहां हज़रत मूसा अ. स. को ख़ुदा के प्रकाश की झलक मिली; त'अर्रुफ़: परिचय; जामे-नज़र: दृष्टि-रूपी मदिरा। 


रविवार, 3 नवंबर 2013

दुश्मने-चैनो-अमन

ख़्वाब  पलकों  का  वतन  छोड़  गए
सुर्ख़   आंखों  में     जलन  छोड़  गए

चार   पत्ते      हवा   से       क्या  टूटे
सारे    सुर्ख़ाब     चमन     छोड़  गए

ख़ूब   मोहसिन   हुए     मेरे   मेहमां
चंद    अंगुश्त    क़फ़न     छोड़  गए

ख़ार    दिल  से    निकल  गए   सारे
ज़िंदगी  भर  की   चुभन   छोड़  गए

हिंद  को      अज़्म      बख़्शने  वाले
दुश्मने-चैनो-अमन          छोड़  गए

ले      गए       रूह       आसमां  वाले
जिस्म   मिट्टी  में   दफ़्न  छोड़  गए

मीरो-ग़ालिब       हमारे      हिस्से  में
सिर्फ़      आज़ारे-सुख़न     छोड़  गए !

                                               ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सुर्ख़: लाल; परिंद: पक्षी; मोहसिन: कृपालु-जन; चंद  अंगुश्ते-क़फ़न: चार अंगुल शवावरण; ख़ार: कांटे; अज़्म: महत्ता; 
दुश्मने-चैनो-अमन: सुख-शांति के शत्रु; रूह: आत्मा; आसमां वाले : परलोक-वासी, मृत्यु-दूत; जिस्म: शरीर; 
मीरो-ग़ालिब: हज़रात मीर तक़ी 'मीर' और मिर्ज़ा ग़ालिब, उर्दू  के  महानतम शायर; आज़ारे-सुख़न: रचना-कर्म का रोग।