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शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

ख़ुदा को जवाब ?

दर्द   देंगे    वो:    या      दवा  देंगे
हम  तो  हर  हाल  में  निभा  देंगे

आज  नूरे-नज़र  हैं  हम  जिनके
कल  वही    आंख  से   गिरा  देंगे

कौन  जाने  के:  क्या  करेंगे  हम
वो:  अगर   बज़्म  से     उठा  देंगे

रफ़्ता-रफ़्ता  करें  वो:  क़त्ल  हमें
नफ़्स  दर  नफ़्स   हम   दुआ  देंगे

हम  तभी     ख़ूं-बहा     करेंगे  तय
आप    जिस   रोज़    मुस्कुरा  देंगे

बस  वज़ारत  उन्हें  मिली  समझो
रिश्तेदारों       को      फ़ायदा   देंगे

हम  ख़िलाफ़त  अगर  करें  दिल  की
तो  ख़ुदा  को    जवाब    क्या  देंगे ?!

                                               ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नूरे-नज़र: दृष्टि; बज़्म: सभा, महफ़िल; रफ़्ता-रफ़्ता: धीमे-धीमे; नफ़्स दर नफ़्स: हर सांस में;   
ख़ूं-बहा  : प्राणों का मूल्य, वध-मूल्य;   वज़ारत: मंत्रि-पद;  ख़िलाफ़त: विरोध। 

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

रहम होता अगर ...

ख़ुदा  को  थी   शिकायत    तो  हमें  बतला  नहीं  देते
हमें  ज़ाहिद  के  घर  का    रास्ता  दिखला  नहीं  देते

हमारी  फ़िक्र  थी  तो  तुम  हमारा  ग़म  समझ  लेते
बहानों  से  हमें   तुम    इस  तरह    बहला  नहीं  देते

ज़रा  सा    दर्द  था    नज़रें  मिला  के    दूर  कर  देते
नक़ब  में    मुंह  छुपा  के    यूं  हमें  टहला  नहीं  देते

बड़े  मुर्शिद  बना  करते  हो    ये:  भी  हम  ही  समझाएं
के:  सर  पे  हाथ  रख  के    क्यूं  ज़रा   सहला  नहीं  देते

ग़लत  थे  हम  अगर   तो  भी तुम्हारा  फ़र्ज़  बनता  था
हमें    दिल  से  लगा  के    प्यार  से    समझा  नहीं  देते

गए   हम   जब   ख़ुदा   के   घर    हमारे  हाथ   ख़ाली  थे
रहम  होता  अगर  दिल  में  तो  वो:  क्या-क्या  नहीं  देते !

                                                                              ( 2013 )

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ज़ाहिद: धर्मोपदेशक; नक़ब: नक़ाब, मुखावरण; मुर्शिद: धर्म-गुरु, पीर; फ़र्ज़: कर्त्तव्य; रहम: दया।

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

शाह को नज़ला !

नए   अहद     नई   वफ़ा     तलाश    करते  हैं
रहे-अज़ल    नया   ख़ुदा     तलाश    करते  हैं

यहां  की   आबो-हवा   अब   हमें  मुफ़ीद  नहीं
नई   सहर     नई   सबा     तलाश     करते  हैं

मेरे    हबीब   दुश्मनों  से   मिल  गए    शायद
मेरे     ख़िलाफ़    मुद्द'आ    तलाश    करते  हैं

मुहब्बतों  के   शहर  में    जिया  किए    तन्हा
सफ़र   के    वास्ते     दुआ    तलाश  करते  हैं

बना   लिया   है   तेरा  नाम   तख़ल्लुस  हमने
तेरे   लिए    भी     मर्तबा    तलाश    करते  हैं

ज़रा  सी   देर   कहीं   ख़ुद  से   रू-ब-रू   हो  लें
भरे   शहर   में    तख़्लिया   तलाश   करते  हैं

हुआ  है  शाह  को  नज़ला  अजब  मुसीबत  है
तबीबे-दो जहां      दवा      तलाश      करते  हैं !   

                                                              ( 2013 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  अहद: संकल्प;  वफ़ा: निर्वाह करने वाले; रहे-अज़ल: मृत्यु का मार्ग; आबो-हवा: हवा-पानी, पर्यावरण; मुफ़ीद: लाभदायक;  
सहर: उषा; सबा: ठंडी पुरवाई;  हबीब: प्रिय-जन; ख़िलाफ़: विरुद्ध; मुद्द'आ: बिंदु, विवाद का विषय; तख़ल्लुस: कवि या शायर का उपनाम; मर्तबा: पदवी;  रू-ब-रू: साक्षात्कार; तख़्लिया: एकांत; नज़ला: सर्दी-ज़ुकाम; तबीबे-दो जहां: दोनों लोक- इहलोक, परलोक के चिकित्सक।           

शराफ़त की हद !

हम  तेरे  ख़्वाब  में  जब  से  आने  लगे
दोस्त     हम  से    निगाहें   चुराने  लगे

दी  हमीं ने  तुम्हें  दिलकशी  की  नज़र
तुम  हमीं  को    निशाना    बनाने  लगे

यार, ये:  तो  शराफ़त  की  हद  हो  गई
फिर    हमें    छेड़  के    मुस्कुराने  लगे

बेवक़ूफ़ी   हुई    जो   उन्हें   दिल  दिया
वो:      हमारा   तमाशा      बनाने  लगे

हाथ   पकड़ा   नहीं  था   अभी  ठीक  से
ज़ोर     सारा    लगा   के    छुड़ाने  लगे

शे'र  कहने  का  हमसे  हुनर  सीख  के
बुलबुलों   की    तरह    चहचहाने  लगे

ये:   असर  है  हमारा   के:  बस  बेख़ुदी
वो:    हमारी   ग़ज़ल    गुनगुनाने  लगे

                                               ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दिलकशी: चिताकर्षण; हुनर: कौशल; बेख़ुदी: आत्म-विस्मरण।

सोमवार, 2 सितंबर 2013

हमें मुद्द'आ बनाते हैं...

हम  अगर  खुल  के मुस्कुराते  हैं
क्या  बताएं   के:  क्या  छुपाते  हैं

दिल तो महफ़ूज़ रख नहीं  पाए
दांव      ईमान    पे    लगाते  हैं

जो    शबे-ग़म    गुज़ार  लेते  हैं
अपनी  तक़दीर   ख़ुद  बनाते हैं

मांगते  हैं   दुआ   मुहब्बत  की
मौत    का    दायरा    बढ़ाते  हैं

जब कभी दिल पे बात आती है
वो:    हमें    मुद्द'आ   बनाते  हैं

मश्वरा    चाहिए    मुहब्बत  पे
मीरवाइज़     हमें     बुलाते  हैं

अर्श  जब-जब  फ़रेब  देता  है
ग़म  हमें    रास्ता  दिखाते  हैं  !

                                     ( 2013 )

                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: महफ़ूज़: सुरक्षित; ईमान: आस्था; शबे-ग़म: दुःख की रात्रि; मुद्द'आ: विषय; मश्वरा: परामर्श; 
मीरवाइज़: प्रमुख धर्मोपदेशक; अर्श: आसमान, भाग्य। 

 

रविवार, 1 सितंबर 2013

बुतों से अर्ज़े-हाल

लोग    क्या-क्या    कमाल   करते  हैं
मुफ़लिसों      से     सवाल    करते  हैं

हम  बुज़ुर्गों   के   बस  की  बात  नहीं
काम      जो      नौनिहाल    करते  हैं

बदज़ुबानी      हमें      भी     आती  है
बस,    अदब   का   ख़याल   करते  हैं

हुक्मरां       सिर्फ़       जेब    भरते  हैं
काम        सारा     दलाल     करते  हैं

वक़्त    हर   दिन    बुरा    नहीं  होता
आप    क्यूं   कर    मलाल   करते  हैं

दोस्त        देखे      नए     ज़माने  के
दोस्त   को    ही     हलाल    करते  हैं

दर्द     हमसे     कहें    तो    बात  बने
बुतों      से      अर्ज़े-हाल     करते  हैं  !

                                                     ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: कमाल: अजीब, अटपटे काम; मुफ़लिसों: निर्धनों;   सवाल: मांग, कुछ पाने का प्रयास; नौनिहाल: बालक; बदज़ुबानी: कटु-भाषिता; अदब: शिष्टाचार; हुक्मरां: शासनाधिकारी; मलाल: विषाद;   हलाल: धर्मानुमत विधि से गला काटना; बुतों: मूर्त्तियों;  अर्ज़े-हाल: स्थिति का वर्णन। 





शनिवार, 31 अगस्त 2013

अल्फ़ाज़ दिल से...

हमने      तेरे    शहर    को     देखा  है
ज़िंदगी     के     क़हर     को   देखा  है

दिल   सलामत     युं  ही    नहीं  रक्खा
आग    देखी     शरर      को     देखा  है

हक़    हमें    यूं    है    शे'र   कहने  का
सामईं      पे     असर    को     देखा  है

ये:      शहर     दम-ब-दम     हमारा  है
रोज़       शामो-सहर      को     देखा  है

जब  भी  अल्फ़ाज़  दिल  से  निकले  हैं
हमने    अपनी     बहर    को    देखा  है

बाज़     आओ     मियां     मुहब्बत  से
तुमने    अपनी    उमर   को    देखा  है ?

सिर्फ़     रब     का    वजूद     पाया  है
जब  भी   अपनी   नज़र  को  देखा  है !

                                               ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़हर: कोप; शरर: चिंगारी; सामईं: श्रोता गण; दम-ब-दम: प्रत्येक सांस से; शामो-सहर: संध्या और प्रात:काल; 
अल्फ़ाज़: शब्द (बहुव.); बहर: छंद; बाज़ आना: त्याग देना, दूर रहना; रब: ईश्वर; वजूद: अस्तित्व।