Translate

सोमवार, 2 सितंबर 2013

हमें मुद्द'आ बनाते हैं...

हम  अगर  खुल  के मुस्कुराते  हैं
क्या  बताएं   के:  क्या  छुपाते  हैं

दिल तो महफ़ूज़ रख नहीं  पाए
दांव      ईमान    पे    लगाते  हैं

जो    शबे-ग़म    गुज़ार  लेते  हैं
अपनी  तक़दीर   ख़ुद  बनाते हैं

मांगते  हैं   दुआ   मुहब्बत  की
मौत    का    दायरा    बढ़ाते  हैं

जब कभी दिल पे बात आती है
वो:    हमें    मुद्द'आ   बनाते  हैं

मश्वरा    चाहिए    मुहब्बत  पे
मीरवाइज़     हमें     बुलाते  हैं

अर्श  जब-जब  फ़रेब  देता  है
ग़म  हमें    रास्ता  दिखाते  हैं  !

                                     ( 2013 )

                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: महफ़ूज़: सुरक्षित; ईमान: आस्था; शबे-ग़म: दुःख की रात्रि; मुद्द'आ: विषय; मश्वरा: परामर्श; 
मीरवाइज़: प्रमुख धर्मोपदेशक; अर्श: आसमान, भाग्य। 

 

रविवार, 1 सितंबर 2013

बुतों से अर्ज़े-हाल

लोग    क्या-क्या    कमाल   करते  हैं
मुफ़लिसों      से     सवाल    करते  हैं

हम  बुज़ुर्गों   के   बस  की  बात  नहीं
काम      जो      नौनिहाल    करते  हैं

बदज़ुबानी      हमें      भी     आती  है
बस,    अदब   का   ख़याल   करते  हैं

हुक्मरां       सिर्फ़       जेब    भरते  हैं
काम        सारा     दलाल     करते  हैं

वक़्त    हर   दिन    बुरा    नहीं  होता
आप    क्यूं   कर    मलाल   करते  हैं

दोस्त        देखे      नए     ज़माने  के
दोस्त   को    ही     हलाल    करते  हैं

दर्द     हमसे     कहें    तो    बात  बने
बुतों      से      अर्ज़े-हाल     करते  हैं  !

                                                     ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: कमाल: अजीब, अटपटे काम; मुफ़लिसों: निर्धनों;   सवाल: मांग, कुछ पाने का प्रयास; नौनिहाल: बालक; बदज़ुबानी: कटु-भाषिता; अदब: शिष्टाचार; हुक्मरां: शासनाधिकारी; मलाल: विषाद;   हलाल: धर्मानुमत विधि से गला काटना; बुतों: मूर्त्तियों;  अर्ज़े-हाल: स्थिति का वर्णन। 





शनिवार, 31 अगस्त 2013

अल्फ़ाज़ दिल से...

हमने      तेरे    शहर    को     देखा  है
ज़िंदगी     के     क़हर     को   देखा  है

दिल   सलामत     युं  ही    नहीं  रक्खा
आग    देखी     शरर      को     देखा  है

हक़    हमें    यूं    है    शे'र   कहने  का
सामईं      पे     असर    को     देखा  है

ये:      शहर     दम-ब-दम     हमारा  है
रोज़       शामो-सहर      को     देखा  है

जब  भी  अल्फ़ाज़  दिल  से  निकले  हैं
हमने    अपनी     बहर    को    देखा  है

बाज़     आओ     मियां     मुहब्बत  से
तुमने    अपनी    उमर   को    देखा  है ?

सिर्फ़     रब     का    वजूद     पाया  है
जब  भी   अपनी   नज़र  को  देखा  है !

                                               ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़हर: कोप; शरर: चिंगारी; सामईं: श्रोता गण; दम-ब-दम: प्रत्येक सांस से; शामो-सहर: संध्या और प्रात:काल; 
अल्फ़ाज़: शब्द (बहुव.); बहर: छंद; बाज़ आना: त्याग देना, दूर रहना; रब: ईश्वर; वजूद: अस्तित्व।

बुधवार, 28 अगस्त 2013

ख़ुदा नहीं होते !

हम  अगर   नाख़ुदा   नहीं  होते
साहिलों   से    जुदा   नहीं  होते

तीर  खुल  के  चलाइए  हम  पे
हम  किसी  से  ख़फ़ा नहीं  होते

रात  कटती  अगर  निगाहों  में
ख़्वाब  यूं    लापता   नहीं  होते

इश्क़  है  काम अह् ले-ईमां  का
जो   कभी    बेवफ़ा    नहीं  होते

रहरवी  के   उसूल   कामिल  हैं
मरहले     रास्ता       नहीं  होते

शबो-शब  वस्ल  हो  अगर  रहता
ज़ख़्म   बादे-सबा    नहीं    होते

हमने   फ़ाक़ाकशी   न  की  होती
मुफ़लिसों  की   दुआ   नहीं  होते

क़ातिलों  में    शुमार    हो  जाते
जो      शहीदे-वफ़ा     नहीं  होते

नाप     आए     बुलंदियां    सारी
लोग  फिर  भी  ख़ुदा  नहीं  होते !

                                        ( 2013 )

                                -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: नाविक; साहिलों: किनारों; जुदा: विलग, दूर; ख़फ़ा: नाराज़; अह् ले-ईमां: आस्तिक; रहरवी: यात्रा; उसूल: सिध्दांत;  कामिल: सर्वांग-सम्पूर्ण, अपरिवर्त्तनीय; मरहले: पड़ाव; शबो-शब: रात्रि-प्रतिरात्रि; ज़ख़्म: घाव; प्रातः काल की शीतल समीर;फ़ाक़ाकशी: भूखे रहने का अभ्यास; मुफ़लिसों: विपन्न, निर्धनों की ; बुलंदियां: ऊंचाइयां।

मंगलवार, 27 अगस्त 2013

दिल कांपता है...

हैरतज़दा  हैं    हिंद   की    बुनियाद   देख  कर
हिलती  भी   नहीं    क़ुव्वते-फ़ौलाद   देख  कर

सीने  में  दर्द   चश्म  में   शबनम  तलक  नहीं
हम  हंस  पड़े  हैं  ख़ुद  को  यूं  बर्बाद  देख  कर

शे'रो -सुख़न     के    रास्ते    वीरान     हो  गए
क़ातिल  को    तेरे  शहर  में  आज़ाद  देख  कर

शीरीं   हो   सोहनी  हो   के:    लैला-ओ-हीर  हो
दिल    कांपता  है   इश्क़  की   रूदाद  देख  कर

आबो-हवा    बदल   गई   दहशत  में  हैं  परिंद
दरियादिली - ए- दामने-सय्याद      देख  कर !

                                                            ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हैरतज़दा: आश्चर्य-चकित; बुनियाद: नींव; क़ुव्वते-फ़ौलाद: इस्पात की सामर्थ्य; चश्म: आंख; शे'रो-सुख़न: काव्य-कला; वीरान: निर्जन; शीरीं, सोहनी, लैला, हीर: मध्य-कालीन प्रेम-गाथाओं की नायिकाएं; रूदाद: वृत्तांत, महागाथा; आबो-हवा: पर्यावरण; दहशत: आतंक; परिंद: पक्षी; दरियादिली-ए-दामने-सय्याद: बहेलिए की विशाल-हृदय  उदारता।

शनिवार, 24 अगस्त 2013

ख़ुदा नहीं देंगे

वो:    मुझे   रास्ता   नहीं  देंगे
सर  कटा  लूं  वफ़ा  नहीं  देंगे

नफ़रतों  के  लिबास  पहने  हैं
प्यार  तो   ज़ाहिरा   नहीं  देंगे

कुर्सियों  की  महज़  लड़ाई  है
कैसे   मानें    दग़ा    नहीं  देंगे

साज़िशन   राम  बेचने  वालों
बाख़ुदा   हम  ख़ुदा   नहीं  देंगे

मौत  का   रक़्स   देखने  वाले
ज़िंदगी   को    दुआ  नहीं  देंगे

लोग  मासूमियत  के  दुश्मन  हैं
मुजरिमों   को   सज़ा   नहीं  देंगे

क़त्ल  कर  दें  अगर  मुहब्बत  से
हम     उन्हें     बद्दुआ     नहीं  देंगे

उनके  दिल  में  नमाज़  पढ़ते  हैं
क्या  हमें  इसलिए  मिटा  देंगे  ?

                                             ( 2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: वफ़ा: समुचित व्यवहार; नफ़रतों  के  लिबास: घृणाओं के वस्त्र; ज़ाहिरा: प्रकटतः; दग़ा: धोखा; साज़िशन: षड्यंत्रपूर्वक; बाख़ुदा: ख़ुदा की क़सम; रक़्स: नृत्य; दुआ: शुभकामना; मासूमियत: निर्दोषिता; मुजरिमों: अपराधियों। 

गुरुवार, 22 अगस्त 2013

हिज्र में सब्र ...

दीद  का  दिन  गुज़र  न  जाए  कहीं
वक़्त  अपना  ठहर  न  जाए  कहीं

है  शबे-वस्ल   जागते  रहिए
ख़्वाब  कोई  बिखर  न  जाए  कहीं

इख़्तिलाफ़ात  घर  में  बेहतर  हैं
घर  से  बाहर  ख़बर  न  जाए  कहीं 

हिज्र  में  सब्र  यूं  ज़रूरी  है
ग़म  इधर  से  उधर   न   जाए  कहीं

दर्द  को  काफ़िया  बना  तो  लें
ये:  ख़िलाफ़े-बहर  न  जाए  कहीं

ज़िंदगी   का  ख़ुमार  बाक़ी  है
ये:  नशा  भी  उतर  न  जाए  कहीं

लोग  फिर  आ  रहे  हैं  सड़कों  पे
शाह  की  फ़ौज  डर  न  जाए  कहीं !

                                                ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दीद: दर्शन; शबे-वस्ल: मिलन की रात्रि; इख़्तिलाफ़ात: मतभेद ( बहुव.); हिज्र: वियोग; काफ़िया: शे'र में आने वाला तुकांत शब्द; ख़िलाफ़े-बहर: छंद के विरुद्ध; ख़ुमार: तंद्रा।