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रविवार, 2 जून 2013

दिलों को जीतने का फ़न !

ग़ज़ल  तो  हम  भी  कहते  हैं  हुनर  तो  हम  भी  रखते  हैं
है  कितना - कौन  पानी  में  ख़बर   तो  हम  भी  रखते  हैं

अमीर-ए-शहर  हो  तुम  तो   हमें  क्यूं  हो  गिला  इस  पे
कहीं   पे    आरज़ूओं    का    शहर  तो   हम  भी  रखते  हैं

दिलों  को    जीतने  का  फ़न    तुम्हारे  पास   है    बेशक़
मगर  क़ारीन  के  दिल  पे   असर  तो  हम  भी  रखते  हैं

बुरा  कहिए  भला  कहिए  समझ  कर  सोच  कर  कहिए
ज़ुबां  खुल  जाए  ग़लती  से  ज़हर  तो  हम  भी  रखते  हैं

नहीं  हो  इक  गुल-ए-नरगिस  तुम्हीं  तो  इस  ज़माने  में
अगर  तुम  हुस्न  रखते  हो  नज़र  तो  हम  भी  रखते  हैं

किया   है   इश्क़    तो    हर   इम्तेहां    मंज़ूर   है   हमको
न  हो  तो    आज़मा  देखो   जिगर  तो  हम  भी  रखते  हैं

जलाने  को  बहुत  कुछ  है  यहां  पे  दिल  भी  दुनिया  भी
गिरा  लें  बर्क़  वो:   हम  पे   शरर  तो  हम  भी  रखते  हैं !

                                                                              ( 2013 )

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हुनर: कौशल; अमीर-ए-शहर: नगर पर राज करने वाला; गिला: आक्षेप; आरज़ूओं का शहर: इच्छाओं का नगर; फ़न: कला; 
क़ारीन: पाठक ( बहुव.); गुल-ए-नरगिस: नर्गिस का फूल, मिथकीय मान्यतानुसार, नर्गिस के फूल एक हज़ार वर्ष में एक बार खिलते हैं और वे दृष्टिवान होते हैं; जिगर: साहस; बर्क़: आकाशीय बिजली, ईश्वरीय प्रकोप; शरर: चिंगारी।

शुक्रवार, 31 मई 2013

यादों का शीराज़ा

सियासत   चीज़   क्या   है   ये:   ज़रा  सा   देख  लेते  हैं
लगा    के    आग   बस्ती   में    तमाशा   देख   लेते   हैं

हमें  मालूम  है  उस  ख़त  में  तुमने  क्या  लिखा  होगा
तुम्हारे   ज़ौक़    की   ख़ातिर    लिफ़ाफ़ा   देख  लेते  हैं

बड़ा  मासूम  आशिक़  था   न  मिल  पाए  कभी  उससे
चलो   अब  चल  के  छज्जे  से   जनाज़ा   देख  लेते  हैं

तेरी  फ़ुर्क़त  के  दिन  हम  पे   बहुत  भारी  गुज़रते  हैं
तो    तन्हाई  में    यादों   का    शीराज़ा   देख   लेते   हैं

किया  करते  हैं  ग़ुरबत  में  इबादत  इस  तरह  से  हम
बनाते    हैं    वुज़ू      तस्वीर-ए- का'बा    देख   लेते   हैं

सुना    है    कुछ   भले   मानस   नई   तंज़ीम  लाए  हैं
चलो   इस   बार    उनका   भी    इरादा   देख   लेते   हैं

किसी  को  तो    करेंगे  मुंतख़ब    लेकिन  ज़रा  पहले
हुकूमत   के    गुनाहों    का    ख़ुलासा   देख   लेते   हैं !

                                                                            ( 2013 )

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सियासत: राजनीति; ज़ौक़: समाधान; फ़ुर्क़त: वियोग;  तन्हाई: अकेलापन;  यादों का शीराज़ा: बिखरी हुई स्मृतियों का संकलन; ग़ुरबत: परदेश;  इबादत: आराधना;  वुज़ू: देह-शुद्धि;  का'बा: इस्लामी मान्यतानुसार पृथ्वी का केंद्र, ईश्वरीय सत्ता का प्रतीक; तंज़ीम: संगठन, दल; मुंतख़ब: निर्वाचित।

किरदार के मानी

तेरा    ख़याल     हमारी   नज़र   में    रहता   है
वो:  ख़ुशनसीब  फ़रिश्तों  के  घर  में  रहता   है

बहार  जिसकी  धुन  में  दर-ब-दर  भटकती  है
वो:    नौजवान    हमारे   शहर   में     रहता   है

बहक   चुका   है   मेरा   यार   इक   ज़माने  से
न  जाने  कौन  सी   मै  के  असर  में  रहता  है

उसे  बताओ   के:  किरदार  के  मानी   क्या  हैं
ग़लत  वजह  से   हमेशा   ख़बर  में   रहता  है

वो:  शम्'अ  हम  नहीं  तूफ़ां  जिसे  बुझा  डाले
हमारा  नूर  तो   माह-ओ-मेह् र  में  रहता  है।

                                                               ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़रिश्ता: पंखों वाला देवदूत; मै: मदिरा; किरदार: समग्र व्यक्तित्व, चरित्र; नूर: प्रकाश; माह-ओ-मेह् र: चन्द्र एवं सूर्य।

गुरुवार, 30 मई 2013

उम्मीद की शुआ है ख़ुदा की किताब में !

मंज़ूर    है      दीदार     तुम्हारा        हिजाब    में
फ़ुर्सत  हो  तो  आ जाओ  किसी  रोज़  ख़्वाब  में

आशिक़   की   तिश्नगी  का   आलम   न   पूछिए
आब-ए-हयात     देख     रहा      है     सराब   में

नासेह   हैं   आप    कीजिए   खुल   के   नसीहतें
ग़फ़लत   मगर   बहुत   है    आपके  हिसाब  में

बांटेंगे   इत्र-ओ-रेवड़ी   मस्जिद   में  आज  हम
आदाब   कह   रहे   हैं    वो:   हमको   जवाब  में

वाइज़  को  कर  के  मेहमां  पछता  रहे  हैं  हम
मदहोश    हो    गए   हैं     ज़रा-सी    शराब   में

आमाल   पाक-साफ़   हैं   शायर  हुए   तो  क्या
धब्बा     न      ढूंढिए      हुज़ूर     आफ़ताब   में

पाया  न  एक  लफ़्ज़  कहीं  इश्क़  के  ख़िलाफ़
उम्मीद   की   शुआ   है   ख़ुदा  की  किताब  में !

                                                             ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हिजाब: पर्दा; तिश्नगी: प्यास; आलम: तीव्रता; आब-ए-हयात: अमृत, जीवन-जल; सराब: मरु-जल, मरु:स्थल में सूर्य की किरणों   के आंतरिक परावर्त्तन के कारण दिखाई पड़ने वाला पानी ; नासेह: नसीहत करने वाला,छिद्रान्वेषी; ग़फ़लत: गड़बड़, संशय; वाइज़:         धर्मोपदेशक; मदहोश: मद्योन्मत्त; आमाल: आचरण;पाक: पवित्र; साफ़: उज्ज्वल; आफ़ताब: सूर्य; लफ़्ज़: शब्द; शुआ: किरण; ख़ुदा की किताब: पवित्र  क़ुर'आन।

बुधवार, 29 मई 2013

हम ऐसे अहमक़ !

उनकी    बातें    वो:    ही    जानें    कैसा-क्या    ब्यौपार    किया
हम   तो   बस   अपनी   जाने   हैं   दिल   का   कारोबार    किया

उनके    दर     दो-ज़ानू    हो    कर    कितनी     ही   आवाज़ें  दीं
बेहिस    पे    ईमां    ले    आए    नाहक़    दिल    बेज़ार    किया

रहन   रख   चुके   दिल   की   सारी   दौलत   क़ातिल   के   हाथों 
तो    ज़ालिम    ने    राह-ए-दिल    में  पलकों  को  दीवार  किया

देख   चुके   थे   दिल   के   गोरखधंधे   में   दीवानों   की   हालत
फिर   भी   होश   न   आया   हमको   ख़ुद   जीना  दुश्वार  किया

ख़ुद   अपनी   ही   ग़लती   हो   तो   किस  पे  दें  इल्ज़ाम   भला
ग़ैरों    ने    कितना    समझाया     अपनों    ने    हुश्यार    किया

हंस   लेते     या   रो   लेते    दिल   हल्का   तो      हो   ही   जाता
हम    ऐसे   अहमक़    निकले   के:    हर   मौक़ा   बेकार   किया

ख़िज़्र     हमारी     राहत     को     आबे-हयात    तो     लाए    थे
टूटे   दिल    जी   के   क्या   करते    सो   हमने   इनकार   किया

शाहों   की     सोहबत   में     रहते   रूह   तलक   पे   दाग़   लिए
का'बे   किस  मुंह  से  जाएं   हम   ईमां  तक  तो    ख़्वार  किया।

                                                                                 ( 2013 )

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:   दो-ज़ानू: घुटनों के बल बैठ कर; बेहिस: संवेदनहीन; बेज़ार: व्यथित; दुश्वार: हुश्यार: सावधान;  अहमक़: मंदबुद्धि, बौड़म; ख़िज़्र: हज़रत ख़िज़्र, इस्लाम के पैगम्बरों में से एक, भूले-भटकों को मार्ग दिखाने वाले, किम्वदंती है कि वे सिकंदर को अमृत के झरने तक ले गए थे और उन्होंने उसे वे लोग दिखाए जो अमृत पी चुके थे; सिकंदर ने उनकी हालत देख कर अमृत पीने से इनकार कर दिया। 
आब-ए-हयात : अमृत।

मंगलवार, 28 मई 2013

....ज़ुबान बाक़ी है !

इक      अधूरा     बयान      बाक़ी     है
और     मुंह    में   ज़ुबान     बाक़ी    है

सर   पे   छत   की   हमें  तलाश  नहीं
जब    तलक    आसमान    बाक़ी    है

ज़लज़लों    ने    शहर    मिटा    डाला
सिर्फ़      मेरा     मकान      बाक़ी   है

रिज़्क़   की   फ़िक़्र   न   कर  ऐ   बंदे
ये:    दिल -ए- मेज़बान      बाक़ी   है

असलहे    ज़ालिमों    के     बाक़ी   हैं
हिम्मत -ए- नातवान       बाक़ी    है

यूं   ज़मीं -ए- ख़ुदा   पे    क़ाबिज़  हैं
सौ    बरस    का   लगान   बाक़ी   है

दुश्मन-ए-इश्क़   आ  डटें   फिर  से
जिस्मे-आशिक़  में  जान  बाक़ी  है

यूं  के:  दुनिया  से  उठ  गए  ग़ालिब
उनकी   हस्ती  की   शान   बाक़ी  है

फिर   नई  मंज़िलों  को   चल   देंगे
बस    ज़रा-सी    थकान   बाक़ी   है

दिल  धड़कने  को  अब  नहीं  राज़ी
हौसलों    की      उड़ान     बाक़ी   है

क्या  हुआ  तुम  अगर  सनम  न  हुए
अब    भी    सारा    जहान   बाक़ी   है

ले    गए    दिल    हरीफ़    सदक़े   में
नाम-भर    को    निशान    बाक़ी   है

ख़ुदकुशी    में    मज़ा    नहीं    आया
और    कुछ    इम्तेहान      बाक़ी   है ? !

                                               ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़लज़ला: भूकंप, प्राकृतिक प्रकोप; रिज़्क़: दो समय का भोजन; दिल -ए- मेज़बान: आतिथ्य-कर्त्ता का हृदय; असलहा: अस्त्र-शस्त्र; ज़ालिम: अत्याचारी; हिम्मत -ए- नातवान: निर्बल का साहस;  ज़मीं -ए- ख़ुदा: ईश्वर की भूमि, प्रकृति-प्रदत्त भूमि; क़ाबिज़: अधिकार जमाए; दुश्मन-ए-इश्क़: प्रेम के शत्रु; जिस्मे-आशिक़:प्रेमी का शरीर; ग़ालिब: 19वीं शताब्दी के महान उर्दू शायर; हस्ती: व्यक्तित्व एवं कृतित्व; हरीफ़: शत्रु (प्रेमी); सदक़ा: न्यौछावर; ख़ुदकुशी: आत्महत्या।

सोमवार, 27 मई 2013

होशमंदी - ए - इश्क़

आज  फिर   ग़म  ग़लत  किया  जाए
और     दो-चार    दिन    जिया   जाए

यूं   किसी   दिल   का   ऐ'तबार  नहीं
दे   रहे   हैं    तो     रख   लिया   जाए

होशमंदी - ए - इश्क़      वाहिद      है
जान   कर   भी   ज़हर   पिया   जाए

चाक   दामन  हो   तो   रफ़ू   कर  लें
चाक  दिल  किस  तरह  सिया  जाए

सिर्फ़      ईमान      मांगते    हैं     वो:
सोचते    हैं    के:    दे    दिया    जाए !

                                               ( 2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: होशमंदी-ए-इश्क़: प्रेम की संचेतना; वाहिद: विलक्षण; चाक  दामन: फटा हुआ वस्त्र।