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रविवार, 8 सितंबर 2013

तूफ़ां कहां ठहरते हैं ?

लोग  न  जाने    क्या  क्या    बातें  करते  हैं
हम  तो  लब  की  ज़ुम्बिश  से  भी  डरते  हैं

तंज़ीमें    मज़हब  को    खेल    समझती  हैं
जाहिल  इन्सां    आपस  में   लड़  मरते  हैं

हम  मुफ़लिस  तो   ईंधन  हैं   सरमाए  का
ज़िंदा     रहने     का     जुर्माना     भरते  हैं

बेबस  अक्सर    चट्टानी  दिल    रखते  हैं
अपने     आगे     तूफ़ां     कहां    ठहरते  हैं

ज़र्फ़  समंदर  का  जब  भी  कम  होता  है
साहिल  के    सीने  पे     क़हर  गुज़रते  हैं  !

                                                          ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: लब की ज़ुम्बिश: होंठ की थिरकन; तंज़ीमें: राजनैतिक दल, संगठन; मज़हब: धर्म; जाहिल: अनपढ़, अल्प-बुद्धि; 
मुफ़लिस: निर्धन; सरमाए: पूँजी; जुर्माना: अर्थ-दण्ड; ज़र्फ़: गहराई, धैर्य; साहिल: तटबंध। 

शनिवार, 7 सितंबर 2013

रुख़ बदल ही गया ...

ज़ब्त    करते  हैं   मुस्कुराते  हैं
हिज्र  में   भी   वफ़ा  निभाते  हैं

हम  किसी  को  दग़ा  नहीं  देते
सब  यही    फ़ायदा    उठाते  हैं

ख़ाक़  हो  जाएं  तो   होने  दीजे
आप  ही   तो    हमें  जलाते  हैं

हम   हक़ीक़त-पसंद   हैं  यारों
वक़्त  को   आइना  दिखाते  हैं

नींद  आने   लगी    हमें  जबसे 
ख़्वाब आ-आ  के लौट  जाते  हैं

रुख़ बदल ही गया  हवाओं  का
रूठ  के    वो:    हमें  मनाते  हैं

जिसको बंदों की फ़िक्र होती  है
हम  उसी  को   ख़ुदा  बताते  हैं  !

                                         ( 2013 )

                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ब्त: संयम; हिज्र: वियोग; वफ़ा: आस्था; दग़ा: धोखा; ख़ाक़: राख;  हक़ीक़त-पसंद: यथार्थवादी;  
 मुद्द'आ: विवाद का विषय; रुख़: दिशा;  बंदों: भक्तों। 

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

ख़्वाब बेसहारे हैं !

दोस्त    यूं    तो    कई    हमारे  हैं
आप   लेकिन   सभी  से  प्यारे  हैं

आज  फिर  नींद  ने  फ़रेब  किया
आज  फिर    ख़्वाब     बेसहारे  हैं

चोट    गहरी   हुई  सी    लगती  है
तीर  ये:  किस   नज़र  ने  मारे  हैं

लोग    वो:    ख़ुशनसीब    हैं  सारे
जो    ग़मे-ज़ीस्त    के   सहारे  हैं

हमको  तारीकियां  मिटा   न  सकीं
हम   फ़क़त   रौशनी  से   हारे  हैं

आपकी    हर  निगाह   के  सदक़े
क़र्ज़      हमने     कई    उतारे  हैं

शुक्रे-अल्लाह     मौत     आई  है
मेरे  अश'आर   अब   तुम्हारे  हैं !

                                             ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़रेब: छल; जीवन-दुःख; तारीकियां: अंधकार; फ़क़त: मात्र;  सदक़े: न्यौछावर; शुक्रे-अल्लाह: अल्लाह की कृपा; 
अश'आर: शे'र का बहुवचन। 

ख़ुदा को जवाब ?

दर्द   देंगे    वो:    या      दवा  देंगे
हम  तो  हर  हाल  में  निभा  देंगे

आज  नूरे-नज़र  हैं  हम  जिनके
कल  वही    आंख  से   गिरा  देंगे

कौन  जाने  के:  क्या  करेंगे  हम
वो:  अगर   बज़्म  से     उठा  देंगे

रफ़्ता-रफ़्ता  करें  वो:  क़त्ल  हमें
नफ़्स  दर  नफ़्स   हम   दुआ  देंगे

हम  तभी     ख़ूं-बहा     करेंगे  तय
आप    जिस   रोज़    मुस्कुरा  देंगे

बस  वज़ारत  उन्हें  मिली  समझो
रिश्तेदारों       को      फ़ायदा   देंगे

हम  ख़िलाफ़त  अगर  करें  दिल  की
तो  ख़ुदा  को    जवाब    क्या  देंगे ?!

                                               ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नूरे-नज़र: दृष्टि; बज़्म: सभा, महफ़िल; रफ़्ता-रफ़्ता: धीमे-धीमे; नफ़्स दर नफ़्स: हर सांस में;   
ख़ूं-बहा  : प्राणों का मूल्य, वध-मूल्य;   वज़ारत: मंत्रि-पद;  ख़िलाफ़त: विरोध। 

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

रहम होता अगर ...

ख़ुदा  को  थी   शिकायत    तो  हमें  बतला  नहीं  देते
हमें  ज़ाहिद  के  घर  का    रास्ता  दिखला  नहीं  देते

हमारी  फ़िक्र  थी  तो  तुम  हमारा  ग़म  समझ  लेते
बहानों  से  हमें   तुम    इस  तरह    बहला  नहीं  देते

ज़रा  सा    दर्द  था    नज़रें  मिला  के    दूर  कर  देते
नक़ब  में    मुंह  छुपा  के    यूं  हमें  टहला  नहीं  देते

बड़े  मुर्शिद  बना  करते  हो    ये:  भी  हम  ही  समझाएं
के:  सर  पे  हाथ  रख  के    क्यूं  ज़रा   सहला  नहीं  देते

ग़लत  थे  हम  अगर   तो  भी तुम्हारा  फ़र्ज़  बनता  था
हमें    दिल  से  लगा  के    प्यार  से    समझा  नहीं  देते

गए   हम   जब   ख़ुदा   के   घर    हमारे  हाथ   ख़ाली  थे
रहम  होता  अगर  दिल  में  तो  वो:  क्या-क्या  नहीं  देते !

                                                                              ( 2013 )

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ज़ाहिद: धर्मोपदेशक; नक़ब: नक़ाब, मुखावरण; मुर्शिद: धर्म-गुरु, पीर; फ़र्ज़: कर्त्तव्य; रहम: दया।

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

शाह को नज़ला !

नए   अहद     नई   वफ़ा     तलाश    करते  हैं
रहे-अज़ल    नया   ख़ुदा     तलाश    करते  हैं

यहां  की   आबो-हवा   अब   हमें  मुफ़ीद  नहीं
नई   सहर     नई   सबा     तलाश     करते  हैं

मेरे    हबीब   दुश्मनों  से   मिल  गए    शायद
मेरे     ख़िलाफ़    मुद्द'आ    तलाश    करते  हैं

मुहब्बतों  के   शहर  में    जिया  किए    तन्हा
सफ़र   के    वास्ते     दुआ    तलाश  करते  हैं

बना   लिया   है   तेरा  नाम   तख़ल्लुस  हमने
तेरे   लिए    भी     मर्तबा    तलाश    करते  हैं

ज़रा  सी   देर   कहीं   ख़ुद  से   रू-ब-रू   हो  लें
भरे   शहर   में    तख़्लिया   तलाश   करते  हैं

हुआ  है  शाह  को  नज़ला  अजब  मुसीबत  है
तबीबे-दो जहां      दवा      तलाश      करते  हैं !   

                                                              ( 2013 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  अहद: संकल्प;  वफ़ा: निर्वाह करने वाले; रहे-अज़ल: मृत्यु का मार्ग; आबो-हवा: हवा-पानी, पर्यावरण; मुफ़ीद: लाभदायक;  
सहर: उषा; सबा: ठंडी पुरवाई;  हबीब: प्रिय-जन; ख़िलाफ़: विरुद्ध; मुद्द'आ: बिंदु, विवाद का विषय; तख़ल्लुस: कवि या शायर का उपनाम; मर्तबा: पदवी;  रू-ब-रू: साक्षात्कार; तख़्लिया: एकांत; नज़ला: सर्दी-ज़ुकाम; तबीबे-दो जहां: दोनों लोक- इहलोक, परलोक के चिकित्सक।           

शराफ़त की हद !

हम  तेरे  ख़्वाब  में  जब  से  आने  लगे
दोस्त     हम  से    निगाहें   चुराने  लगे

दी  हमीं ने  तुम्हें  दिलकशी  की  नज़र
तुम  हमीं  को    निशाना    बनाने  लगे

यार, ये:  तो  शराफ़त  की  हद  हो  गई
फिर    हमें    छेड़  के    मुस्कुराने  लगे

बेवक़ूफ़ी   हुई    जो   उन्हें   दिल  दिया
वो:      हमारा   तमाशा      बनाने  लगे

हाथ   पकड़ा   नहीं  था   अभी  ठीक  से
ज़ोर     सारा    लगा   के    छुड़ाने  लगे

शे'र  कहने  का  हमसे  हुनर  सीख  के
बुलबुलों   की    तरह    चहचहाने  लगे

ये:   असर  है  हमारा   के:  बस  बेख़ुदी
वो:    हमारी   ग़ज़ल    गुनगुनाने  लगे

                                               ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दिलकशी: चिताकर्षण; हुनर: कौशल; बेख़ुदी: आत्म-विस्मरण।