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शनिवार, 9 अप्रैल 2016

अब्र ख़ामोश हैं...

बात  बनती  बिगड़ती  चली  जाएगी
दिल  गया  तो  लबों  की  हंसी  जाएगी

सर  झुका  कर  मिले  दिल  तो  तय  मानिए
शर्त्त  कल  ख़ुदकुशी  की  रखी  जाएगी

सिर्फ़  ईमां  नहीं  जाएगा  हाथ  से
साथ  में  रूह  की  रौशनी  जाएगी

अब्र  ख़ामोश  हैं  और  गुल  ख़ुश्क़  लब
देखिए  किस  तरह  तिश्नगी  जाएगी

आस्मां  भी  सियासत  दिखाने  लगा
चांद  घर  आए  तो  चांदनी  जाएगी

आज  मेहनतकशों  का  बुरा  वक़्त  है
कल  ये  दुनिया  दोबारा  गढ़ी  जाएगी

रिज़्क़  की  भीख  मत  लीजिए  शाह  से
आपसे  क्या  हतक  यह  सही  जाएगी  ?

                                                                            (2016)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: लबों : ओष्ठाधर ; ख़ुदकुशी : आत्म-हत्या ; ईमां : आस्था, निष्ठा ; रूह : आत्मा ; रौशनी : प्रकाश ; अब्र : मेघ ; ख़ामोश : मौन ; गुल : पुष्प ; ख़ुश्क़ : शुष्क ; तिश्नगी : सुधा ; आस्मां : आकाश, ईश्वर ; सियासत : कूटनीति ; मेहनतकशों : श्रमिकों ; रिज़्क़ : भोजन, आजीविका ; हतक : अपमान ।

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

ख़ुद्दारिए-अवाम...

अल्लाह  जानता  था  कि  बंदा  ग़रीब  है
फिर  क्या  वजह  है  आज  तलक  कमनसीब  है

ख़ुद्दारिए-अवाम  तरक़्क़ी  में  बिक  गई
फ़ाक़ाकशी  के  डर  से  परेशां  अदीब  है

बादे-सबा  है  चंद  अमीरों  की  क़ैद  में
सबको  ख़बर  है  कौन  गुलों  का  रक़ीब  है

दुश्वारियों  का  ज़िक्र  ज़ुबां  तक  न  आ  सके
साज़िश  निज़ाम  की  है  कि  अपना  नसीब  है

दिल  लूटना  सवाब  तो  दिल  मांगना  गुनाह
दुनिया-ए-इश्क़  का  ये  क़ायदा  अजीब  है

थामा  था  जिसने  हाथ  बड़े  एतबार  से
वो  शख़्स  वक़्ते-मर्ग़  भी  दिल  के  क़रीब  है

क्या  सोज़  है  कि  सब दरख़्त  झूमने लगे
तेरी अज़ां  है  या  सदा-ए-अंदलीब  है  !

                                                                                        (2016)

                                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बंदा : सेवक, भक्त ; कमनसीब : अल्प-भाग्य ; ख़ुद्दारिए-अवाम : नागरिकों का स्वाभिमान ; तरक़्क़ी : प्रगति, विकास ; फ़ाक़ाकशी : भुखमरी ; अदीब : साहित्यकार ;  बादे-सबा : प्रभात समीर ; गुलों : पुष्पों ; रक़ीब : शत्रु ; दुश्वारियों : कठिनाइयों ; ज़िक्र : उल्लेख ; ज़ुबां : जिव्हा ; साज़िश : षड्यंत्र ; निज़ाम : शासन-व्यवस्था, सरकार ; नसीब : प्रारब्ध ; सवाब : पुण्य ; गुनाह : पाप, अपराध ; दुनिया-ए-इश्क़ : प्रेम-संसार ; क़ायदा : नियम ; ऐतबार : विश्वास ; शख़्स : व्यक्ति ; वक़्ते-मर्ग़ : मृत्यु के समय ; सोज़ : स्वर-माधुर्य ; दरख्त : वृक्ष ; अज़ां : अज़ान ; सदा-ए-अंदलीब : कोयल की पुकार।  

सोमवार, 4 अप्रैल 2016

बग़ावत वक़्त से

सच  बताएंगे  भला  हुक्काम  क्या
तय  नहीं  हम  पर  रखें  इल्ज़ाम  क्या

जान  कर  की  है  बग़ावत  वक़्त  से
इब्तिदाए-जंग  क्या  अंजाम  क्या

दांव  पर  फ़तवे  नहीं  अब  क़ौम  है
फिर  पढ़ें  मुफ़्ती  कि  है  इस्लाम  क्या

क़द्रदां  को  हर  ख़ज़ाना  हेच  है
बोलिए  बादे-सबा  के  दाम  क्या

आप  मेहमां  हो  गए  सब  मिल  गया
दिलनवाज़ी  से  बड़ा  ईनाम  क्या

एक  मंज़िल  एक  मक़सद  एक  रू:
इश्क़  है  तो  गर्दिशे-अय्याम  क्या

और  क्या  तोहमत  लगाएगा  ख़ुदा
शायरों  का  नाम  क्या  बदनाम  क्या  !

                                                                                (2016)

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : हुक्काम : शासक वर्ग, अधिकारी गण ; इल्ज़ाम : आरोप ; बग़ावत : विद्रोह ; इब्तिदाए-जंग : युद्ध का आरंभ ; अंजाम : परिणति ; फ़तवे : धार्मिक निर्देश ; क़ौम : धर्मानुयायी ; मुफ़्ती : धार्मिक निर्देश देने वाले ; क़द्रदां : मूल्य समझने वाले, पारखी ; ख़ज़ाना : कोश ;  हेच : तुच्छ , अपर्याप्त ; बादे-सबा : प्रभात समीर ; दाम : मूल्य ; दिलनवाजी : दूसरे के मन की मानना, मन रखना ; ईनाम : पुरस्कार ; मंज़िल : लक्ष्य ; मक़सद : उद्देश्य ; रू: : आत्मा ; गर्दिशे-अय्याम: काल-चक्र, समय का भटकाव ; तोहमत : कलंक ।

बग़ावत वक़्त से

बग़ावत वक़्त से

सच  बताएंगे  भला  हुक्काम  क्या
तय  नहीं  हम  पर  रखें  इल्ज़ाम  क्या

जान  कर  की  है  बग़ावत  वक़्त  से
इब्तिदाए-जंग  क्या  अंजाम  क्या

दांव  पर  फ़तवे  नहीं  अब  क़ौम  है
फिर  पढ़ें  मुफ़्ती  कि  है  इस्लाम  क्या

क़द्रदां  को  हर  ख़ज़ाना  हेच  है
बोलिए  बादे-सबा  के  दाम  क्या

आप  मेहमां  हो  गए  सब  मिल  गया
दिलनवाज़ी  से  बड़ा  ईनाम  क्या

एक  मंज़िल  एक  मक़सद  एक  रू:
इश्क़  है  तो  गर्दिशे-अय्याम  क्या

और  क्या  तोहमत  लगाएगा  ख़ुदा
शायरों  का  नाम  क्या  बदनाम  क्या  !

                                                                                (2016)

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 


शब्दार्थ : हुक्काम : शासक वर्ग, अधिकारी गण ; इल्ज़ाम : आरोप ; बग़ावत : विद्रोह ; इब्तिदाए-जंग : युद्ध का आरंभ ; अंजाम : परिणति ; फ़तवे : धार्मिक निर्देश ; क़ौम : धर्मानुयायी ; मुफ़्ती : धार्मिक निर्देश देने वाले ; क़द्रदां : मूल्य समझने वाले, पारखी ; ख़ज़ाना : कोश ;  हेच : तुच्छ , अपर्याप्त ; बादे-सबा : प्रभात समीर ; दाम : मूल्य ; दिलनवाजी : दूसरे के मन की मानना, मन रखना ; ईनाम : पुरस्कार ; मंज़िल : लक्ष्य ; मक़सद : उद्देश्य ; रू: : आत्मा ; गर्दिशे-अय्याम: काल-चक्र, समय का भटकाव ; तोहमत : कलंक ।

शनिवार, 2 अप्रैल 2016

शर्मसार हो गए !

खुल  कर  अज़ान  दी  तो  गिरफ़्तार  हो  गए
ख़ामोश    भी    रहे    तो    गुनहगार  हो  गए

मक़्तूल  के    अज़ीज़    सलाख़ों  में    क़ैद  हैं
क़ातिल    फ़रेब  करके     ताजदार    हो  गए

जिन पर  यक़ीन था  कि वो  हक़ बात  कहेंगे
अब  वो  भी   क़ातिलों  से  शर्मसार   हो  गए

मैदान  का  शऊर     न   रफ़्तार  पर     पकड़
मा'फ़िक़  हवा  चली   तो   शहसवार   हो  गए

जिनकी  दुआ  से   क़ब्र    मयस्सर   हुई  हमें
बेजान      हमें    देख      बेक़रार        हो  गए

लगता  न था  कि  आएंगे  वो  बज़्म में  कभी
लेकिन  वो    इक  सदा  पे    नमूदार  हो  गए

क़ारीन     इत्र  ले  के     चले  आए    साथ  में
अश्'आर  मेरे    इस  क़दर    बीमार  हो  गए !

                                                                                        (2016)

                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:   गुनहगार : अपराधी; मक़्तूल : मृतक, वधित ; अज़ीज़: प्रियजन, संबंधी ; क़ातिल : हत्यारा/रे ; फ़रेब : छल ; ताजदार : मुकुटधारी, शासक ; यक़ीन : विश्वास ; हक़ बात :सत्य साक्ष्य, शर्मसार: लज्जित; क़ब्र :समाधि; मयस्सर : प्राप्त , उपलब्ध ; बेजान : निष्प्राण ; बेक़रार : व्यथित, विचलित ; बज़्म : सभा, यहां मस्जिद ; सदा : आव्हान ; नमूदार : सशरीर प्रकट, उपस्थित ; क़ारीन : पाठक गण ; इत्र : सुगंधि ; अश्'आर : शे'र का बहुव., छंद-पद ।

गुरुवार, 31 मार्च 2016

दुआओं में प्यार

हम  हैं   तो   आस्मां  है    ज़मीं  है    बहार  है
हम  हैं  तो  नज़्रे-हुस्न  में  शामिल  ख़ुमार  है

हम  हैं  तो  उन्हें    इश्क़  प'  भी   एतबार  है
हम  हैं  तो  दिल   जनाब  का   बेरोज़गार  है

हम  हैं  तो  कोई     आपका    उम्मीदवार  है
हम  हैं  तो  और   कौन   मह् वे-इंतज़ार    है

हम  हैं  तो  आज  वक़्त  को   सब्रो-क़रार  है
हम  हैं  तो  लम्हा-लम्हा  महकता  मदार  है

हम  हैं  तो    आसपास   गुलों  की   क़तार  है
हम  हैं  तो      ख़ुश्बुए-गुलाब      बरक़रार  है

हम  हैं  तो     बाग़ियों  की  तेग़     धारदार  है
हम  हैं  तो  ख़ौफ़  शाह  के  सर  पर  सवार है

हम  हैं  तो  सफ़ में ज़र्फ़  दुआओं में  प्यार  है
हम  हैं  तो  हर      नमाज़े-शह्र     यादगार  है  !

                                                                                  (2016)

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आस्मां : आकाश, देवत्व ; ज़मीं : पृथ्वी, देवत्व ; नज़्रे-हुस्न : सौंदर्य-दृष्टि ; ख़ुमार : मदिरता ; प' : पर ; एतबार : विश्वास ; 
जनाब : श्रीमान ; मह् वे-इंतज़ार: प्रतीक्षा में व्यस्त ;  सब्रो-क़रार : धैर्य एवं आश्वस्ति ; लम्हा-लम्हा : क्षण-क्षण ; मदार : भ्रमण-मार्ग ; 
क़तार : पंक्ति, क्यारी ;   बरक़रार : शेष ; बाग़ियों : विद्रोहियों ; तेग़ : खड्ग ; ख़ौफ़ : भय ; सफ़ : नमाज़ पढ़ने वालों की पंक्ति ; ज़र्फ़ : गहनता , गंभीरता ; दुआओं : शुभाकांक्षाओं ; नमाज़े-शह्र : नगर की नमाज़ ; यादगार : स्मरणीय ।

बुधवार, 30 मार्च 2016

हौसला बाग़ियों का ...

वो  सुलगते  रहें  हम  बुझाते  रहें
दोस्त  क्यूं  आग  ऐसी  लगाते  रहें

इश्क़  को  क़र्ज़  कहना  मुनासिब  नहीं
पर  मिले  जो  उसे  तो  चुकाते  रहें

मुश्किलें  एक  मामूल  हैं  ज़ीस्त  का
क्यूं  न  फिर  मुस्कुरा  कर  निभाते  रहें

हुब्ब  है  या  शरारत  नई  आपकी
वस्ल  में  भी  अगर  याद  आते  रहें

है  अदा  सर  झुकाना  अगर  आपकी
शौक़  से  चोट  पर  चोट  खाते  रहें

ज़ार  से  जीतना  सब्र  का  खेल  है
हौसला  बाग़ियों  का  बढ़ाते  रहें

कोई  उम्मीद  हो  तो  इबादत  करें
मुफ़्त  में  क्यूं  ख़ुदा  को  मनाते  रहें !

                                                                          (2016)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : मुनासिब : उचित ; मामूल : साधारण चर्या ; ज़ीस्त : जीवन ; हुब्ब : प्रेम ; वस्ल : मिलन ; ज़ार : अत्याचारी, निरंकुश शासक ; सब्र : धैर्य ; हौसला : उत्साह ; बाग़ियों : विद्रोहियों ; इबादत : पूजा-पाठ ।