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बुधवार, 16 दिसंबर 2015

मुहब्बत की मार...

हर  वक़्त  सर  पे  इश्क़  का  साया  सवार  हो
तो  ख़ाक  आशिक़ों  को  फ़िक्रे-रोज़गार  हो  !

शीरीं  निगाह  से  न  देखिए  हमें  मियां
तलवार  थामिए  तो  ज़रा  धारदार  हो

जो  नफ़्रतों  की  आग  लगाने  में  हैं  महव
अल्लाह  करे  उनपे  मुहब्बत  की  मार  हो

कमतर  ज़राए  माश  कहीं  जुर्म  नहीं  हैं
क्यूं  शायरे-ग़रीब  यहां  शर्मसार  हो

मुफ़लिस  थे  हम  तो  आप  गुज़ारा  न  कर  सके
ले  आइए  रक़ीब  जो  सरमाय:दार  हो

ऐ  ताइरे-उमीद  अभी  अलविदा  न  कह
शायद  यहीं  नसीब  में  फ़स्ले-बहार   हो

चलते  हैं  सैर  करके  देखते  हैं  अर्श  की
शायद  वहां  हमारा  कहीं  इंतज़ार  हो  !

                                                                                            (2015)

                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इश्क़ का साया: प्रेम का भूत; ख़ाक: व्यर्थ; फ़िक्रे-रोज़गार:आजीविका की चिंता; शीरीं  निगाह: मीठी दृष्टि; नफ़्रतों:घृणाओं; महव: व्यस्त; कमतर:न्यून, हीनतर;  ज़राए माश: आजीविका/आय के साधन; जुर्म: अपराध; शायरे-ग़रीब: निर्धन शायर, निर्धनों का शायर; शर्मसार: लज्जित, अपमानित; मुफ़लिस: धनहीन;
गुज़ारा: निर्वाह; रक़ीब: प्रतिद्वंद्वी;  सरमाय:दार:पूंजीपति, समृद्ध; ताइरे-उमीद: आशाओं के पक्षी; अलविदा :अंतिम प्रणाम;   नसीब:प्रारब्ध; फ़स्ले-बहार: पूर्ण बसंत; अर्श:आकाश।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

मेरे ख़्वाब भी तो...

मेरे  पास  भी  कभी  वक़्त  था  किसी  मरहले  पे  ठहर  गया
तेरा  ख़्वाब  था  मेरा  हमसफ़र  मेरी  बेख़ुदी  से  बिखर  गया

मेरे   दिल  में  भी  कई  ज़ख़्म  हैं  मैं  कहूं  किसी  से  तो  क्या  कहूं
मेरा  दिलनशीं  जो  रहा  कभी  वो  जगह  से  अपनी  उतर  गया

मेरे  ख़्वाब  भी  तो  कमाल  हैं  रहे  पेश  पेश  नसीब  से
शबे-हिज्र  कोई  लिपट  गया  शबे-वस्ल  कोई  मुकर  गया

कभी  दिल  कहीं  पे  अटक  गया  कहीं  चश्म  ही  धुंधला  गई
कभी  ज़ेह्न  जो  गया  हाथ  से  तो  मेरी  दुआ  का  असर  गया

मैं  खड़ा  हूं  ऐसे  मक़ाम  पर  जहां  ताजो-तख़्त  अहम  नहीं
किसी  ख़ास  शै  का  मलाल  क्या जो  गुज़र  गया  सो  गुज़र  गया

वो   तरह  तरह  की  अलामतें  वो  तरह  तरह  के  सुकूं-ओ-ग़म
हुई  मुझपे  इतनी  नियामतें  मैं  ख़ुदा  के  नाम  से   डर  गया

हुआ  पीर  से  जो  मैं  रू-ब-रू  मैंने  घर  ख़ुशी  से  जला  लिया
मुझे  मिल  गया  मेरा  रास्ता  मैं  बिखर  गया  तो  संवर  गया !

                                                                                                              (2015)

                                                                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मरहले: पड़ाव; बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति; दिलनशीं: हृदय में विराजित; कमाल:विशिष्ट; पेश -पेश:आगे-आगे; नसीब: भाग्य; शबे-हिज्र: विरह-निशा; शबे-वस्ल: मिलन-निशा; ज़ेह्न: मस्तिष्क, विवेक; मक़ाम: विशिष्ट स्थान; ताजो-तख़्त: मुकुट और राजासन; अहम: महत्वपूर्ण; शै:वस्तु, व्यक्ति; मलाल: खेद; अलामतें:समस्याएं, कठिनाइयां; सुकूं-ओ-ग़म: संतोष और दुःख; नियामतें: (ईश्वरीय) कृपाएं; पीर: गुरु; रू-ब-रू:समक्ष ।

रविवार, 13 दिसंबर 2015

ख़्वाहिशों की किताब...

नर्मो-नाज़ुक   गुलाब    है  उर्दू
सादगी   का    सवाब     है  उर्दू

हसरतों   का   हिसाब   है  उर्दू
ख़्वाहिशों  की  किताब  है  उर्दू

कोई  चंग़ेज़   कोई  हिटलर  हो
ज़ुल्मतों   का   जवाब   है  उर्दू

क़स्रे-उम्मीद  की  दुआ  जैसी
ख़्वाबे -ख़ाना ख़राब    है  उर्दू

पी  के  मसरूर  हैं  इबादत  में
मोमिनों   की   शराब   है  उर्दू

ख़ू-ए-ख़ुसरो से रूहे-ग़ालिब तक
शायरी   का    शबाब    है  उर्दू

कमनसीबों  से  पूछ  कर  देखो
दर्द    का     इंतेख़ाब     है  उर्दू  !

                                                            (2015)

                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नर्मो-नाज़ुक: कोमल एवं क्षणभंगुर; सादगी: शालीनता; सवाब: पुण्य; हसरतों: अभिलाषाओं; ख़्वाहिशों: इच्छाओं; चंग़ेज़: मध्य युग का एक मंगोल आक्रमणकारी, अत्याचारी शासक; ज़ुल्मतों: अत्याचारों; क़स्रे-उम्मीद: आशाओं का महल; ख़्वाबे -ख़ाना ख़राब: गृह-विहीन यायावर का स्वप्न;  मसरूर: मदालस; मोमिनों: आस्तिकों; ख़ू-ए-ख़ुसरो: 14वीं सदी के महान शायर, उर्दू के जनक की अस्मिता; रूहे-ग़ालिब: 19 वीं शताब्दी के उर्दू के महानतम शायर, हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब (के काव्य) की आत्मा; शबाब: उत्स, यौवन; कमनसीबों: भाग्यहीनों;  इंतेख़ाब: चयन।  

                                                         

शनिवार, 12 दिसंबर 2015

हम हैं ख़ानाबदोश ...



दिल  किसी  का  उधार  ले  आए
मुफ़्त  का   रोगार    ले  आए

वाद:-ए-सह्र    पर    यक़ीं  करके
हम     शबे-इंतेज़ार     ले  आए

आरज़ू-ए-फ़रेब      के      सदक़े
नफ़रतों  के     ग़ुबार    ले  आए

इंतेख़ाबात      के      तमाशे  से
मुश्किलें     बे-शुमार     ले  आए

क़र्ज़    उतरा    नहीं    बुज़ुर्ग़ों का
आप  भी    बार बार     ले  आए

दाल  औक़ात  में    थी   अपनी
सूंघने    को    अचार    ले  आए 

महफ़िले-बाद:कश    मुनक़्क़िद    थी 
शैख़     परहेज़गार        ले  आए 

आए  जब  वो  तो  चश्म  ख़ाली  थे 
रफ्त: रफ्त:     ख़ुमार     ले  आए 

हम  हैं     ख़ानाबदोश     मुद्दत  से 
लोग   घर   में   बहार     ले  आए

शह्रे-ग़ालिब    सुकूं     दे    पाया
दर्दे-सर     हम    हज़ार    ले  आए !

                                         (2015)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रोगार:व्यवसाय, आजीविका, व्यस्तता; वाद:-ए-सह्र: नव प्रातः का वचन; यक़ीं:विश्वास;  शबे-इंतेज़ार:प्रतीक्षा की निशा;  शबे-इंतेज़ार:छल/षड्यंत्रपूर्ण अभिलाषा; सदक़े:बलिहारी जाना; नफ़रतों:घृणाओं; ग़ुबार:अंधड़; इंतेख़ाबात:चुनावों; तमाशे: नाट्य, प्रदर्शन; मुश्किलें: कठिनाइयां;   बे-शुमार:असंख्य; क़र्ज़:ऋण; बुज़ुर्ग़ों:पूर्वजों; औक़ात:सामर्थ्य; महफ़िले-बाद:कश:पियक्कड़ों की गोष्ठी; मुनक़्क़िद:आयोजित; शैख़:धर्मभीरु; परहेज़गार:अपथ्य का अभ्यास करने वाला; चश्म:नयन; ख़ाली: रिक्त; रफ्त: रफ्त:: धीरे धीरे; ख़ुमार: मदालस्य; ख़ानाबदोश: गृह-विहीन; मुद्दत: लंबा समय; बहार: बसंत; शह्रे-ग़ालिब: उर्दू के महानतम शायर हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब का नगर, दिल्ली; सुकूं: आश्वस्ति; दर्दे-सर: शिरो-पीड़ा।   



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गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

...आसां नहीं हूं मैं !

नाकामिए-हयात    पे     हैरां  नहीं  हूं  मैं
वैसे  भी  तेरे  ज़र्फ़  का  पैमां  नहीं  हूं  मैं

शक़  क्यूं  न  हो  मुझे  कि  तू  मेरा  ख़ुदा  नहीं
गर  तू  ये  सोचता  है  कि  इंसां  नहीं  हूं  मैं

शायर  हूं  दिलनवाज़   हूं   पुख़्ता ख़याल  हूं
फिर  भी  किसी  के  ख़्वाब  का  मेहमां  नहीं  हूं  मैं

तू  ख़द्दो-ख़ाल  से  कोई  बेहतर  ख़्याल  ला
ग़ुस्ताख़  तिफ़्ले-हुस्न  का  अरमां  नहीं  हूं  मैं

ज़ाया  न  कर  समझ  को  समझने  में  यूं  मुझे
इस  उम्र  के  लिहाज़  से  आसां  नहीं  हूं  मैं

सज्दा  करूं  करूं  न  करूं  सोच  रहा  हूं
चल  मान  ले  कि  साहिबे-ईमां  नहीं  हूं  मैं

नन्ही-सी  इक  ख़ुशी  हूं  मुझे  शुक्रिया  न  कह
दिल  पर  किसी  ग़रीब  के  एहसां  नहीं  हूं  मैं !

                                                                                         (2015)

                                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नाकामिए-हयात: जीवन की असफलताओं; हैरां: चकित, विस्मित; तेरे: यहां, ईश्वर के; ज़र्फ़ : सामर्थ्य, गांभीर्य; पैमां: मापक; गर: यदि; दिलनवाज़: भावनाओं का सम्मान करने वाला ; पुख़्ता ख़याल: पुष्ट/ठोस विचारों वाला ; ख़्वाब: स्वप्न; मेहमां : अतिथि; ख़द्दो-ख़ाल: शारीरिक सौंदर्य; ग़ुस्ताख़: उद्दंड; तिफ़्ले-हुस्न: सुंदर बच्चे; अरमां: आकांक्षा; ज़ाया: व्यर्थ; उम्र:आयु, समय, काल-खंड; लिहाज़ : अनुसार; आसां : सरल; सज्दा: भूमि पर मस्तक टिकाना; साहिबे-ईमां : आस्थावान, आस्तिक; ग़रीब: निर्धन, असहाय; एहसां : अनुग्रह।

बुधवार, 9 दिसंबर 2015

बलवा कहीं हुआ...

बरसों  के  बाद  आंख  समंदर  से  मिली  थी
क़िंदील  जैसे  माहे-मुनव्वर  से  मिली  थी

बलवा  कहीं  हुआ  तो  कहीं  आए  ज़लज़ले
जिस  दिन  मेरी  तहरीर  तेरे  घर  से  मिली  थी

पेशानिए-हयात  की  सलवट  न  पूछिए
ठोकर  हमें  ये  आपके  ही  दर  से  मिली  थी

क़ातिल ! भुला  के  देख  वही   बद्दुआ  कि  जो
मक़्तूल  की  सदाए-चश्मे-तर  से  मिली  थी

 सैलाबे-ग़म  से  आप  परेशां  न  होइए
जीने  की  अदा  नूह  को  महशर  से  मिली  थी

अय  काश  !  हमें  कोई  बिठा  दे  उसी  जगह
गर्दन  जहां  हुसैन  की   ख़ंजर  से  मिली  थी

जिस  रात  कोहे-तूर  कोहे-नूर  हो  गया
वो  रात  फ़क़ीरों  को  मुक़द्दर  से  मिली  थी  !

                                                                                     (2015)

                                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: समंदर : समुद्र; क़िंदील : आकाशदीप; माहे-मुनव्वर: उज्ज्वल चंद्रमा, पूर्ण चंद्र; बलवा : दंगा, उपद्रव; ज़लज़ले: भूकंप (बहुव.); तहरीर : हस्तलिपि में लिखित पत्र; पेशानिए-हयात : जीवन-रूपी शरीर का मस्तक; दर: द्वार; क़ातिल : (ओ) हत्यारे; बद्दुआ : श्राप; मक़्तूल : हत् व्यक्ति; सदाए-चश्मे-तर : भीगे नयनों का निवेदन, कातर दृष्टि; सैलाबे-ग़म : दुःखों की बाढ़; परेशां: चिंतित, व्याकुल; अदा : शैली; नूह: इस्लाम में हज़रत नूह, ईसाइयत में हज़रत नोहा, भारतीय मिथक शास्त्र में महर्षि मनु, जिनके संबंध में मिथक है कि उन्होंने महाप्रलय में एक विशाल नौका बना कर जीवन की संभावना को जीवित रखा; महशर: महाप्रलय; अय काश :कामना है कि; हुसैन: हज़रत इमाम हुसैन अ. स., जिन्होंने कर्बला के न्याय-युद्ध में अपने प्राणों की आहुति दी; ख़ंजर : क्षुरी; कोहे-तूर : मिथक के अनुसार, प्राचीन अरब के साम प्रांत में सीना नामक घाटी में स्थित एक कृष्ण-वर्णी पर्वत, भावांतर से अंधकार / अज्ञान का पर्वत, जहां हज़रत मूसा अ. स. को ईश्वर के प्रकाश की छटा दिखाई दी थी; कोहे-नूर: प्रकाश-पर्वत; फ़क़ीरों : संतों, यहां हज़रत मूसा अ.स.; मुक़द्दर: सौभाग्य।

मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

वहम के शिकार...

उसका  ख़्याल  यूं  तो   बहुत  पारसा  न  था
फिर  भी  कभी  नज़र  से  वो  मेरी  गिरा  न  था

मासूम  सी  निगाह  गिरी  बर्क़  की  तरह
दिल  को  मिला  वो  ज़ख़्म  कि  सोचा-सुना  न  था

ज़रयाब  क्या  हुए  कि  निगाहें  बदल  गईं
मुफ़लिस  रहे  तो  कोई   उन्हें  पूछता  न  था

जिस  शख़्स  को  जम्हूर  ने  सर  पर  बिठा  लिया
इंसानियत  से  उसका  कोई  वास्ता  न  था

क़ातिल  किसी  फ़रेबो-वहम  के  शिकार  थे
मक़तूल  के  ख़िलाफ़  कोई  मा'मला  न  था

ले  आई  मौत  आज  हमें  जिस  मक़ाम  पर
था   आस्मां  ज़रूर  वहां  पर  ख़ुदा  न  था

बेताब  लौट  आए  मदीने  में  घूम  के
जिसके  लिए  गए  थे  उसी  का  पता  न  था  !

                                                                                              (2015)

                                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: पारसा:पवित्र; मासूम: अबोध; बर्क़ : तड़ित, आकाशीय विद्युत; ज़रयाब: अचानक समृद्धि पाने वाला; मुफ़लिस : निर्धन; शख़्स: व्यक्ति; जम्हूर: लोकतंत्र, लोकतांत्रिक निर्वाचन प्रणाली, वास्ता : संबंध, लेना-देना; क़ातिल: हत्यारा/रे; फ़रेबो-वहम: छल/ षड्यंत्र और भ्रम; मक़तूल: हत् व्यक्ति, जिसका वध किया गया हो; मक़ाम: स्थल, स्थान; बेताब:व्यग्र, व्याकुल ।