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रविवार, 26 अप्रैल 2015

मैं क्या बोलूं ?

क़ह्र  से  हुक्मरां  ख़ुश  हैं,  मैं  क्या  बोलूं
परस्तारे-ख़िज़ां  ख़ुश   हैं,  मैं  क्या बोलूं

लगा  कर  दाग़  मुझ  पर  बुतपरस्ती  का
अगर  वो  मेह्रबां  ख़ुश  हैं,  मैं  क्या  बोलूं

अभी  भी    शाह  से    उम्मीद  रखते  हैं
हज़ारों  नौजवां  ख़ुश  हैं,  मैं  क्या  बोलूं

सफ़र  भटका  हुआ  है  ख़ुशनसीबी  का
अमीरे-कारवां  ख़ुश  हैं,  मैं  क्या  बोलूं

ख़ुदा  ने  छीन  ली  छत  भी  ग़रीबों  से
रईसों  के  मकां  ख़ुश  हैं,  मैं  क्या  बोलूं

हमारे  हाथ  है    परचम     बग़ावत  का
शह्र   के  बेज़ुबां  ख़ुश  हैं,  मैं  क्या  बोलूं

बचा  ली  ज़लज़ले  ने  शर्म  आंखों  की
ख़ुदा  के  राज़दां  ख़ुश  हैं,  मैं  क्या  बोलूं  ?

                                                                              (2015)

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़ह्र: आपदा; हुक्मरां: शासक गण; परस्तारे-ख़िज़ां: पतझड़ के समर्थक; दाग़: कलंक; बुतपरस्ती: व्यक्ति-पूजा; मेह्रबां: कृपालु; ख़ुशनसीबी: सौभाग्य; अमीरे-कारवां: यात्री-समूह के प्रमुख; रईसों: धनवानों; मकां: घर; परचम: ध्वज, पताका; बग़ावत: विद्रोह; शह्र: शहर, नगर; बेज़ुबां: वाणी रहित, दीन-हीन लोग;   ज़लज़ले: भूकंप; राज़दां: रहस्य जानने वाले ।

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

ख़ुदा नहीं देंगे !

'दिल न देंगे', 'दुआ नहीं देंगे'
और बतलाएं, क्या नहीं देंगे !

जान देंगे मगर करीने से
आपको मुद्द'आ नहीं देंगे

देख ली आपकी वफ़ा हमने
दिल कभी आईंदा नहीं देंगे

ख़ूब हैं चार:गर हमारे भी
दर्द देंगे, दवा नहीं देंगे

ख़्वाब की खिड़कियां खुली रखिए
क्या हमें रास्ता नहीं देंगे ?

और कुछ दें, न दें गुज़ारिश है
आप अब फ़लसफ़ा नहीं देंगे

शाह अब अर्श पर मकां कर ले
हम ज़मीं को सज़ा नहीं देंगे

बेईमां हों अगर सियासतदां
कौन-से दिन दिखा नहीं देंगे


हो सके तो हमें मिटा देखें
.खौफ़ से तो ख़ुदा नहीं देंगे !

                                                                 (2015)

                                                           -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: करीने से: व्यवस्थित रूप से; मुद्द'आ: टिप्पणी करने का अवसर, विषय; वफ़ा: निष्ठा; आईंदा: आज के बाद; चार:गर: उपचारक; गुज़ारिश: अनुरोध; फ़लसफ़ा: दर्शन, कोरे आश्वासन, झांसा; अर्श: आकाश, स्वर्ग;   मकां: आवास, गृह; ज़मीं: पृथ्वी; सज़ा: दंड; 
बेईमां: निष्ठाविहीन; सियासतदां: राजनीति करने वाले; .खौफ़: भय । 

गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

ग़ुरूर का पुतला ...

आजकल  कौन  घर  में  रहता  है
हर  दरिंदा  ख़बर  में  रहता  है

दिल  झुका  है  हुज़ूर  में  जिसके
वो  हसीं  किस  शहर  में  रहता  है

इश्क़ो-उन्सो-ख़ुलूस  का  रिश्ता
दोस्ती  की  बह् र  में  रहता  है

हक़परस्ती  शुऊर  है  जिसका
दुश्मनों  की  नज़र  में  रहता  है

शाह  है  या  ग़ुरूर  का  पुतला
किस  अना  के  असर  में  रहता  है

साथ  को  अस्लहे  ज़रूरी  हैं
शाह  किस  शै  के  डर  में  रहता  है

शान-शौकत  महज़  दिखावे  हैं
क्या  ख़ुदा  मालो-ज़र  में  रहता  है ?

                                                                  (2015)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: दरिंदा: पशु-स्वभाव वाला; हुज़ूर: सम्मान; हसीं: सुंदर, प्रिय, यहां ईश्वर; इश्क़ो-उन्सो-ख़ुलूस: प्रेम,स्नेह और आत्मीयता; बह् र: छंद; हक़परस्ती: न्याय-प्रियता; शुऊर: विवेक, समझ; ग़ुरूर: घमंड; अना: अहंकार; अस्लहे: हथियार; शै: बात, व्यक्ति; शान-शौकत: भव्यता और समृद्धि; महज़: केवल; मालो-ज़र: धन-संपत्ति। 

बुधवार, 15 अप्रैल 2015

आंसू परिंदों के ...

ख़ुदा  का  डर  दिखा  कर  रिंदगी  को  ख़ाक  कर  डाला
दयारे-मैकदा     को     शैख़   ने    नापाक     कर  डाला

कहां   वो    आईने   के    सामने   भी    सर  झुकाते  थे
कहां   बस   एक   सोहबत  ने  उन्हें  बेबाक  कर  डाला

कहा   था   दोस्तों   ने   यार   का    चेहरा   दिखाने  को
सुबूते-इश्क़    में   सीना   किसी  ने   चाक   कर  डाला

किसी   ग़ुस्ताख़   मौसम  ने    बहारों  से    दग़ा  की  है
हवाओं  ने    चमन  की  रूह    को   ख़ाशाक  कर  डाला

कहीं   मंहगाई   का   मातम   कहीं   ईमान   की   ईज़ा
फ़रेबे-शाह    ने  हर  शख़्स   को   चालाक    कर  डाला

कभी    देखे   किसी   ने   आंख   में   आंसू    परिंदों  के 
किसी   सय्याद  ने   परवाज़  को  ग़मनाक  कर  डाला

कहां   से   ताब   लाए   वो   तुम्हारे   नूर   की   या  रब
शराबे-शौक़   ने   जिसका   जिगर  कावाक  कर  डाला  !

                                                                                                (2015)

                                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रिंदगी: मद्यपान की प्रवृत्ति, ललक; ख़ाक: राख़, भस्म; दयारे-मैकदा: मदिरापान का पवित्र स्थान;  शैख़: धर्मोपदेशक; नापाक: अपवित्र; सोहबत: संगति, मिलन; बेबाक: निर्भय,निर्लज्ज; सुबूते-इश्क़: प्रेम का प्रमाण; सीना: वक्ष-स्थल; चाक: चीरना; ग़ुस्ताख़: उद्दंड; दग़ा: छल; चमन: उपवन; रूह: आत्मा;   ख़ाशाक: कूड़ा, व्यर्थ, निकृष्ट; मातम: शोक; ईमान की ईज़ा: धर्म-संकट; फ़रेबे-शाह: शासक का छल; शख़्स: व्यक्ति;   परिंदों: पक्षियों; सय्याद: बहेलिया; परवाज़: उड़ान; ग़मनाक: शोकपूर्ण; ताब: धैर्य; नूर: प्रकाश; या रब : हे प्रभु; शराबे-शौक़: इच्छाओं की मदिरा; जिगर: यकृत, आत्म-बल; कावाक: खोखला, तत्व-विहीन।


रविवार, 12 अप्रैल 2015

इतना सा मर्तबा ....

मख़्मूर  मियां होश  में  हों  तो  सलाम  हो
मेहमां  के   वास्ते  भी   कोई  इंतज़ाम  हो

यारी  का  एहतराम  न  तहज़ीब  की  ख़बर
कब  तक  तिरे  शहर  में  युंही  सुब्हो-शाम  हो

इतना  सा   मर्तबा  ही  बहुत  है  हमें  जनाब
दिल  में  किसी  ग़रीब  के  अपना  मुक़ाम  हो

अफ़सोस  कीजिए  न  अभी  दिल  जलाइए
मुमकिन  है  किसी  रोज़  हमारा  निज़ाम  हो

हैं  नेक  काम  और  बहुत  रिज़्क़  के  लिए
क्यूं  कोई  शख़्स  और  किसी  का  ग़ुलाम  हो

आंखों  में  नमी  यूं  तो  कभी  आएगी  नहीं
ऐ   काश !  कभी  शाह  को  तगड़ा  ज़ुकाम  हो

मुहलत  न  दीजिए  कि  शाह  सर  को  आ  रहे
अब  फ़र्ज़  है  कि  ज़ुल्म  का  क़िस्सा  तमाम  हो !

                                                                                     (2015)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मख़्मूर: मदमत्त, धुत्त; यारी: मित्रता; एहतराम: सम्मान; तहज़ीब: सभ्यता; मर्तबा: स्थान, पद; मुक़ाम: निवास; अफ़सोस: खेद; मुमकिन: संभव; निज़ाम: सरकार, शासन; नेक: श्रेष्ठ, पवित्र; रिज़्क़: आजीविका, दो समय का भोजन; शख़्स: व्यक्ति; ग़ुलाम: दास; मुहलत: छूट; फ़र्ज़: कर्त्तव्य; ज़ुल्म: अत्याचार; क़िस्सा  तमाम: अंत। 

शनिवार, 11 अप्रैल 2015

मौसम क़ातिल...

दर्द  के  पीछे  दिल  भी  है
यह  मस्ला  मुश्किल  भी  है

कुछ  हम  ही  दीवाने  हैं
कुछ  मौसम  क़ातिल  भी  है

इश्क़  इदारा  है  ग़म  का
ख़्वाबों  की  महफ़िल  भी  है

गिरदाबों  में  कश्ती  है
पर  आगे  साहिल  भी  है

पांवों  में  ज़ंजीरें  हैं
आंखों  में  मंज़िल  भी  है

दहक़ां  की  दुश्मन  दुनिया
पुर्से   में  शामिल  भी  है

शाह  निकम्मा  नाकारा
और ज़रा  बुज़दिल  भी  है

(यह  शायर  बेचारा-सा
पढ़ने  के  क़ाबिल  भी  है !)

                                                        (2015)
                                 
                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मस्ला: समस्या; क़ातिल: मनभावन (व्यंजना); इदारा: संस्थान; गिरदाब: भंवर; कश्ती: नौका; 
साहिल: तट; दहक़ां: किसान; पुर्से: शोक-संवेदना; नाकारा: अकर्मण्य; बुज़दिल: कायर । 

                        

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

शह और मात !

कहें  तो  ज़ेरे-क़दम  कायनात  कर  डालें
कहें  तो  शब  को  सह्र,  दिन  को  रात  कर  डालें

ग़लत  नहीं  है  हसीनों  में  नूर  की  चाहत
कहें  तो  चांद  से  रिश्ते  की  बात  कर  डालें

तरह-तरह  से  हमें  आप  आज़माते  हैं
कहें  तो  ग़म  को  शरीक़े-हयात  कर  डालें

मना-मना  के  थक  चुकी  हैं  आपको   नज़रें
कहें  तो  ख़त्म  सभी  ख़्वाहिशात  कर  डालें

किया  करें  न  हमें  ग़ैर  कह  के  शर्मिंदा
कहें  तो  दिलकुशी  की  वारदात  कर  डालें

दिखाइए  न  हमें  रौब  शाह  होने  का
कहें  तो  राह  में  सौ  मुश्किलात  कर  डालें

बचा  हुआ  है  अभी  माद्दा  बग़ावत  का
कहें  तो  शाह  को  शह  और  मात  कर  डालें  !

                                                                               (2015)

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ेरे-क़दम: पांव के नीचे; कायनात: सृष्टि; शब: रात;  सह्र: प्रातः; नूर: प्रकाश; शरीक़े-हयात: जीवनसाथी; ख़्वाहिशात: इच्छाएं; दिलकुशी: मन को मारना; मुश्किलात: कठिनाइयां; माद्दा: सामर्थ्य; बग़ावत: विद्रोह; शह और मात: शतरंज के खेल में राजा को चुनौती देना और हरा देना ।