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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

शह और मात !

कहें  तो  ज़ेरे-क़दम  कायनात  कर  डालें
कहें  तो  शब  को  सह्र,  दिन  को  रात  कर  डालें

ग़लत  नहीं  है  हसीनों  में  नूर  की  चाहत
कहें  तो  चांद  से  रिश्ते  की  बात  कर  डालें

तरह-तरह  से  हमें  आप  आज़माते  हैं
कहें  तो  ग़म  को  शरीक़े-हयात  कर  डालें

मना-मना  के  थक  चुकी  हैं  आपको   नज़रें
कहें  तो  ख़त्म  सभी  ख़्वाहिशात  कर  डालें

किया  करें  न  हमें  ग़ैर  कह  के  शर्मिंदा
कहें  तो  दिलकुशी  की  वारदात  कर  डालें

दिखाइए  न  हमें  रौब  शाह  होने  का
कहें  तो  राह  में  सौ  मुश्किलात  कर  डालें

बचा  हुआ  है  अभी  माद्दा  बग़ावत  का
कहें  तो  शाह  को  शह  और  मात  कर  डालें  !

                                                                               (2015)

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ेरे-क़दम: पांव के नीचे; कायनात: सृष्टि; शब: रात;  सह्र: प्रातः; नूर: प्रकाश; शरीक़े-हयात: जीवनसाथी; ख़्वाहिशात: इच्छाएं; दिलकुशी: मन को मारना; मुश्किलात: कठिनाइयां; माद्दा: सामर्थ्य; बग़ावत: विद्रोह; शह और मात: शतरंज के खेल में राजा को चुनौती देना और हरा देना । 

1 टिप्पणी:

  1. हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शनिवार (11-04-2015) को "जब पहुँचे मझधार में टूट गयी पतवार" {चर्चा - 1944} पर भी होगी!
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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