मख़्मूर मियां होश में हों तो सलाम हो
मेहमां के वास्ते भी कोई इंतज़ाम हो
यारी का एहतराम न तहज़ीब की ख़बर
कब तक तिरे शहर में युंही सुब्हो-शाम हो
इतना सा मर्तबा ही बहुत है हमें जनाब
दिल में किसी ग़रीब के अपना मुक़ाम हो
अफ़सोस कीजिए न अभी दिल जलाइए
मुमकिन है किसी रोज़ हमारा निज़ाम हो
हैं नेक काम और बहुत रिज़्क़ के लिए
क्यूं कोई शख़्स और किसी का ग़ुलाम हो
आंखों में नमी यूं तो कभी आएगी नहीं
ऐ काश ! कभी शाह को तगड़ा ज़ुकाम हो
मुहलत न दीजिए कि शाह सर को आ रहे
अब फ़र्ज़ है कि ज़ुल्म का क़िस्सा तमाम हो !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: मख़्मूर: मदमत्त, धुत्त; यारी: मित्रता; एहतराम: सम्मान; तहज़ीब: सभ्यता; मर्तबा: स्थान, पद; मुक़ाम: निवास; अफ़सोस: खेद; मुमकिन: संभव; निज़ाम: सरकार, शासन; नेक: श्रेष्ठ, पवित्र; रिज़्क़: आजीविका, दो समय का भोजन; शख़्स: व्यक्ति; ग़ुलाम: दास; मुहलत: छूट; फ़र्ज़: कर्त्तव्य; ज़ुल्म: अत्याचार; क़िस्सा तमाम: अंत।
मेहमां के वास्ते भी कोई इंतज़ाम हो
यारी का एहतराम न तहज़ीब की ख़बर
कब तक तिरे शहर में युंही सुब्हो-शाम हो
इतना सा मर्तबा ही बहुत है हमें जनाब
दिल में किसी ग़रीब के अपना मुक़ाम हो
अफ़सोस कीजिए न अभी दिल जलाइए
मुमकिन है किसी रोज़ हमारा निज़ाम हो
हैं नेक काम और बहुत रिज़्क़ के लिए
क्यूं कोई शख़्स और किसी का ग़ुलाम हो
आंखों में नमी यूं तो कभी आएगी नहीं
ऐ काश ! कभी शाह को तगड़ा ज़ुकाम हो
मुहलत न दीजिए कि शाह सर को आ रहे
अब फ़र्ज़ है कि ज़ुल्म का क़िस्सा तमाम हो !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: मख़्मूर: मदमत्त, धुत्त; यारी: मित्रता; एहतराम: सम्मान; तहज़ीब: सभ्यता; मर्तबा: स्थान, पद; मुक़ाम: निवास; अफ़सोस: खेद; मुमकिन: संभव; निज़ाम: सरकार, शासन; नेक: श्रेष्ठ, पवित्र; रिज़्क़: आजीविका, दो समय का भोजन; शख़्स: व्यक्ति; ग़ुलाम: दास; मुहलत: छूट; फ़र्ज़: कर्त्तव्य; ज़ुल्म: अत्याचार; क़िस्सा तमाम: अंत।
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