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शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

रौशनी की ख़बर...

तेरी  ख़्वाहिशों  का  पता  नहीं
कि  तू  दोस्त  बन के  मिला  नहीं

तू  न  पीर  है  न  फ़क़ीर  है
तेरी  मजलिसों  में  शिफ़ा नहीं

तुझे  रौशनी  की  ख़बर  कहां
तू  चराग़  बन  के  जला  नहीं

ये  मेरी  ख़ुदी  की  मिसाल  है
मैं  किसी  के  दर  पे  झुका  नहीं

मैं  जहां  से  दूर  निकल  गया
मुझे  अब  किसी  से  गिला  नहीं

जो  चला  गया  वो  सनम  न  था
जो  मिला  हमें  वो  ख़ुदा  नहीं

मेरा  अज़्म  है   तेरा  नूर  है
कुछ  मांगने  को  बचा  नहीं  ! 

                                                          (2014)

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़्वाहिशों: इच्छाओं; पीर: सिद्ध व्यक्ति;   फ़क़ीर: संत; मजलिसों: सभाओं; शिफ़ा: समाधान; 
              ख़ुदी: स्वाभिमान; मिसाल: उदाहरण; गिला: असंतोष; सनम: सच्चा प्रेमी; अज़्म: अस्मिता। 




गुरुवार, 4 सितंबर 2014

गुनाहों का असर...

जब  कोई  ख़्वाब  निगाहों  में  संवर आता  है
ख़ुश्क  होठों   पे   तेरा  नक़्श  उभर  आता  है

चांद  गुस्ताख़  परिंदे  की  तरह  उड़ता  है
और  हर  रात  मेरी   छत  पे  उतर  आता  है

ये  ज़ईफ़ी  की  सज़ा है  कि  दौरे-कमज़र्फ़ी
जो  भी  आता  है  वो  मानिंदे-ख़बर  आता  है

शाह  करता  है  ख़ता  एक  किसी  लम्हे  में
सात  पुश्तों  पे  गुनाहों  का  असर  आता  है

इल्मो-फ़न  से  परे,  एहसासे-ज़िंदगी  है  तू
और  एहसास  कभी  ज़ेरे-बहर  आता  है ?

अलविदा  कहके  निकल  जाएंगे  ज़माने  से
हर्फ़  ईमां  पे  किसी  रोज़  अगर  आता  है

तेरे  वजूद  तलक  मेरी  नज़र  की  हद  है
और  ताहद्दे-नज़र  तू  ही  नज़र  आता  है  !

                                                                          (2014)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुश्क: सूखे; नक़्श: चिह्न, खुदा हुआ चिह्न; गुस्ताख़  परिंदे: दुस्साहसी पक्षी; ज़ईफ़ी: वृद्धावस्था; दौरे-कमज़र्फ़ी: ओछेपन का युग; मानिंदे-ख़बर: समाचार की भांति; ख़ता: अपराध; लम्हे: क्षण; पुश्तों: पीढ़ियों; गुनाहों: अपराधों; इल्मो-फ़न: कला-कौशल; 
एहसासे-ज़िंदगी: जीवनानुभूति; ज़ेरे-बहर: छंद के अधीन; हर्फ़: दोष, आरोप; ईमां: आस्था; वजूद तलक: अस्तित्व तक; हद: सीमा; ताहद्दे-नज़र: दृष्टि की सीमा तक। 

बुधवार, 3 सितंबर 2014

ज़िंदगी का यक़ीं...

दोस्तों  के  दिलों  में  रहम  आ  गया
या  हमारे  ज़ेह् न  में  भरम  आ  गया ?

ख़ुशनसीबी  कि  तुम  राह  में  मिल  गए
बदनसीबी  कि  दिल  में  वहम  आ  गया 

मैकदे  से  पिए  बिन  पलट  आए  हम
राह  में  एक   शैख़े -हरम   आ  गया

मुफ़लिसों  की  गली  में  दुआएं  मिलीं,
'हमज़ुबां  आ  गया',  'हमक़दम  आ  गया'

शाह  बदले,  न  बदला  रवैया  कभी
इक  नया  दौरे-ज़ुल्मो-सितम  आ  गया

ज़िंदगी  का  यक़ीं  तो  हमें  भी  न  था
मल्कुले-मौत  भी दम-ब-दम  आ  गया

देख  लीजे  हमारी  अज़ाँ   का  असर
तूर   पर  कारसाज़े-करम  आ  गया  !

                                                                    (2014)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रहम: दया; ज़ेह् न: मस्तिष्क; भरम: भ्रम; ख़ुशनसीबी: सौभाग्य; बदनसीबी: दुर्भाग्य; वहम: शंका, संदेह; मैकदे: मदिरालय; शैख़े -हरम: का'बे में रहने वाला, धर्म-भीरु; मुफ़लिसों: वंचितों; हमज़ुबां: हमारी भाषा बोलने वाला; हमक़दम: साथ में चलने वाला; रवैया: रंग-ढंग; दौरे-ज़ुल्मो-सितम: अन्याय और अत्याचार का युग;  यक़ीं: विश्वास; मल्कुले-मौत: मृत्यु-दूत; दम-ब-दम: तुरत-फ़ुरत, तत्परता से; तूर: मिस्र के साम में एक पर्वत, मिथक के अनुसार इसकी चोटी पर हज़रत मूसा अ.स. के पुकारने पर ख़ुदा ने उन्हें अपनी झलक दिखाई थी; कारसाज़े-करम: कृपा-कर्त्ता, कृपा को संभव बनाने वाला।


सोमवार, 1 सितंबर 2014

...शराफ़त चाहते हैं !

नए  एहबाब  कुछ  ज़्याद:  मुहब्बत  चाहते  हैं
हमारी  ज़ात  पर  अपनी  हुकूमत  चाहते  हैं

वो  देना  चाहते  हैं  दिल  हमें  इक शर्त्त  रख  कर
हमारी       दौलते-ईमां    अमानत  चाहते  हैं

हमारी  नींद  को  आज़ाद  करने  के  लिए  वो
किसी  मश्हूर  हस्ती  की  ज़मानत  चाहते  हैं

किसी  दिन  पूछिए  दिल  से  नीयत  में  खोट  क्या  है
हसीं  क्यूं  कर  निगाहों   में  शराफ़त  चाहते  हैं

दरख़्तों  का  यक़ीं   ही  उठ  गया  है  मौसमों  से
हरे  पत्ते  हवाओं  से  हिफ़ाज़त  चाहते  हैं

मिटाना  चाहता  है  तो  मिटा  दे,  देर  कैसी
कहां  हम  शाह  से  कोई  रियायत  चाहते  हैं

दिलों  में  फ़र्क़  पैदा  कर  हमारे  हुक्मरां  अब
ख़ुदा  के  नाम  पर  अपनी  सियासत  चाहते  हैं !

                                                                                    (2014)

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: एहबाब: मित्र, प्रेमी; ज़ात: सर्वस्व; हुकूमत: शासन; दौलते-ईमां: आस्था की संपत्ति;   अमानत: धरोहर, सुरक्षा-निधि; 
मश्हूर हस्ती: प्रसिद्ध व्यक्ति; ज़मानत: प्रतिभूति; शराफ़त: शिष्टता; दरख़्तों: वृक्षों; हिफ़ाज़त: सुरक्षा; रियायत: छूट; 
हुक्मरां: शासक-गण; सियासत: राजनीति।  

रविवार, 31 अगस्त 2014

बताएं क्या तुम्हें ?

इश्क़  के  मानी  बताएं  क्या  तुम्हें
राह  अनजानी  बताएं  क्या  तुम्हें

एक  ग़म  हो  तो  तुम्हें  तकलीफ़  दें
हर  परेशानी  बताएं  क्या  तुम्हें

कामयाबी  के  लिए  कितना  गिरे
ये  पशेमानी  बताएं  क्या  तुम्हें

शाह  हमसे  मांगता  है  किसलिए
रोज़  क़ुर्बानी  बताएं  क्या  तुम्हें

मग़फ़िरत  के  रास्ते  पर  क्या  मिला
दुनिय:-ए-फ़ानी ! बताएं  क्या  तुम्हें

तूर  पर  हमसे  ख़ुदा  ने  क्या  कहा
राज़  रूहानी  बताएं  क्या  तुम्हें  ?

हम  पहाड़ों  की  चट्टानों  पर  पले
कस्रे-सुल्तानी ! बताएं  क्या  तुम्हें  !

                                                                   (2014)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

संदर्भ: मक़्ता (अंतिम शे'र) उर्दू के अज़ीम शायर जनाब अल्लामा इक़बाल के एहतराम (सम्मान) में 
शब्दार्थ: मानी: अर्थ; कामयाबी: सफलता; पशेमानी: लज्जा का बोध; क़ुर्बानी: बलिदान; मग़फ़िरत: मोक्ष; दुनिय:-ए-फ़ानी: मर्त्य-लोक; तूर: मिस्र के साम क्षेत्र में एक पर्वत, मिथक के अनुसार हज़रत मूसा अ. स. इसकी चोटी पर चढ़ कर ख़ुदा से बात करते थे; राज़  रूहानी: आध्यात्मिक रहस्य; कस्रे-सुल्तानी: राजमहल। 

शनिवार, 30 अगस्त 2014

बहाना ख़राब है !

दुनिया  ख़राब  है  न  ज़माना  ख़राब  है
दिल  ही  मिरे  हुज़ूर  का  ख़ानाख़राब   है

कहिए  कि  आप  इश्क़  के  हक़दार  ही  नहीं
मस्रूफ़ियत  का  रोज़  बहाना  ख़राब  है

ये  हुस्ने-बेमिसाल  मुबारक  तुम्हें  मगर
दिल  पर  किसी  के  तीर  चलाना  ख़राब  है

ग़म  ये  नहीं  कि  आपके  दिल  में  जगह  नहीं
लेकिन  हमें  ख़राब  बताना  ख़राब  है

दिल  है,  इसे  सराय  समझिए  न  ऐ  हुज़ूर
हर  एक  को  मेहमान  बनाना  ख़राब  है

बेशक़,  नए  निज़ाम  की  नीयत  ख़राब  है
लेकिन  फ़जूल  जान  जलाना  ख़राब  है 

हिम्मत  है  तो  ज़मीर  से  नज़्रें  मिलाइए
करके  गुनाह  जश्न  मनाना  ख़राब  है  !

                                                                            (2014)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ख़ानाख़राब: इधर-उधर भटकने वाला; हक़दार: अधिकारी; मस्रूफ़ियत: व्यस्तता; हुस्ने-बेमिसाल: विलक्षण सौंदर्य; 
सराय: यात्रियों के रुकने की जगह, धर्मशाला; निज़ाम: सरकार,प्रशासन; फ़जूल: व्यर्थ: ज़मीर: विवेक; नज़्रें: दृष्टि; जश्न: उत्सव।

शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

पारसा बना डाला !

ख़ाक  ले  कर  ख़ुदा  बना  डाला
ज़ौक़े-इंसां ! ये  क्या  बना  डाला ?!

दुश्मनों  ने  सलाम  को  अपने
दिलकशी  की  अदा  बना  डाला

लाख  हरजाई  वो  रहा  हो  यूं
वक़्त  ने  पारसा  बना  डाला

इश्क़  पर  शे'र  जो  कहा  हमने
आशिक़ों  ने  दुआ  बना  डाला

शैख़  पीने  चले  मुरव्वत  में
मयकशों  को  बुरा  बना  डाला

ख़ूब  माशूक़  था  कन्हैया  वो
ज़ह् र  को  भी  दवा  बना  डाला

शाह  कमज़र्फ़  नहीं  तो  क्या  है
मुफ़लिसों  को  गदा  बना  डाला !

उम्र  भर  नाम  गुम  रहा  अपना
मौत  ने  मुद्द'आ  बना  डाला  !

                                                            (2014)

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ाक: मिट्टी, धूल; ख़ुदा: भगवान की मूर्त्ति; ज़ौक़े-इंसां: मानवीय सुरुचि; दिलकशी: चित्ताकर्षण; अदा: मुद्रा; 
हरजाई: हर किसी से प्रेम करते रहने वाला, दुश्चरित्र; पारसा: सदाचारी, संयमी;  दुआ: प्रार्थना; शैख़: ईश्वर-भीरु; 
मुरव्वत: संकोच, भलमनसाहत; मयकशों: मद्यपों; माशूक़: प्रिय; कमज़र्फ़: ओछा व्यक्ति; मुफ़लिसों: निर्धनों;  
गदा: भिक्षुक; मुद्द'आ: चर्चा का विषय।