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रविवार, 2 मार्च 2014

बन सके न यूं आशना..!

रहा  दर-ब-दर  जिसे   ढूंढता,   वो:    क़रीब  आ  के    ठहर  गया
मैं  नज़र  की  ताब  न  ला  सका,  मेरे  दिल  में  नूर  उतर  गया

तुझे  मालो-ज़र  की  तलाश  थी,  मुझे  आक़बत  का  ख़याल  था
कभी  बन  सके  न  यूं  आशना,  कि  तेरा  ज़मीर  ही  मर  गया

मेरी  चश्म  में     तेरा  नूर  है,   मेरी  रूह  पर    है  करम  तेरा
मेरे  सर  पे  यूं  तेरा  हाथ  है  कि  मैं  डूब  कर  भी  उबर  गया

तू  यज़ीद  है   कभी  मान  ले,   यूं  भी    जानता  है    तुझे  जहां
कोई  और  होगा  वो:  हम  नहीं;  तेरे  अस्लहों  से  जो  डर  गया

ये:  वो:  राह  है  जहां  दूर  तक  किसी  हमसफ़र  का  पता  नहीं
के:    तेरी  तलाश  में     ज़िंदगी    मैं  हरेक  हद  से  गुज़र  गया

मेरी   हस्रतों   का     क़सूर  था    के:   फ़रेबे-बुत  में    उलझ  गया
तेरा  दर  गया,  मेरा  घर  गया,  मेरे  नाल:-ए-दिल  का  असर  गया

मुझे  इल्म  था  तू  है  आईना,  मैं  संभल-संभल  के  चला  बहुत
तू  मिला   तो  शक्ले-ख़्वाब  में,   कि  छुए  बग़ैर  बिखर  गया  !

                                                                                               ( 2014 )

                                                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: दर-ब-दर: द्वारे-द्वारे; ताब: बराबरी;  मालो-ज़र: स्वर्ण-संपत्ति;  आक़बत: परमगति; आशना: निकट मित्र;  ज़मीर: विवेक;  
चश्म: नयन; करम: कृपा;    यज़ीद: हज़्रत इमाम हुसैन और उनके साथियों का शत्रु,  हत्यारा; अस्लहों: शस्त्रास्त्रों; हस्रतों:इच्छाओं; 
फ़रेबे-बुत: मूर्त्ति का छल, मानवीय सौन्दर्य का छल;  नाल:-ए-दिल: हृदय का आर्त्तनाद; इल्म: अभिज्ञान; शक्ले-ख़्वाब: स्वप्न-रूप।

बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

कहां तक गिरोगे ...?

नमी   ही    नहीं   है    तुम्हारी   नज़र  में
ये:  दौलत  लुटा  आए  किसके  असर  में

नहीं  सर  पे  साया   कहीं  इस  सफ़र  में
बड़ी  तेज़    है  धूप    दिल  के    शहर  में

वही     रंजो-ग़म     हैं,     वही    आरज़ूएं
नया  कुछ  नहीं    ज़िंदगी  की   ख़बर  में

ये:  मासूमियत     देखिए     क़ातिलों  की
दवा    दे  रहे  हैं    मिला  कर     ज़हर  में

ये:  दावा-ए-उल्फ़त  है  कमज़ोर  कितना
बराबर  वज़न  में,   न  कामिल   बहर  में

बहुत   क़ीमती   है   ये:   सरमाय:-ए-ईमां
न  आए  कभी     दुश्मनों  की    नज़र  में

हज़ारों   गुनाहों   पे     बस     एक  माफ़ी
कहां  तक  गिरोगे  किसी  की  नज़र  में  ?!

                                                             ( 2014 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: साया: छाया; रंजो-ग़म: दु:ख-दर्द; आरज़ूएं: अभिलाषाएं; मासूमियत: अबोधता; दावा-ए-उल्फ़त: प्रेम का स्वत्व; 
वज़न: मात्रा; कामिल बहर: परिपूर्ण छंद; सरमाय:-ए-ईमां: आस्था की पूंजी।

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

दिलकुशी की वजह...!

काश !  दिल  को  क़रार  आ  जाए
कारवां  - ए - बहार        आ  जाए

कौन    कम्बख़्त   ख़ुम्र   मांगे  है
जो  नज़र  में    ख़ुमार   आ जाए

ख़्वाब  भी    आएंगे    निगाहों  में
नींद  पर    इख़्तियार    आ  जाए

दिलकुशी  की  वजह  ज़रा-सी  है
आपको        ऐतबार     आ  जाए

दोस्ती    चार  दिन   नहीं  चलती
गर  दिलों  में    दरार    आ  जाए 

हो  हुकूमत  यज़ीद  की  हम  पर
तो  क़यामत    हज़ार    आ  जाए

ज़िंदगी     रोज़    मार     डाले  है
मौत  ही     एक   बार   आ  जाए

हो  अज़ां-ए-फजर  तेरे  मुंह  से
तो      शबे-इंतेज़ार     आ  जाए

बोरिया  बंध  गया  हमारा  अब
आस्मां  से    पुकार     आ जाए  !

                                                  ( 2014 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:   क़रार: धैर्य, संतोष; कारवां-ए-बहार: दल-बल सहित बसंत; कम्बख़्त: अभागा; ख़ुम्र: मदिरा; ख़ुमार: मद; इख़्तियार: नियंत्रण; दिलकुशी: मन पर नियंत्रण, इच्छाओं का दमन; ऐतबार: विश्वास; गर: यदि; यज़ीद: हज़रत इमाम हुसैन स.अ. और उनके साथियों का हत्यारा; क़यामत: प्रलय; अज़ां-ए-फजर: उष:काल के समय होने वाली अज़ान; शबे-इंतेज़ार: प्रतीक्षा की रात्रि; बोरिया: बिस्तर-बोरिया, यात्रा का सामान 

रविवार, 23 फ़रवरी 2014

अज़ान का जादू

उसका  चेहरा  दुआओं  जैसा  है
सुब्हे-नौ  की  शुआओं  जैसा  है

तिफ़्ले-मासूम  की  तबस्सुम-सा
दिल  तेरा  देवताओं  जैसा  है

उस  हसीं  की  अज़ान  का  जादू
दर्दे-दिल  की  दुआओं  जैसा  है

'आप'  क्या  कीजिए  सियासत  में
ये:  शहर  बेवफ़ाओं  जैसा  है

तू  ज़ुलैख़ा  तो  हम  भी  यूसुफ़  हैं
रंग  बेशक़  घटाओं  जैसा  है

भेस  जिसका  फ़क़ीर  जैसा  है
अज़्म  उसका  ख़ुदाओं  जैसा  है

बेवजह  अर्शे-नुहुम  तक  दौड़े
देस  उसका  ख़लाओं  जैसा  है !

                                             ( 2014 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सुब्हे-नौ: नई प्रात: ; शुआ: किरण; तिफ़्ले-मासूम: अबोध शिशु; तबस्सुम: मुस्कुराहट; ज़ुलैख़ा-यूसुफ़:मिथकीय चरित्र, 
संसार के सुंदरतम मनुष्य; भेस: वेश; फ़क़ीर: सन्यासी; अज़्म: महत्ता; अर्शे-नुहुम: नौवां आकाश, स्वर्ग-द्वार; ख़ला: निर्जन स्थान। 









मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

बादे-सबा के ख़ास..!

रहे-सफ़र      तमाम     लोग     आसपास  रहे
हमीं   थे     बेक़रार,    अर्श   तक    उदास  रहे

हमें  ये:   रंज  नहीं    क्या   गंवा  दिया  हमने
मिला  है  जो  उसी  को  ले  के  बदहवास  रहे

बहार     फिर    क़रीब  से     गुज़र  गई    मेरे
वो:  ख़ुशनसीब  थे,   बादे-सबा  के   ख़ास  रहे

ख़ुदा  न  कर  सका  हमारे  हक़  में  इतना  भी
कि  मुश्किलों  के  वक़्त  कोई  ग़मशनास  रहे

न   ऐतबार    हो  सका     किसी    करिश्मे  पर
ज़ेह्न  में  मग़फ़िरत  के  नाम  बस  क़यास  रहे

मिली  न  नींद  सुकूं  की  अज़ल  तलक  हमको
हरेक    रात     मगर      ख़्वाब    आसपास  रहे

करम   का  माद्दा  अगर  न  हो  तो  बतला  दे
किसी  ग़रीब  के  दिल  में  न  कोई  आस  रहे  !

                                                                    ( 2014 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रहे-सफ़र: यात्रा-पथ में; बेक़रार: व्याकुल; अर्श: आकाश; रंज: खेद; बदहवास: आशंकित, बादे-सबा: शीतल समीर; 
ग़मशनास: दुःख में सांत्वना देने वाला; ऐतबार: विश्वास; करिश्मा: चमत्कार; ज़ेह्न: मस्तिष्क;  मग़फ़िरत: मोक्ष; 
क़यास: अनुमान; सुकूं: संतोष; अज़ल: मृत्यु; करम: कृपा; माद्दा: सामर्थ्य।   

सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

मुफ़लिसी की दवाएं...!

दूर       जा     कर     दुआएं     देते  हैं
ख़ूब        हमको      वफ़ाएं      देते  हैं

देख      ली      आपकी     फ़राग़दिली
जान      ले    कर     अदाएं     देते  हैं

बांटते         हैं        बहार      ग़ैरों  को
और      हमको     ख़िज़ाएं      देते  हैं

शे'र  कहते  हैं   हम  पे  महफ़िल  में
हस्रतों     को      हवाएं           देते  हैं

'तख़्लिया'    कहके    भाग   जाते  हैं
ख़्वाहिशों     को     ख़लाएं      देते  हैं

सच  न  कह  दें  वो:  आपके  मुंह  पे
आईनों     को     रिदाएं         देते  हैं

शाह     हैं        मेह्र्बां     रियाया  पर
मुफ़लिसी      की      दवाएं    देते  हैं 

ख़ुल्द   है   दूर,      हमसे    कहते  हैं
फिर    फ़लक़   से     सदाएं  देते  हैं !

                                                          ( 2014 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: फ़राग़दिली: उदारता;  ख़िज़ाएं: पतझड़; महफ़िल: गोष्ठी; हस्रतों: आकांक्षाओं; 'तख़्लिया': एकांत; ख़्वाहिशों: इच्छाओं; 
ख़लाएं: एकांत, निर्जन स्थान; रिदाएं: आवरण; मेह्र्बां: दयालु; रियाया: प्रजा; मुफ़लिसी: निर्धनता; ख़ुल्द: स्वर्ग; फ़लक़: आकाश। 

रविवार, 16 फ़रवरी 2014

नई सहर देखो !

शहसवारों !     ज़रा     इधर  देखो
पैदली     मात    का    हुनर  देखो

ख़लबली   है    सभी     हरीफ़ों  में
'आप'  के  नाम  का   असर  देखो

जिस्म  नीला  पड़ा  सियासत  का
झूठ  के    सांप  का    ज़हर   देखो

डगमगाते   हैं    पांव   मंज़िल  के
ख़ाकसारों     की    रहगुज़र  देखो 

नाख़ुदा  ही    भंवर  में    ले  आया
डूबती      नाव  का     सफ़र  देखो

दर्दे-दिल  से  ज़रा  निजात  मिली
फिर  बहकने  लगी    नज़र  देखो

तोड़    लेना    वफ़ाओं   के  रिश्ते
लड़खड़ाते      हमें      अगर  देखो

रंग    बदले     हैं    आसमानों  के
आ   रही   है     नई   सहर    देखो

रिज़्क़  मिल  जाए  तो  नमाज़  पढ़ें
ख़ुल्द  देखो  कि  अपना  घर  देखो  !

                                                   ( 2014 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: शहसवारों: घुड़सवारों; पैदली मात: शतरंज में पैदलों के सहारे राजा को घेरना; हुनर: कला, क्षमता; ख़ाकसारों : दरिद्रजन; 
रहगुज़र: पथ, यात्रा  का संघर्ष; हरीफ़ों: प्रतिद्वंदियों;  नाख़ुदा: नाविक;  सहर: उष: काल; रिज़्क़: दैनिक भोजन; ख़ुल्द: स्वर्ग, परलोक।