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गुरुवार, 2 जनवरी 2014

यौमे-शहादत: कॉमरेड सफ़दर हाश्मी

वह  1  जनवरी, 1989  की सुबह थी…
कॉमरेड सफ़दर 'जन नाट्य मंच' के साथियों के साथ ग़ाज़ियाबाद म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के  चुनाव में CPI (M) के उम्मीदवार की हिमायत में नाटक 'हल्ला बोल' खेल रहे थे। उसी वक़्त, कॉँग्रेस के उम्मीदवार का काफ़िला वहां से गुज़रा। इन ग़ुंडों ने नाटक रोकने के लिए कहा, जिस पर कॉमरेड सफ़दर ने उन लोगों से दूसरे रास्ते से जाने के लिए या कुछ देर इंतज़ार करने को कहा…
उन ख़ूंख़्वार दरिन्दों ने लाठी, लोहे की रॉड्स वग़ैरह से नाटक खेल रहे साथियों पर हमला कर दिया। CITU के एक कारकुन की वहीं शहादत हो गई जबकि हमले में बुरी तरह घायल कॉमरेड सफ़दर की शहादत अगले रोज़, यानि आज से ठीक 25 बरस पहले; 2  जनवरी 1989 को हुई …
शहादत के वक़्त कॉमरेड सफ़दर की उम्र सिर्फ़ 34 बरस थी  …
आज हम अपने बिछड़े साथी कॉमरेड सफ़दर हाश्मी को याद करते हुए, कॉमरेड फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' मरहूम का लिखा हुआ तराना ख़ेराजे-अक़ीदत के तौर पर पेश कर रहे हैं:

दरबारे-वतन  में   जब  इक  दिन  सब  जाने  वाले  जाएंगे
कुछ  अपनी  सज़ा  को  पहुंचेंगे  कुछ  अपनी  जज़ा  ले  जाएंगे

ऐ  ख़ाक नशीनों  उठ  बैठो  वह  वक़्त  क़रीब  आ  पहुंचा  है
जब  तख़्त  गिराए  जाएंगे  जब  ताज  उछाले  जाएंगे

अब  टूट  गिरेंगी  ज़ंजीरें  अब  ज़िंदानों  की  ख़ैर  नहीं
जो  दरिया  झूम  के  उट्ठे  हैं  तिनकों  से  न  टाले  जाएंगे

कटते  भी  चलो  बढ़ते  भी  चलो  बाज़ू  भी  बहुत  हैं  सर  भी  बहुत
चलते  भी  चलो  के:  अब  डेरे  मंज़िल  ही  पे  डाले  जाएंगे

ऐ  ज़ुल्म  के  मारो  लब  खोलो  चुप  रहने  वालो  चुप  कब  तक
कुछ  हश्र  तो  उनसे  उट्ठेगा  कुछ  दूर  तो  ना'ले  जाएंगे  !

                                                                                             -फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'

शब्दार्थ: जज़ा: पुरस्कार; ख़ाक नशीनों: दीन-हीनों; ज़िंदानों: बंदी-गृहों;  दरिया: नदी;   ज़ुल्म: अन्याय; हश्र: झंझावात; ना'ले: पुकार, शोर। 



सोमवार, 30 दिसंबर 2013

...साहिल की तरह !

देखो  न  हमें  क़ातिल  की  तरह
डर  जाएं  क्या  बुज़दिल  की  तरह

वो:  ख़्वाब  में  अक्सर  आते  हैं
ढूँढा  था  जिन्हें  मंज़िल  की  तरह

दिल  की  क़ीमत  ईमान  है  क्या
बहको  न  किसी  ग़ाफ़िल  की  तरह

तूफ़ान       हज़ारों       हार  गए
मौजूद  हैं  हम  साहिल  की  तरह

क्या   ख़ाक  मुहब्बत   की  तुमने
तड़पा  न  किए  बिस्मिल  की  तरह

कैसे   जाने    दें      तुम  ही  कहो
आए  हो  दुआ-ए-दिल  की  तरह

रखते  हैं  ख़ुदी  कुछ  तो   हम  भी
तोड़ो  न   दिल-ए-साइल  की  तरह !

                                                       ( 2013 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़ातिल: वधिक; बुज़दिल: कायर; ईमान: आस्था; ग़ाफ़िल: भ्रमित; साहिल: किनारा; बिस्मिल: घायल;  
दुआ-ए-दिल: हृदय की प्रार्थना; ख़ुदी: स्वाभिमान; दिल-ए-साइल: याचक का हृदय।


रविवार, 29 दिसंबर 2013

न मुस्कुराओ गुनाह करके !

किसी  के  दिल  को  तबाह  करके
न     मुस्कुराओ      गुनाह  करके

चलो  यह  माना   जफ़ा  नहीं  की
कहो      ख़ुदा  को    गवाह  करके

हमें   फ़लक  पर   बिठा  दिया  है
सहर    ने     ज़ेरे-पनाह     करके

न  क़ाफ़िया   न  बहर  मुकम्मल
मिलेगा   क्या    वाह  वाह  करके

किसी  पे  मिटना   ख़ता  नहीं  है
चलो  न    नीची   निगाह   करके

किया  है   दुश्मन  को  आश्ना  गर
दिखाइए  अब     निबाह     करके

ख़ुदा  को  क्या  मुंह  दिखाएंगे  वो:
जिए  जो  रू:  को  सियाह  करके  !

                                              ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जफ़ा: बेईमानी; फ़लक: आकाश; सहर: उषः काल; ज़ेरे-पनाह: शरणागत; क़ाफ़िया : शे'र की दूसरी पंक्ति में  अंतिम से पूर्व का शब्द; बहर: छंद; मुकम्मल: परिपूर्ण; ख़ता : दोष, अपराध; आश्ना: मित्र,साथी; गर: यदि; रू:: आत्मा; सियाह: काला।

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

ग़ालिब …ग़ालिब … सिर्फ़ ग़ालिब !

उर्दू शायरी के पीराने-पीर, अज़ीम-तरीन शाहकार हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब ( 27 दिस. 1797- 15 फ़र.1869 ) का आज 216 वां यौमे-पैदाइश है। उनके लिए ख़ेराजे-अक़ीदत के तौर पर उन्हीं की एक बेहद मक़बूल ग़ज़ल आज आपके लिए पेश है, मुलाहिज़ा फ़रमाएं:

यह  न  थी  हमारी  क़िस्मत  कि  विसाल-ए-यार  होता
अगर  और  जीते  रहते,  यही  इंतिज़ार  होता

तिरे  वा'दे  पर  जिए  हम  तो  यह  जान,  झूठ  जाना
कि  ख़ुशी  से  मर  न  जाते,  अगर  ए'तबार  होता

तिरी  नाज़ुकी  से  जाना  कि  बंधा  था  'अहद  बोदा
कभी  तू  न  तोड़  सकता,  अगर  उस्तुवार  होता

कोई  मेरे  दिल  से  पूछे,  तिरे  तीरे-नीमकश  को
यह  ख़लिश  कहाँ  से  होती,  जो  जिगर  के  पार  होता

यह  कहाँ  की  दोस्ती  है, कि  बने  हैं  दोस्त, नासेह
कोई  चार: साज़  होता,  कोई  ग़म-गुसार  होता

रग-ए-संग  से  टपकता,  वह  लहू,  कि  फिर  न  थमता
जिसे  ग़म  समझ  रहे  हो,  यह  अगर  शरार  होता

ग़म  अगरचे:  जाँ गुसिल  है,  प'  कहाँ  बचें,  कि  दिल  है
ग़म-ए-इश्क़  गर  न  होता,  ग़म-ए-रोज़गार  होता

कहूँ  किससे  मैं  कि  क्या  है,  शबे-ग़म  बुरी  बला  है
मुझे  क्या  बुरा  था  मरना,  अगर  एक  बार  होता

हुए  मरके  हम  जो  रुस्वा,  हुए  क्यों  न  ग़र्क़े-दरिया
न  कभी  जनाज़:  उठता  न  कहीं  मज़ार  होता

उसे  कौन  देख  सकता,  कि  यगान:  है  वह  यकता
जो  दुई  की  बू  भी  होती,  तो  कहीं  दुचार  होता

यह  मसाइल-ए-तसव्वुफ़,  यह  तिरा  बयान,  ग़ालिब
तुझे  हम  वली  समझते,  जो  न  बाद: ख़्वार  होता

                                                                     -मिर्ज़ा  असद उल्लाह  ख़ां  'ग़ालिब'

शब्दार्थ: विसाल-ए-यार: पिया-मिलन; वा'दे: वचन; ए'तबार: विश्वास; 'अहद: प्रतिज्ञा, वचन; बोदा: कच्चा; उस्तुवार: दृढ़, पुष्ट; तीरे-नीमकश: आधा खिंचा हुआ तीर; ख़लिश: खटक, चुभन; नासेह: उपदेशक; चार: साज़: उपचारक; ग़म-गुसार: हितैषी, 
दुःख का सहभागी; रग-ए-संग: पत्थर की नस; शरार: चिंगारी; जाँ गुसिल: जानलेवा, प्राणघातक; ग़म-ए-इश्क़: प्रेम का दुःख; ग़म-ए-रोज़गार: आजीविका का दुःख;   शबे-ग़म: दुःख की निशा; रुस्वा: अपमानित; ग़र्क़े-दरिया: नदी या पानी में डूबा; जनाज़: : अर्थी; मज़ार: समाधि; यगान: : अनुपम; यकता: अद्वितीय; दुई: द्वैत; दुचार: दो-चार, आमने-सामने; मसाइल-ए-तसव्वुफ़: भक्ति की समस्याएं; बयान: वर्णन; वली: ऋषि, ज्ञानी; बाद: ख़्वार: मद्यप।

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

ख़ुदा नहीं हैं वो: !

जानते  हैं    ख़फ़ा  नहीं  हैं  वो:
बस  ज़रा  बेवफ़ा  नहीं  हैं  वो:

दोस्त  हैं  हम  उन्हें  मना  लेंगे
आपका   मुद्द'आ  नहीं  हैं  वो:

दुश्मने-जां  नहीं  मगर  फिर  भी
दर्दे-दिल  की  दवा  नहीं  हैं  वो:

आसमां  का  निज़ाम  क़ायम  है
रास्ते  से    जुदा     नहीं  हैं  वो:

आतिशे-ख़ूं  रवां  हैं  रग़  रग़  में
सिर्फ़    रंगे-हिना   नहीं  हैं  वो:

पीर  हैं   बादशाह  हैं   सब  हैं
गो  हमारे  ख़ुदा  नहीं  हैं  वो: !

आज  शायद  ग़ज़ल  न  हो  पाए
आज  जल्व: नुमा  नहीं  हैं  वो : !

                                                  ( 2013 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़फ़ा: रुष्ट; बेवफ़ा: बे-ईमान, निर्वाह न करने वाला; मुद्द'आ: विषय; दुश्मने-जां: प्राण का शत्रु; दर्दे-दिल: हृदय की पीड़ा; आसमां: ब्रह्माण्ड; निज़ाम: व्यवस्था;   क़ायम: नियमित, सुचारु; आतिशे-ख़ूं: रक्त की ऊष्मा/अग्नि; प्रवाहित; रग़  रग़: नस-नस;   रंगे-हिना: मेहंदी का रंग; पीर: पहुंचे हुए संत; जल्व: नुमा: प्रकट।

वो: सुबह दीजिए...!'

दोस्तों  आज  हमको  तरह  दीजिए
शाइरी  की  मुनासिब  वजह  दीजिए

मिसर:-ए-उन्सियत  दे  दिया  आपको
आप  ही  ख़ूबसूरत  गिरह  दीजिए

मर  न  जाएं  कहीं  हिज्र  में  आपके
दीजिए  तो  दुआ  बेतरह  दीजिए

तज़्किराते-मसाइल-ए-इंसां  में  अब
जज़्ब:-ए-फ़ाक़ाकश  को  जगह  दीजिए

रौशनी  जिसकी  क़ायम  अज़ल  तक  रहे
ज़िंदगी  को  कभी  वो:  सुबह  दीजिए

ज़ात-ओ-मज़्हब  के  हर  दायरे  से  परे
रहबरों  को  नई  इक  निगह  दीजिए

जल्व:गर  हो  न  जाएं  सरे-बज़्म  वो:
नज़्रे-मैकश  को  ज़र्फ़े-क़दह  दीजिए  !

                                                         ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: तरह: शे'र की एक  पंक्ति, ऐसी पंक्ति जिस पर शे'र कहा जा सके; मुनासिब  वजह: उचित  कारण; मिसर:-ए-उन्सियत: स्नेह-पूर्ण पंक्ति; गिरह: शे'र की दूसरी पंक्ति, ऐसी पंक्ति जिसे सम्मिलित करके शे'र पूरा हो सके; हिज्र: अनुपस्थिति, वियोग; दुआ: शुभकामना; 
बेतरह: जम कर, बहुत अधिक; तज़्किराते-मसाइल-ए-इंसां: मनुष्य की समस्याओं पर चर्चा; जज़्ब:-ए-फ़ाक़ाकश: भूखे रह कर जीने वाले लोगों की भावना; क़ायम: स्थापित; अज़ल: मृत्यु, प्रलय; ज़ात-ओ-मज़्हब: जाति और धर्म; जल्व:गर: प्रकट, दृश्यमान; सरे-बज़्म:भरी सभा में; नज़्रे-मैकश: मद्यप की दृष्टि, दर्शन-रूपी मदिरा पीने वाले की दृष्टि; ज़र्फ़े-क़दह:पात्र संभालने का साहस 

मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

दिन बदल गए !

ऐसा   करम   हुआ    के:  मेरे  दिन  बदल  गए
किसकी  लगी  दुआ  के:  मेरे  दिन  बदल  गए

दुश्मन  ने   मेरा  नाम   ज़ेहन  से  मिटा  दिया
कैसी   हुई     ख़ता    के:  मेरे  दिन  बदल  गए

बदलीं   ज़रूर   कुछ  तो   ज़माने  की   निगाहें
जिस दिन अयां हुआ  के:  मेरे  दिन  बदल  गए

हिर्सो-हवस    हो     के:   तेरा    अंदाज़े-गुफ़्तगू
सब  कुछ  बदल  गया  के:  मेरे  दिन  बदल  गए

अब  भी   वही  हूं  मैं    तेरे  दर  पर  पड़ा  हुआ
किस बात की  अना  के:  मेरे  दिन  बदल  गए

मोहसिन   कहें    हबीब   कहें    या   ख़ुदा  कहें
वो: दिल  में आ बसा के:  मेरे  दिन  बदल  गए

उस  नूरे-इलाही  में     अक़ीदत  की    बात  है
ज़ानू  से  सर  लगा  के:  मेरे  दिन  बदल  गए  !

                                                                    ( 2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: करम: कृपा; दुआ: शुभकामना; ज़ेहन: मनोमस्तिष्क; ख़ता: अपराध, दोष; अयां: स्पष्ट; हिर्सो-हवस: लोभ-लालच; 
अंदाज़े-गुफ़्तगू: बातचीत की शैली; अना: अहंकार; मोहसिन: अनुग्रह करने वाला; हबीब: प्रेमी, शुभचिंतक; 
नूरे-इलाही: ईश्वरीय प्रकाश, ईश्वर का आभा-मंडल; अक़ीदत: आस्था; ज़ानू: घुटना।