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शनिवार, 3 अगस्त 2013

सुर्ख़ाब क्या हुए ?

शेरो-सुख़न  के   शहर  में   आदाब   क्या  हुए
वो: नाज़   वो: अंदाज़   वो: अहबाब   क्या  हुए

ढूंढा   करे  हैं     जिनको     बहारें    गली-गली
वो:    रश्क़े-माहताब     गुले-आब    क्या  हुए

हालात  की  ग़र्दिश  से  थक  के  चूर  हो  गए
नींदों  के   दरमियान   तेरे  ख़्वाब   क्या  हुए

हम  जन्नतुल-फ़िरदौस  में  हैरान  रह  गए
क़व्वे   हैं    बेशुमार    पे    सुर्ख़ाब  क्या  हुए

निकले  थे  घर  से   हस्रते-तूफ़ां   लिए   हुए
कश्ती  हमारी  देख  के  गिरदाब  क्या  हुए ?

                                                          ( 2013 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: शेरो-सुख़न: काव्य और साहित्य; आदाब: शिष्टाचार;नाज़: गर्व; अंदाज़: शैली; अहबाब: प्रिय-जन, मित्र;
चन्द्रमा के ईर्ष्या-पात्र; गुले-आब: गुलाब, शोभायमान पुष्प; हालात की ग़र्दिश: समय के फेर;  दरमियान: मध्य;
मनमोहक स्वर्ग; सुर्ख़ाब: लाल पंखों वाले दुर्लभ पक्षी; हस्रते-तूफ़ां: तूफ़ान से मिलने की इच्छा; गिरदाब: भंवर।

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

दर पे तेरे बैठे हैं

कितने आसान से अल्फ़ाज़ में  ना करते हो 
वाह  जी  वाह !  दोस्तों को  मना  करते हो !

हसरते-दीद   में   हम   दर  पे   तेरे   बैठे  हैं 
और तुम  ग़ैर के घर जा के   वफ़ा  करते हो 

कल कहा दोस्त आज हमसे दुश्मनी कर ली 
लोग हैरत में हैं क्या कहते हो क्या करते हो 

ये: भी माना के: अब दोस्त नहीं हम तो फिर 
कौन  से  हक़  से  मेरे दिल में  रहा करते हो 

ख़ूब हैं  आपकी  ख़ामोशियां सुब्हान अल्लाह 
तोड़   के  सैकड़ों  दिल   सूम   बना  करते हो 

हम  दीवाने   तुम्हें   बेकार  ही   दिल  दे  बैठे 
तुम  तो  हर  एक  के अश्'आर सुना करते हो 

क़ब्र   में   भी   हमें   तुम   चैन  न   लेने दोगे 
क़त्ल कर फिर से जी उठने की दुआ करते हो !

                                                           ( 2013 )

                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अल्फ़ाज़: शब्द ( बहुव.);हसरते-दीद: दर्शन की अभिलाषा;दर: द्वार;  ग़ैर: पराए; वफ़ा: निर्वाह;  हक़: अधिकार; सूम: घुन्ना, मौनी।

मंगलवार, 30 जुलाई 2013

घर किसका जला आया

हुस्ने-फ़ानी  पे   कहां   दिल  को   लुटा   आया  तू
हाय  कमज़र्फ़!   ख़ुदा   किस  को  बना  आया  तू

बेगुनाही   पे   तेरी    किसको    यक़ीं    होगा  अब
बेवफ़ा   हो   के    दाग़    दिल  पे   लगा   लाया  तू

मिल  चुकी  तुझको  शिफ़ा  मर्ज़े-आशिक़ी  से  यूं
नब्ज़    अत्तार   के    बेटे    को    दिखा   आया  तू

बस्तियों  में  लगा  के  आग    इस  क़दर  ख़ुश  है
ख़बर  भी  है  तुझे   घर  किसका   जला  आया तू

तेरी  नेकी  का  सिला  तुझको  मिलेगा  इक  दिन
ग़ोर   पे    आज    मेरी    शम्'अ   जला  आया  तू

तोड़   के     इक    दिले-मासूम    दुआ    पढ़ता  है
अपनी    इंसानियत    मिट्टी  में   दबा  आया  तू

ज़ार   के   सामने    आवाज़    उठा   के   हक़  की
संगे-बुनियाद    हुकूमत   का    हिला    आया  तू !

                                                                   (2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हुस्ने-फ़ानी: नाशवान सौन्दर्य; कमज़र्फ़: उथला व्यक्ति; बेगुनाही: निर्दोषिता; यक़ीं: विश्वास; शिफ़ा: आरोग्य; मर्ज़े-आशिक़ी: प्रेम-रोग; अत्तार: दवा-विक्रेता; ग़ोर: क़ब्र, समाधि;  नेकी  का  सिला: पुण्य का फल;दिले-मासूम: निर्दोष का हृदय; 
ज़ार: निर्दय, निरंकुश शासक; हक़: न्याय; संगे-बुनियाद: आधारशिला;    हुकूमत: सत्ता।




सोमवार, 29 जुलाई 2013

रहबरों की वुज़ू

इश्क़   में     घर    लुटाए    फिरते  हैं
शर्म    से     सर   झुकाए    फिरते  हैं

क्या  ग़ज़ल  नज़्म  क्या   दिखावे  हैं
सब     हक़ीक़त   छुपाए    फिरते  हैं

हुस्न   को     कोई   शै     हराम  नहीं
सैकड़ों      दिल    चुराए      फिरते  हैं

आप   यूं   शक़   न  कीजिए   हम  पे
हम   युं   ही     मुस्कुराए    फिरते  हैं

याद    वो:     कर    गए    ग़ज़ल  मेरी
भीड़     में      गुनगुनाए      फिरते  हैं

टोपियों     की       दुकां       चलाते  हैं
और   हम     सर   बचाए     फिरते  हैं

क्या   ख़बर    नींद    कहां    आए  हमें
साथ     बिस्तर     उठाए      फिरते  हैं

शैख़    जी      घिर    गए     हसीनों  में
ख़ुल्द      में      बौख़लाए      फिरते  हैं

रहबरों   की     वुज़ू  को    क्या  कहिए
मालो-ज़र    में      नहाए     फिरते  हैं !

                                            ( 2013 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: हक़ीक़त: यथार्थ; शै: वस्तु, कर्म; हराम: अपवित्र, धर्म-विरुद्ध; दुकां: दूकान; ख़ुल्द: स्वर्ग, जन्नत; रहबर: नेता; 
वुज़ू: नमाज़ के  लिए किया जाने वाला शौच-कर्म; मालो-ज़र: समृद्धि और स्वर्ण।

शनिवार, 27 जुलाई 2013

हमारा ख़ूं-बहा

हमारा  ज़र्फ़    गर  मानिंदे-ए-दरिया    हो  गया  होता
तो  पानी  दो-जहां  के   सर  से  ऊपर   बह  रहा  होता

मरासिम  टूटने  के  बाद   ये:  अफ़सोस   मत  करियो
के:  तुमने  ये:  कहा  होता  के:  शायद  वो:  कहा  होता

ख़बर  क्या  थी  हमें   तुम  ही  हमारे  हो  ख़ुदा   वरना
तुम्हारी   दीद  से  पहले    वज़ीफ़ा    पढ़   लिया  होता

बड़ा  मासूम  क़ातिल  था   के:  'हां'  पे  जां   लुटा  बैठा
हमीं  कुछ  सब्र  कर  लेते   तो  शायद  जी  गया  होता

मेरे  एहबाब   मुंसिफ़  से   अगर   फ़रियाद  कर  आते
तो   तख़्तो-ताज  से   ज़्याद:    हमारा    ख़ूं-बहा  होता

तेरे   इक  फ़ैसले  ने    कर  दिया    बदनाम  दोनों  को
न  जलता  दिल  मेरा  तो  क्यूं  ज़माने  में  धुंवा  होता

ज़रा-सा  वक़्त  मिल  जाता  हवा  का  रुख़  बदलने  का
तो   हम  भी  देखते    कैसे    वो:   हमसे    बेवफ़ा  होता !

                                                                           ( 2013 )

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़र्फ़: धैर्य, गहराई; मानिंदे-ए-दरिया: नदी की भांति; मरासिम: सम्बंध;  अफ़सोस: खेद; दीद: दर्शन;
वज़ीफ़ा: अभिमंत्र: क़ातिल: वधिक; एहबाब: मित्र-गण;  मुंसिफ़: न्यायाधिकारी; फ़रियाद: न्याय की मांग; 
तख़्तो-ताज: राजासन एवं मुकुट; ख़ूं-बहा: वध-मूल्य, न्यायोचित क्षति-पूर्त्ति; बेवफ़ा: विमुख।

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

दुआओं में असर

मेरी  आंखों  में    समंदर   वो:    नज़र  आता  है
प्यास  लगती  है  तो  दरिया  मेरे  घर  आता  है

एक   हम  ही   जहां   में    राज़    जानते  हैं   ये:
किस  तरह    ख़्वाब   कोई  ज़ेरे-बहर  आता  है

यक़ीं  न  हो   तो   मेरे  साथ    जाग  कर   देखो
चांद   हर  रात    मेरी  छत  पे   उतर  आता  है

मेरी  सोहबत  का    असर   आइना  बतलाएगा
कैसे    रग़-रग़  पे    नया  नूर  निखर  आता  है

तू  सबाबों  का  सिला  बन  के  मिला  है  मुझको
देख  के    तुझको   ये:   एहसास   उभर  आता  है

मोमिनों !  बाम  पे   आ  जाओ   दुआएं   पढ़  लो
आसमां   से    कोई    मेहमान    इधर    आता  है

सफ़  में  हिर्सो-हवस  को  दिल  से  दूर  ही  रखियो
पाक   दामन     से    दुआओं  में   असर  आता  है !

                                                                    ( 2013 )

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दरिया: नदी; राज़: रहस्य; ज़ेरे-बहर: छंद की सीमा में;  सोहबत: संगति; सबाबों  का  सिला: पुण्य-कर्मों का फल;  एहसास: भाव; मोमिनों: श्रद्धालु-गण; बाम: झरोखा; सफ़: पंक्ति, नमाज़ पढने के लिए लगाई गई; हिर्सो-हवस: ईर्ष्या-द्वेष; पाक  दामन: पवित्र हृदय। 


बुधवार, 24 जुलाई 2013

रंग-ए-वफ़ा कुछ और

ज़ेहन  में  कुछ  और  था  दिल  चाहता  कुछ  और  था
हर  शिकस्ता  आदमी  का   फ़लसफ़ा   कुछ  और  था

आप  जानें   मैकदे  में   आ  के    क्या   हासिल  किया
शैख़  साहब    आपका  तो     मरतबा    कुछ  और  था

क्या   न  जाने    दे  गया    हमको  दवा    वो:  चारागर
इल्मे-तिब्बी   के  मुताबिक़   मशवरा   कुछ  और  था

खैंच    लाते    थे     अकेले     कश्तियां     गिरदाब   से
थे   जवां   जब    तो    हमारा    माद्दा   कुछ    और  था

ढूंढते    थे     सौ    बहाने      लोग     मिलने   के   लिए
कुछ  बरस  पहले   शहर  का   क़ायदा   कुछ  और  था

मंज़िलें   दर   मंज़िलें      हम     छोड़ते      चलते   गए
हम   मुसाफ़िर   थे    सफ़र  से  वास्ता   कुछ  और  था

क्या   अक़ीदत   थी    के:   सूली    चढ़  गए   हंसते  हुए
हज़रत-ए-मंसूर   का     रंग-ए-वफ़ा     कुछ    और  था !

                                                                            ( 2013 )

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ-संदर्भ: ज़ेहन: मस्तिष्क; शिकस्ता: हारे-थके; फ़लसफ़ा: दर्शन;  मैकदा: मदिरालय; शैख़: धर्मभीरु;   
मरतबा: लक्ष्य; चारागर: उपचारक; इल्मे-तिब्बी: चिकित्सा-शास्त्र;  मशवरा: परामर्श; गिरदाब: भंवर; माद्दा:सामर्थ्य; क़ायदा: नियम; वास्ता: सम्बंध;  अक़ीदत: आस्था; हज़रत मंसूर: इस्लाम के अद्वैत वादी दार्शनिक, जिन्होंने 'अनलहक़' का उदघोष किया जिसे तत्कालीन शासक ने ईश्वर-विरोधी मानते हुए उन्हें सार्वजनिक रूप से फांसी पर चढ़वा दिया, कालांतर में उन्हें ईश्वर का संदेश-वाहक ( पैगम्बर )
माना गया; रंग-ए-वफ़ा: प्रमाणित करने का ढंग !