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मंगलवार, 30 जुलाई 2013

घर किसका जला आया

हुस्ने-फ़ानी  पे   कहां   दिल  को   लुटा   आया  तू
हाय  कमज़र्फ़!   ख़ुदा   किस  को  बना  आया  तू

बेगुनाही   पे   तेरी    किसको    यक़ीं    होगा  अब
बेवफ़ा   हो   के    दाग़    दिल  पे   लगा   लाया  तू

मिल  चुकी  तुझको  शिफ़ा  मर्ज़े-आशिक़ी  से  यूं
नब्ज़    अत्तार   के    बेटे    को    दिखा   आया  तू

बस्तियों  में  लगा  के  आग    इस  क़दर  ख़ुश  है
ख़बर  भी  है  तुझे   घर  किसका   जला  आया तू

तेरी  नेकी  का  सिला  तुझको  मिलेगा  इक  दिन
ग़ोर   पे    आज    मेरी    शम्'अ   जला  आया  तू

तोड़   के     इक    दिले-मासूम    दुआ    पढ़ता  है
अपनी    इंसानियत    मिट्टी  में   दबा  आया  तू

ज़ार   के   सामने    आवाज़    उठा   के   हक़  की
संगे-बुनियाद    हुकूमत   का    हिला    आया  तू !

                                                                   (2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हुस्ने-फ़ानी: नाशवान सौन्दर्य; कमज़र्फ़: उथला व्यक्ति; बेगुनाही: निर्दोषिता; यक़ीं: विश्वास; शिफ़ा: आरोग्य; मर्ज़े-आशिक़ी: प्रेम-रोग; अत्तार: दवा-विक्रेता; ग़ोर: क़ब्र, समाधि;  नेकी  का  सिला: पुण्य का फल;दिले-मासूम: निर्दोष का हृदय; 
ज़ार: निर्दय, निरंकुश शासक; हक़: न्याय; संगे-बुनियाद: आधारशिला;    हुकूमत: सत्ता।




1 टिप्पणी:

  1. bahut sunder jivan ko disha-bodh deti kavita jo aaj kaye yug-bodh ka pta deti hai janha hum insaniyat ko mitti mein daba murda/kathbogna bane jite hai.sundar abhibaykti sureshjee...gyan prakash.

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