Translate

शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2014

...बिक गए होते !

हम  ज़रा  और  झुक  गए  होते
अर्श  के  मोल  बिक  गए  होते

साथ  देते  तिरी  हुकूमत  का
तो  बहुत  दूर  तक  गए  होते

आपको  मै  नहीं मिली  वर्ना
जाम  छू  कर  बहक  गए  होते

दिल  किसी  का  ख़राब  हो  जाता
हम  ज़रा  भी  सरक  गए  होते

वो  बग़लगीर  तो  हुए  होते
गुल  शहर  के  महक  गए  होते

एक  दिन  आप  घर  चले  आते
लाख  एहसान  चुक  गए  होते

राह  की  मुश्किलें  गिनी  होतीं
सोचते  और  थक  गए  होते  !

                                                                 (2014)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अर्श  के  मोल: आकाशीय, बहुत ऊंचे मूल्य पर; हुकूमत: सरकार; मै: मदिरा; जाम: मदिरा पात्र; बग़लगीर: आलिंगनबद्ध । 

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014

सुरूर की बातें ...

झूठ  निकलीं  हुज़ूर  की  बातें
सब  फ़रेबो-फ़ितूर   की  बातें

आप  फ़िरक़ापरस्त  हैं, कहिए
किसलिए  पास-दूर  की  बातें ?

रोज़   दंगा-फ़साद-बदअमनी
सीखिए  कुछ  शऊर  की  बातें

जब  तलक  तख़्त  है,  हुकूमत  है
हैं  तभी  तक  हुज़ूर  की  बातें

शाह  हरगिज़  ख़ुदा  नहीं  होता
बंद  कीजे  ग़ुरूर  की  बातें

दिल  हमारा  उलट-पलट  कीजे
सोचिए  कोहे-नूर  की  बातें

अब  हसीं  रू-ब-रू  नहीं  होते
अब  कहां  वो  सुरूर  की  बातें

आएं  घर  तो  कलाम  कर  लीजे
छोड़िए  कोहे-तूर  की  बातें

और  भी  काम  हैं  अदीबों  के
बस,  बहुत  हैं  हुज़ूर  की  बातें  !

                                                             (2014)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: फ़रेबो-फ़ितूर: धूर्तता और उपद्रव; फ़िरक़ापरस्त: सांप्रदायिक; फ़साद: उपद्रव; बदअमनी: अशांति; शऊर: बुद्धिमत्ता; तख़्त: कुर्सी; हुकूमत: शासन; हरगिज़: कदापि; ग़ुरूर: घमंड; कोहे-नूर: संसार-प्रसिद्ध हीरा; हसीं: सुंदर व्यक्ति; रू-ब-रू: समक्ष; सुरूर: उन्माद; 
कलाम:  संवाद, वार्तालाप; कोहे-तूर: मिस्र के साम में एक पर्वत जहां हज़रत मूसा ख़ुदा के साथ संवाद करते थे; अदीबों: साहित्यकारों।


बुधवार, 1 अक्टूबर 2014

दिलरुबा कह दिया ...

बेख़ुदी  में  किसी  ने  ख़ुदा  कह  दिया
तो  हमें  आपने  सरफिरा  कह  दिया !

दुश्मनों  के  कलेजे  सुलग  जाएंगे
भूल  से  आपने  दिलरुबा  कह  दिया

लोग  जाने  हमें  क्या  समझने  लगे
आपकी  नज़्म  पर  'मरहबा'  कह  दिया

बेकरां  रात  में  हिज्र  की  दास्तां
आपने  बिन  सुने  बेवफ़ा  कह  दिया

ख़ुशबुओं  की  तरह  अर्श  तक  छा  गए
वो  जिन्हें  हमने  बाद-ए-सबा  कह  दिया

दो-जहां  की  निगाहें  बदल  जाएंगी
गर  हमें  आपने  अलविदा  कह  दिया

एक  दिन  इक  अज़ाँ   अनसुनी  रह  गई
आसमां  ने  हमें  क्या  न  क्या  कह  दिया !

                                                                            (2014)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति;  दिलरुबा: मन को जीतने वाला; नज़्म: कविता; मरहबा: धन्य, साधु; बेकरां: अंतहीन; 
हिज्र  की  दास्तां: वियोग का आख्यान; बेवफ़ा: निष्ठाहीन; अर्श: आकाश; बाद-ए-सबा: प्रातः की शीतल समीर; 
दो-जहां: दोनों लोक, इहलोक-परलोक; गर: यदि; अलविदा: अंतिम प्रणाम; आसमां: ईश्वर।

मंगलवार, 30 सितंबर 2014

दिल की सदा ...

ख़ुल्द  की  अब  हमें  याद  आती  नहीं
और  हूरें    हमें    अब     बुलाती  नहीं

एक  तो   वक़्त  पर   मौत  आती  नहीं
आए  तो  बिन  लिए  साथ  जाती  नहीं

एक  हम  ही     हमेशा    निशाना  बने
ज़ीस्त  यूं  भी  सभी  को  सताती  नहीं

कोई  शिकवा  नहीं  कोई  रंजिश  नहीं
कुछ  अदाएं  हमें  बस,   लुभाती  नहीं

लोग  अब  इश्क़  से  भी  झुलसने  लगे
इसलिए  बर्क़  दिल  को  लगाती  नहीं

काश!  सुनते  कभी  आप  दिल  की  सदा
तो    नज़र     राह    में    डबडबाती  नहीं

जिस्म  ही  है  सभी  मुश्किलों  की  वजह
रूह  को    कोई   आतिश    जलाती  नहीं  !

                                                                    (2014)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुल्द: स्वर्ग; हूरें: अप्सराएं; ज़ीस्त: जीवन; शिकवा: अप्रसन्नता; रंजिश: वैमनस्य; अदाएं: हाव-भाव; बर्क़: तड़ित, आकाशीय विद्युत; जिस्म: शरीर; रूह: आत्मा; आतिश: अग्नि। 

सोमवार, 29 सितंबर 2014

करिश्मा-ए-क़ातिल...

आप  दिल  में  रहें,  दिल  रहे  न  रहे
दर्द  सहने   के   क़ाबिल  रहे  न  रहे

आज  हालात  अपने  मुआफ़िक़  नहीं
कल  मगर  कोई  मुश्किल  रहे  न  रहे

हम  मुसाफ़िर,  सफ़र  है  हमारी  अना
सामने  राहो-मंज़िल  रहे  न  रहे

रक़्स  करते  हुए  होश  क़ायम  रहें
फिर  यही  रंगे-महफ़िल  रहे  न  रहे

हम  समंदर  हदों  से  गुज़र  जाएं  तो
नामे-दरिय:-ओ-साहिल  रहे  न  रहे

आप  तैयारियां  कीजिए  कूच  की
कल  करिश्मा-ए-क़ातिल  रहे  न  रहे

जीत  लेंगे  शबे-तार  को  आप  हम
शम्ए-माह  शामिल  रहे  न  रहे  !

                                                                       (2014)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़ाबिल:योग्य; हालात: अवस्था; मुआफ़िक़: अनुकूल; अना: प्रयास; राहो-मंज़िल: मार्ग एवं लक्ष्य; रक़्स: नृत्य; होश: चेतना; क़ायम: स्थिर; रंगे-महफ़िल: सभा का वातावरण; नामे-दरिय:-ओ-साहिल: नदी और तट का नाम; कूच: धावा; करिश्मा-ए-क़ातिल: हत्यारे का चिह्न; शबे-तार: अमावस्या; शम्ए-माह: चंद्रमा-रूपी दीपिका। 

रविवार, 28 सितंबर 2014

रेगिस्तान दिल का ...

ये  रेगिस्तान  दिल  का,  यां  समंदर  डूब  जाते  हैं
हमीं  हैं  जो  यहां  तक  भी  गुलों  को  खींच  लाते  हैं

तुम  आंखें  बंद  करके  आईने  में  ढूंढते  क्या  हो
हमारे  ख़्वाब  तो  दिल  में  तुम्हारे  झिलमिलाते  हैं

ख़्यालों  को  कभी  आज़ाद  रख  कर  भी  ग़ज़ल  कहिए
बह् र  की  क़ैद  से  अक्सर  परिंदे  भाग  जाते  हैं

सुना  तो  है  किसी  से,  आप  भी  मायूस  हैं  दिल  से
चले  आएं  यहां,  हम  आपको  नुस्ख़े   बताते  हैं

दिलों  को  लूटने  का  फ़न  कहीं  से  सीख  आते  हैं
यहां  आ  कर  हसीं  सब  दांव  हम  पर  आज़माते  हैं

यहां क्या  है,  वहां  जाओ  जहां  पर  हुस्न  अटका  है
यहां  पर  तो  ज़ईफ़ी  के  निशां  दिल  को  डराते  हैं

हमारी  गोर  को  सब  रौज़:-ए-दरवेश  कहते  हैं
फ़रिश्ते  भी  यहां  आ  कर  अदब  से  सर  झुकाते  हैं !       

                                                                                         (2014)

                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रेगिस्तान: मरुस्थल; समंदर: समुद्र; बह् र: छंद; क़ैद: कारा; परिंदे: पक्षी; मायूस: निराश; नुस्ख़ा: उपचार का उपाय; फ़न: कला; हसीं: सुंदर लोग; हुस्न: सौंदर्य; ज़ईफ़ी  के  निशां: वृद्धावस्था के चिह्न; गोर: क़ब्र, समाधि; रौज़:-ए-दरवेश: चमत्कारी सिद्ध व्यक्ति की दरगाह; अदब: सम्मान। 


शनिवार, 27 सितंबर 2014

हैं आदतन लुटेरे !

हम  पर  निगाह  रखिए,  मग़रूर  हो  न  जाएं
हद  से  कहीं  ज़ियाद:  मशहूर  हो  न  जाएं

डरते  हैं  इश्क़  से  वो:,  ये  आज  की  ख़बर  है
हालात  से  किसी  दिन  मजबूर  हो  न  जाएं

हो  बात  एक  दिन  की  तो  झेल  लें  जिगर  पर
ज़ुल्मो-सितम  ख़ुदा  के  दस्तूर  हो  न  जाएं

सीरत  से,  तरबियत  से,  हैं  आदतन  लुटेरे
ये  रहनुमा  वतन  के  नासूर  हो  न  जाएं 

पर  मिल  गए  अगरचे,  परवाज़  लाज़िमी  है
अरमान  दोस्तों  के  काफ़ूर  हो  न  जाएं

हैं  सर-ब-सज्द:  यूं  कि  माशूक़  है  नज़र  में
इस  खेल  में  ख़ुदा  से  हम  दूर  हो  न  जाएं

अश्'आर  पर  हमारे  सरकार  की  नज़र  है
सच  बोल कर  किसी  दिन,  मंसूर  हो  न  जाएं !

                                                                               (2014)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मग़रूर: गर्वोन्मत्त; ज़ुल्मो-सितम: अन्याय-अत्याचार; दस्तूर: प्रथा, चलन; सीरत: स्वभाव; तरबियत: सभ्यता  के  संस्कार; आदतन: प्रवृत्ति से; रहनुमा: नेता-गण; नासूर: ऐसा घाव जिसमें कीड़े पड़ जाते हैं; अगरचे: यदि कहीं;  परवाज़: उड़ान;  लाज़िमी: आवश्यक; काफ़ूर: कर्पूर; सर-ब-सज्द:: साष्टांग प्रणाम; माशूक़: प्रेमी/प्रेमिका; अश्'आर: शे'र (बहु.); मंसूर: हज़रत मंसूर: इस्लाम के एक पैग़ंबर, अद्वैतवादी दार्शनिक, जिनके 'अनलहक़' ('अहं ब्रह्मास्मि' ) कहने पर उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया था।