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शनिवार, 14 सितंबर 2013

ये: ख़ूं-रेज़ी ये: वहशत..

चलो  बस  ठीक  है  हम  ही  क़दम  पीछे  हटाते  हैं
ज़रा  देखें  तो  हम  भी    आप    कैसे  दूर  जाते  हैं

हमारे   साथ    उनके  नाज़-ओ-अंदाज़    वाहिद  हैं
कभी  नज़रें    मिलाते  हैं    कभी  आंखें  दिखाते  हैं

बड़े    ख़ुद्दार   बनते  हैं    न  आएं     ख़्वाब  में  मेरे
यहां  क्या  दावतें  दे-दे  के  महफ़िल  में  बुलाते  हैं

सियासत  ने  ज़रा  सी  देर  में   ख़ू  ही  बदल  डाली
ज़िबह  करते  हुए  भी  आजकल  वो:  मुस्कुराते  हैं

इसी  को  लोग  अपना  धर्म  या  मज़हब  समझते  हैं
किसी  की  जान  लेते  हैं    किसी  का  घर  जलाते  हैं

ये:  ख़ूं-रेज़ी  ये:  वहशत  तो  महज़  तफ़रीह  है  उनकी
मगर   इस  ज़ौक़    में    लाखों     घरोंदे    टूट  जाते  हैं

बसाया  हमने  अपने  दिल  में  जबसे  नाम  मौला  का
फ़रिश्ते  भी     हमारे    घर  के  आगे    सर  झुकाते  हैं !

                                                                             ( 2013 )

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नाज़-ओ-अंदाज़: भाव-भंगिमाएं; वाहिद: नितांत भिन्न, अनूठे; ख़ुद्दार: स्वाभिमानी; महफ़िल: सभा;
ख़ू: चारित्रिक विशिष्टता; ज़िबह: धर्म-सम्मत रूप से वध; ख़ूं-रेज़ी: रक्त-पात; वहशत: उन्माद; ज़ौक़: मनोरंजन।




गुरुवार, 12 सितंबर 2013

ख़ुदकुशी का गुनाह

ख़्वाब  पर     ऐतबार    कर  लीजे
ज़िंदगी   को     बहार    कर  लीजे

ख़ुदकुशी  का   गुनाह   मत  कीजे
इश्क़  का    रोज़गार     कर  लीजे

दर्द  को   दीजिए   जगह  दिल  में
शाइ'री  को    क़रार     कर   लीजे

हम  भी  आख़िर  ख़ुदा  के  बंदे  हैं
दोस्तों   में     शुमार     कर  लीजे

रफ़्ता-रफ़्ता    पिघल  रहे  हैं   वो:
और  कुछ    इंतज़ार    कर  लीजे

है   सियासत   पसंद     तो  पहले
रूह   को     दाग़दार      कर  लीजे

छू   न   पाएंगे     अज़्मते-ग़ालिब
आप  कोशिश  हज़ार    कर  लीजे !

                                           ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ऐतबार: विश्वास; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या; गुनाह: पाप, अपराध; क़रार: सांत्वना का साधन;  बंदे: अनुयायी, मानने वाले;   
शुमार: सम्मिलित;   रफ़्ता-रफ़्ता: धीमे-धीमे;    सियासत: राजनीति, छल-कपट;    रूह: आत्मा;     दाग़दार: कलंकित; 
अज़्मते-ग़ालिब: महान शायर जनाब मिर्ज़ा ग़ालिब की प्रतिष्ठा, उच्च स्थान ।

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

जहां साहिल नज़र आया...

सबा   आए    सहर   आए    परिंदों    की    सदा  आए
हमारा  दिल  खुला  है  जिसकी  मर्ज़ी  हो  चला  आए

दिया  करते  थे  हरदम  बद्दुआ  रस्मे-वफ़ा  को  हम
करम  की  इन्तेहा    ये:   है    हमारे  घर  ख़ुदा  आए

खड़े  हैं  तश्ना-लब   घर  फूंक  के   राहे-तसव्वुफ़  में
मिलें  गर  पीर  से  नज़रें  तो  जी-भर  के  नशा  आए

किया  गिर्दाब  से  गर  इश्क़  हमने  तो  निभाया  भी
जहां  साहिल    नज़र  आया   सफ़ीने  को  डुबा  आए

सभी  कुछ  सोच  के  थामा  है   हमने   दामने-मौला
जज़ा  आए   क़ज़ा  आए   के:  जीने  की  सज़ा  आए

ख़याले-यार  ने    जिस  दिन    ख़ुदा  से    दूर  बैठाया
उसी  दिन   हम    सुबूते-आशनाई   को    मिटा  आए

सियासत  के  दरिंदों  ने  शहर  को  ख़ाक़  कर  डाला
ख़ुदा  उतरे  दिलों  में  तो   उम्मीदों  की  शुआ  आए  !

                                                                       ( 2013 )

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सबा: प्रातः समीर; सहर: उषा; सदा: स्वर, पुकार; बद्दुआ: अभिशाप;  रस्मे-वफ़ा: निर्वाह-प्रथा; करम: कृपा; इन्तेहा: अति, सीमा;  तश्ना-लब: प्यासे होंठ; भक्ति-मार्ग, पूर्ण समर्पण का मार्ग; पीर: गुरु, ईश्वर-प्राप्ति का माध्यम; गिर्दाब: भंवर;  साहिल: किनारा; 
सफ़ीने को: नाव को; मौला: हज़रत मौला अली, ख़ुदा के सच्चे सेवक;जज़ा: पारितोषिक; क़ज़ा: मृत्यु; सज़ा: दंड; 
ख़याले-यार: प्रिय का ध्यान; सुबूते-आशनाई: प्रेम के प्रमाण; सियासत: राजनीति;   दरिंदों: हिंस्र पशुओं;   ख़ाक़: राख़; शुआ: किरण। 

सोमवार, 9 सितंबर 2013

क़ौम से दग़ा...

तमाम   उम्र    गुज़ारी  है     ये:  दुआ  करते
हमारे  दोस्त   किसी  रोज़  तो  वफ़ा  करते

कहीं    सुराग़  तो  पाएं     के:    ऐतबार  करें
वो:  इश्क़  में  हैं  तो  क्यूं कर  न  राब्ता  करते

हमें  उम्मीद  नहीं  अब  किसी  शिफ़ाई  की
तबीब  थक  चुके  हैं  मुल्क  की  दवा  करते

ये:  हुक्मराने-वतन  हैं  के:  दुश्मने-जां  हैं
ज़रा  भी  शर्म  नहीं  क़ौम  से  दग़ा  करते

उन्हें  क़ुसूर  न  दीजे  के:  बदगुमां  हैं  वो:
हमीं  को  वक़्त  नहीं  था  के:  आशना  करते

वहां  वो:  बज़्मे-दुश्मनां  में  पढ़  रहे  हैं  ग़ज़ल
यहां    तड़प   रहे  हैं    हम     ख़ुदा-ख़ुदा  करते

मेरे  शहर  में  नफ़रतों  के  बीज  मत  बोना
यहां  ज़मीं  में    असलहे    नहीं  उगा  करते  !

                                                              ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: वफ़ा: निर्वाह; चिह्न, संकेत, सूत्र; ऐतबार: विश्वास; राब्ता: संपर्क; शिफ़ाई: आरोग्य; तबीब: चिकित्सक;
हुक्मराने-वतन: देश के शासक; दुश्मने-जां: प्राण-शत्रु; क़ौम: राष्ट्र; दग़ा: धोखाधड़ी; क़ुसूर: दोष; बदगुमां: भ्रमित, बहके हुए; 
आशना: संगी-साथी; बज़्मे-दुश्मनां: शत्रुओं के आयोजन, सभा; नफ़रतों: घृणाओं; असलहे: अस्त्र-शस्त्र।

रविवार, 8 सितंबर 2013

तूफ़ां कहां ठहरते हैं ?

लोग  न  जाने    क्या  क्या    बातें  करते  हैं
हम  तो  लब  की  ज़ुम्बिश  से  भी  डरते  हैं

तंज़ीमें    मज़हब  को    खेल    समझती  हैं
जाहिल  इन्सां    आपस  में   लड़  मरते  हैं

हम  मुफ़लिस  तो   ईंधन  हैं   सरमाए  का
ज़िंदा     रहने     का     जुर्माना     भरते  हैं

बेबस  अक्सर    चट्टानी  दिल    रखते  हैं
अपने     आगे     तूफ़ां     कहां    ठहरते  हैं

ज़र्फ़  समंदर  का  जब  भी  कम  होता  है
साहिल  के    सीने  पे     क़हर  गुज़रते  हैं  !

                                                          ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: लब की ज़ुम्बिश: होंठ की थिरकन; तंज़ीमें: राजनैतिक दल, संगठन; मज़हब: धर्म; जाहिल: अनपढ़, अल्प-बुद्धि; 
मुफ़लिस: निर्धन; सरमाए: पूँजी; जुर्माना: अर्थ-दण्ड; ज़र्फ़: गहराई, धैर्य; साहिल: तटबंध। 

शनिवार, 7 सितंबर 2013

रुख़ बदल ही गया ...

ज़ब्त    करते  हैं   मुस्कुराते  हैं
हिज्र  में   भी   वफ़ा  निभाते  हैं

हम  किसी  को  दग़ा  नहीं  देते
सब  यही    फ़ायदा    उठाते  हैं

ख़ाक़  हो  जाएं  तो   होने  दीजे
आप  ही   तो    हमें  जलाते  हैं

हम   हक़ीक़त-पसंद   हैं  यारों
वक़्त  को   आइना  दिखाते  हैं

नींद  आने   लगी    हमें  जबसे 
ख़्वाब आ-आ  के लौट  जाते  हैं

रुख़ बदल ही गया  हवाओं  का
रूठ  के    वो:    हमें  मनाते  हैं

जिसको बंदों की फ़िक्र होती  है
हम  उसी  को   ख़ुदा  बताते  हैं  !

                                         ( 2013 )

                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ब्त: संयम; हिज्र: वियोग; वफ़ा: आस्था; दग़ा: धोखा; ख़ाक़: राख;  हक़ीक़त-पसंद: यथार्थवादी;  
 मुद्द'आ: विवाद का विषय; रुख़: दिशा;  बंदों: भक्तों। 

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

ख़्वाब बेसहारे हैं !

दोस्त    यूं    तो    कई    हमारे  हैं
आप   लेकिन   सभी  से  प्यारे  हैं

आज  फिर  नींद  ने  फ़रेब  किया
आज  फिर    ख़्वाब     बेसहारे  हैं

चोट    गहरी   हुई  सी    लगती  है
तीर  ये:  किस   नज़र  ने  मारे  हैं

लोग    वो:    ख़ुशनसीब    हैं  सारे
जो    ग़मे-ज़ीस्त    के   सहारे  हैं

हमको  तारीकियां  मिटा   न  सकीं
हम   फ़क़त   रौशनी  से   हारे  हैं

आपकी    हर  निगाह   के  सदक़े
क़र्ज़      हमने     कई    उतारे  हैं

शुक्रे-अल्लाह     मौत     आई  है
मेरे  अश'आर   अब   तुम्हारे  हैं !

                                             ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़रेब: छल; जीवन-दुःख; तारीकियां: अंधकार; फ़क़त: मात्र;  सदक़े: न्यौछावर; शुक्रे-अल्लाह: अल्लाह की कृपा; 
अश'आर: शे'र का बहुवचन।