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शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

मियां ! दीवानगी क्यूं...?


शराफ़त  पर  किसी    की  आपको  शर्मिंदगी  क्यूं   है
न  जाने   आपके  औसाफ़  में    ऐसी    कमी   क्यूं  है

हमें  जिसने    गिराया  था    ज़माने  की   निगाहों  में
हमारे  चश्म   में   उसके  लिए   इतनी   नमी  क्यूं  है

चला  कर  पीठ  पर  ख़ंजर  जो   एहसां  भी   जताते  हैं
लबों   पर  आज  फिर  उनके  ये  लफ़्ज़े-दोस्ती  क्यूं  है

हमारी   जान    ले   कर  भी    हमीं  पर   जान  देते  हो
हमारे   वास्ते    अब  भी     मियां !   दीवानगी   क्यूं  है

वही   जानें     वही   समझें     ये   कैसा    इस्तगासा  है
हमारा  जुर्म    ज़ाहिर  है    तो  ये    रस्साकशी   क्यूं  है

हमारा वक़्त आया   चल दिए   कह कर   'ख़ुदा हाफ़िज़'
दिले-एहबाब   में    इस बात पर   मीठी  ख़ुशी   क्यूं  है

हमारे  ग़म    उसी  के  हैं     हमारी    हर   ख़ुशी  उसकी
ख़ुदा   है  दोस्त  भी  है  तो  अभी   तक  अजनबी क्यूं है ?

                                                                                             (2015)

                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शराफ़त: शिष्टता; शर्मिंदगी: लज्जा का अनुभव; औसाफ़: प्रकृतिगत विशिष्टताएं, अच्छाइयां; चश्म:नयन, दृष्टि; ख़ंजर: क्षुरी; एहसां: अनुग्रह; लबों: होठों; लफ़्ज़े-दोस्ती: मित्रता  का शब्द; दीवानगी: उन्मत्त प्रेम;   इस्तगासा: न्यायालय में प्रस्तुत किया जाने वाला अपराध का विवरण; जुर्म: अपराध;  ज़ाहिर:प्रकट, सिद्ध; ख़ुदा हाफ़िज़: 'ईश्वर रक्षा करे'; मित्रों के हृदय;  अजनबी:अपरिचित।

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

नूर का जल्वा ...

ख़ुल्द  में   किस  पर   भरोसा  कीजिए
अजनबी  है  यह  शह्र     क्या  कीजिए

इश्क़   है     कोई   ग़ुलामी     तो  नहीं
क्यूं  हमें   हर  दिन   सताया  कीजिए

इश्क़  तोहफ़ा  है  ख़ुदा  का  ख़ल्क़  को
यह  करम   यूं  ही   न  ज़ाया  कीजिए

है    हमारा   दिल   गुलाबों   की   तरह
रोज़   क़िस्मत  को    सराहा   कीजिए

दिल    गवाही  दे    इबादत  की   कहीं
शौक़  से   सर  को   झुकाया   कीजिए

आपकी  ख़ू  भी   ख़ुदा  से    कम  नहीं
दर्दमंदी        से      संवारा      कीजिए

मान   लेंगे    आपको   ही    हम  ख़ुदा
कोई  तो   लेकिन   करिश्मा  कीजिए

देखना  है    नूर   का    जल्वा    अगर
तो  हमें   घर  पर   बुलाया    कीजिए !

                                                                          (2015)

                                                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ख़ुल्द: स्वर्ग; तोहफ़ा: उपहार; ख़ल्क़: सृष्टि; करम: कृपा; ज़ाया: व्यर्थ; क़िस्मत: भाग्य; सराहा: प्रशंसित; गवाही: स्वीकृति; इबादत: प्रार्थना; ख़ू: व्यक्तित्व, विशिष्ट गुण; दर्दमंदी:सहृदयता, संवेदनशीलता; संवारा: सजाया; करिश्मा: चमत्कार; नूर का जल्वा : ईश्वरीय प्रकाश का दृश्य।

मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

...तो ना बुलाएं

दीजिए  दिल  से  दुआएं  अब  हमें
मौत    देती  है   सदाएं    अब  हमें

शह्र  की  रंगीनियां  बस  हो  चुकीं
याद  करती  हैं  ख़लाएं  अब  हमें

उम्र  भर  जो   रौशनी   देती  रहीं
भूल  बैठीं  वो  शुआएं   अब  हमें

जी  जलाने  को  बहारें  हैं  बहुत
चैन  देती  हैं  ख़िज़ाएं  अब  हमें

ज़र्र:  ज़र्र:  बंट  चुके  हैं  उन्स  में
दोस्त  क्यूं  कर  आज़माएं  अब  हमें

बदगुमानी  दुश्मनी  रुस्वाइयां
दीजिए  क्या  क्या  सज़ाएं  अब  हमें

नफ़्स  घुटती  जा  रही  है  दम  ब  दम
देखना  है  देख  जाएं  अब  हमें

गर  मकां  ख़ाली  नहीं  है  अर्श  पर
बे-वजह  तो  ना  बुलाएं  अब  हमें  !'

                                                                         (2015)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दुआएं: शुभ कामनाएं; सदाएं: आमंत्रण; शह्र: शहर, नगर; ख़लाएं: एकांत, निर्जन स्थान; रौशनी: प्रकाश; शुआएं: किरणें; बहारें: बसंत; चैन: संतोष; ख़िज़ाएं: पतझड़: ज़र्र:  ज़र्र:: कण कण; उन्स: स्नेह; क्यूं  कर: किस कारण; बदगुमानी: अनुचित धारणा; दुश्मनी: शत्रुता; रुस्वाइयां: अपमान; नफ़्स: सांस; दम  ब  दम: प्रति पल; गर: यदि; मकां: आवास; अर्श: आकाश, परलोक; बे-वजह: अकारण।  

सोमवार, 21 दिसंबर 2015

तवील राहे-उमीद...

हां  वो  शख़्स  मेरा  रक़ीब  था  मेरे  मक़बरे  से  चला  गया
मेरी  मग़फ़िरत  की  दुआएं  कीं  एक  शम्'.अ  रख  के  चला  गया

ये  भी  अपना  अपना  जुनून  है  मैं  झुका  नहीं  तू  रुका  नहीं
तू  कि  दिल  से  दूर  चला  गया  मैं  क़रीब  होते  चला  गया

हां  तेरी  ख़ुदाई  कमाल  है  मेरी  बंदगी  भी  मिसाल  है
तेरा  दर  कि  मुझपे  खुला  नहीं  मैं  ही  बैठे  बैठे  चला  गया

मेरी  नब्ज़  छू  के  तू  रो  दिया  मेरी  रूह  साथ  सिसक  उठी
ऐ  तबीब ! ग़म  की  दवा  न  दे  मैं  तेरे  जहां  से  चला  गया

तू  निबाह  कर  कि  तबाह  कर  तेरा  घर  ख़ुशी  से  भरा  रहे
मेरा  क्या  है  मैं  तो  फ़क़ीर  हूं  कि  नए  सफ़र  पे  चला  गया

है  तवील  राहे-उमीद  ये  मुझे  सब्र  हो  तो  कहां  तलक
मेरी  आह  भी  न  तू  सुन  सका  तो  मैं  अश्क  थामे  चला  गया

मुझे  जब  लगा  कि  तू  है  ख़ुदा  मेरा  सज्दा  ख़ुद  ही  अता  हुआ
कभी  शक़  हुआ  तेरी  ज़ात  पर  मैं  नज़र  बचाए  चला  गया  !

                                                                                                       (2015)

                                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शख़्स: व्यक्ति; रक़ीब: प्रतिद्वंदी; मक़बरा: समाधि; मग़फ़िरत: मोक्ष; जुनून : उन्माद; ख़ुदाई: ईश्वरत्व; बंदगी: भक्ति-भाव; 
कमाल: चमत्कारी; मिसाल : उदाहरण; दर:द्वार; नब्ज़ : नाड़ी; रूह: आत्मा; तबीब : वैद्य; जहां: संसार; निबाह : निर्वाह; तबाह: उद्ध्वस्त; फ़क़ीर:सन्यासी; सफ़र:यात्रा;  तवील: लंबी; राहे-उमीद: आशा का मार्ग; सब्र: धैर्य; दंडवत प्रणाम; अता : पूर्ण; ज़ात:अस्तित्व।

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

दिलों की ताजदारी...

हमारे  हाथ  ख़ाली  हैं  तुम्हारी  जेब  भारी  है
हमारी  शर्मसारी   में   तुम्हारी  होशियारी  है

न  जाने  किस  अदा  पर  सब  तुम्हें  दिल  से  लगाते  हैं
तुम्हारे  हर  करम  में  जब्रो-ज़ुल्मत  ख़ूनख़्वारी   है

सियासत  'आप' को  भी  सब्र  से  जीना  सिखा  देगी
अभी  तिफ़्ली  समझ  की  सादगी  है  बे-क़रारी  है

तुम्हें  सर  चाहिए  ही  था  तो  सीधे  मांगते  हमसे
हमें  भी  जान  से  ज़्याद:  तुम्हारी  आन  प्यारी  है

वो  अपने   क़स्रे-शाही  शानो-शौक़त  साथ  ले  जाएं
हमारे  पास  सदियों  से  दिलों  की  ताजदारी  है

उन्हें  आना  पड़ेगा  अर्श   से  नीचे  उतर  कर  भी
अना  के  सामने  उनकी  हमारी  ख़ाकसारी  है

हमें  माशूक़  करके  आप  ही  पछताएंगे  मोहसिन
हमारी   राह  में    ग़म  हैं     ख़ुदी  है      बुर्दबारी  है  !

                                                                                         (2015)

                                                                                  -सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ: शर्मसारी: लज्जा, अपमानजनक स्थिति; होशियारी : चतुराई; अदा: भाव-भंगिमा; करम: कृपा; जब्रो-ज़ुल्मत: बल-प्रयोग और अत्याचार; ख़ूनख़्वारी: रक्त-पिपासा; सब्र: धैर्य; तिफ़्ली : बचकानी; सादगी: सीधापन; बे-क़रारी: व्यग्रता; सर: शीश; आन: आत्म-सम्मान; क़स्रे-शाही: राजमहल;  अदा: भाव-भंगिमा; करम: कृपा; जब्रो-ज़ुल्मत: बल-प्रयोग और अत्याचार; ख़ूनख़्वारी: रक्त -पिपासा; शानो-शौक़त: ऐश्वर्य और समृद्धि; ताजदारी: राजमुकुट, साम्राज्य; अर्श: आकाश; अना: अहंकार; ख़ाकसारी: अकिंचनता, विनम्रता; माशूक़: प्रिय / प्रेमी; मोहसिन: अनुग्रही, कृपालु; ग़म: दुःख; ख़ुदी: आत्म-बोध; बुर्दबारी: सहिष्णुता।  

गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

हौसला कमीनों का

ज़िक्र  मत  छेड़िए  हसीनों  का
रंग  धुल  जाएगा  जहीनों  का

वक़्त  बेवक़्त  याद  मत  कीजे
ज़ख़्म  खुल  जाएगा  महीनों  का

शायरी  दिल  दिमाग़  की  शै  है
यह  करिश्मा  नहीं  मशीनों  का

ख़ूबसूरत  लिबास  मत  देखो
सांप  है  सांप  आस्तीनों  का

रोज़  तकरीर  ताजदारों  की
रोज़  मजमा  तमाशबीनों  का

दंग  है  आज  फ़ौजे-शाही  भी
देख  कर  हौसला  कमीनों  का

जान  गिर्दाब  में  गई  जिसकी
नाख़ुदा  था  कई  सफ़ीनों  का

बढ़  रहा  है  ज़मीने-मोमिन  से
फ़ायदा  अर्श  के  मकीनों  का  !

                                                           (2015)

                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़िक्र: प्रसंग; ज़हीनों: बुद्धिजीवियों, विद्वानों; वक़्त बेवक़्त: समय-असमय; ज़ख़्म: घाव; शै: वस्तु; करिश्मा:चमत्कार; 
लिबास: परिधान; तकरीर: भाषण; ताजदारों: शासकों; मजमा: भीड़; तमाशबीनों: दर्शकों;  दंग:चकित; फ़ौजे-शाही: राजकीय सेना; हौसला:उत्साह, वीरता; कमीनों: मज़दूर-कामगार; गिर्दाब: भंवर; नाख़ुदा: मल्लाह; सफ़ीनों: नावों; ज़मीने-मोमिन:भक्तों/ आस्तिकों की भूमि; अर्श:आकाश, स्वर्ग; मकीनों:निवासियों।




बुधवार, 16 दिसंबर 2015

मुहब्बत की मार...

हर  वक़्त  सर  पे  इश्क़  का  साया  सवार  हो
तो  ख़ाक  आशिक़ों  को  फ़िक्रे-रोज़गार  हो  !

शीरीं  निगाह  से  न  देखिए  हमें  मियां
तलवार  थामिए  तो  ज़रा  धारदार  हो

जो  नफ़्रतों  की  आग  लगाने  में  हैं  महव
अल्लाह  करे  उनपे  मुहब्बत  की  मार  हो

कमतर  ज़राए  माश  कहीं  जुर्म  नहीं  हैं
क्यूं  शायरे-ग़रीब  यहां  शर्मसार  हो

मुफ़लिस  थे  हम  तो  आप  गुज़ारा  न  कर  सके
ले  आइए  रक़ीब  जो  सरमाय:दार  हो

ऐ  ताइरे-उमीद  अभी  अलविदा  न  कह
शायद  यहीं  नसीब  में  फ़स्ले-बहार   हो

चलते  हैं  सैर  करके  देखते  हैं  अर्श  की
शायद  वहां  हमारा  कहीं  इंतज़ार  हो  !

                                                                                            (2015)

                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इश्क़ का साया: प्रेम का भूत; ख़ाक: व्यर्थ; फ़िक्रे-रोज़गार:आजीविका की चिंता; शीरीं  निगाह: मीठी दृष्टि; नफ़्रतों:घृणाओं; महव: व्यस्त; कमतर:न्यून, हीनतर;  ज़राए माश: आजीविका/आय के साधन; जुर्म: अपराध; शायरे-ग़रीब: निर्धन शायर, निर्धनों का शायर; शर्मसार: लज्जित, अपमानित; मुफ़लिस: धनहीन;
गुज़ारा: निर्वाह; रक़ीब: प्रतिद्वंद्वी;  सरमाय:दार:पूंजीपति, समृद्ध; ताइरे-उमीद: आशाओं के पक्षी; अलविदा :अंतिम प्रणाम;   नसीब:प्रारब्ध; फ़स्ले-बहार: पूर्ण बसंत; अर्श:आकाश।