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शनिवार, 2 मई 2015

दुश्मनों को सलाम...

अर्श  ने  सर  झुका  दिया  मेरा
ख़ुम्र   पानी   बना    दिया  मेरा

आपकी   आतिशी   निगाहों  ने
पाक  दामन  जला  दिया  मेरा

चांद  ने शबनमी  शुआओं  पर
नाम  लिख  कर  मिटा  दिया  मेरा

रोज़  तोड़ो  हो,   रोज़  जोड़ो  हो
दिल  तमाशा  बना  दिया  मेरा

दुश्मनों  को  सलाम  कर  आई
मौत  ने  घर  भुला  दिया  मेरा

वक़्त  ने  इम्तिहां  लिया  जब  भी
साथ  दिल  ने  निभा  दिया  मेरा

मग़फ़िरत  क्या  हुई,  ज़माने  ने 
अज़्म  ऊंचा  उठा  दिया  मेरा

ख़ुल्द  में  थी  कमी  फ़क़ीरों  की
पीर  ने   घर   बता  दिया  मेरा !

                                                                  (2015)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अर्श: आकाश, ईश्वर; ख़ुम्र: मदिरा; आतिशी: अग्निमय; पाक  दामन: पवित्र हृदय; शबनमी: ओस-जैसी; शुआओं: किरणों; मग़फ़िरत: मोक्ष; अज़्म: सांसारिक स्थान; ख़ुल्द: स्वर्ग; फ़क़ीरों:निस्पृह व्यक्ति; पीर: आध्यात्मिक संबल, गुरु ।


बुधवार, 29 अप्रैल 2015

ये ख़ुराफ़ात...

इश्क़  की  बात  मत  कीजिए
ये    ख़ुराफ़ात    मत  कीजिए

'कौन  हैं'  'किसलिए  आए  हैं'
यूं    सवालात    मत  कीजिए

वस्ल  का   हौसला   ही  न  हो
तो   मुलाक़ात    मत  कीजिए

दोस्त     हैं,     दोस्ती   ही  रहे
कुछ  इज़ाफ़ात  मत  कीजिए

रूह   पर    बार     बनने   लगें
वो     इनायात   मत  कीजिए

हम  कहां,  शाहे-वहशत  कहां
फ़ालतू     बात   मत  कीजिए

लीजिए,   आ   गए     रू-ब-रू
अब  मुनाजात   मत  कीजिए

ज़लज़लों   से    ढहे    शह्र  में
या  ख़ुदा ! रात  मत  कीजिए  !

                                                              (2015)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुराफ़ात: उपद्रव; सवालात: प्रश्न (बहु.); वस्ल: मिलन; हौसला: साहस, मनोबल; इज़ाफ़ात: अभिवृद्धियां; बार: बोझ, भार;  इनायात: कृपाएं, देन; शाहे-वहशत: वन्य मनोवृत्ति का राजा; फ़ालतू: निरर्थक;
रू-ब-रू: प्रत्यक्ष, मुखामुख; मुनाजात: स्तुति-गान; ज़लज़लों: भूकंपों ।


मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

चांद मरने लगा...

आप  एहसान  मत  कीजिए
जान  हलकान  मत  कीजिए

शक्ल  ही  जब  गवारा  नहीं
जान  पहचान  मत  कीजिए

ठीक   है,  हम   हुए  आपके
अब  परेशान  मत  कीजिए

चांद  मरने  लगा  आप  पर
और  हैरान   मत   कीजिए

जाइए    लौटने    के   लिए
घर  बियाबान  मत  कीजिए

मुश्किलें  आएं,   आती  रहें
रोज़  मेहमान  मत  कीजिए

ख़ून  में  हो   सुफ़ैदी   अगर
सुर्ख़  अरमान  मत  कीजिए

क़ातिलों  की  ख़ुशी  के  लिए
ख़्वाब  क़ुर्बान  मत  कीजिए

आप  ख़ुद को  ख़ुदा  मान कर
पोच    ऐलान    मत  कीजिए

ज़लज़ला  हो  कि  सैलाब  हो
राह   आसान    मत  कीजिए

                                                        (2015)

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  एहसान: अनुग्रह; हलकान: थकान से शिथिल; गवारा: सहनीय; बियाबान: शोभा विहीन, निर्जन; सुफ़ैदी: श्वेताभा; सुर्ख़ अरमान: उत्तेजनापूर्ण अभिलाषा; क़ुर्बान: बलिदान; पोच: खोखला, निरर्थक; ऐलान: घोषणा; ज़लज़ला: भूकंप; सैलाब: बाढ़ ।

                                                            



रविवार, 26 अप्रैल 2015

मैं क्या बोलूं ?

क़ह्र  से  हुक्मरां  ख़ुश  हैं,  मैं  क्या  बोलूं
परस्तारे-ख़िज़ां  ख़ुश   हैं,  मैं  क्या बोलूं

लगा  कर  दाग़  मुझ  पर  बुतपरस्ती  का
अगर  वो  मेह्रबां  ख़ुश  हैं,  मैं  क्या  बोलूं

अभी  भी    शाह  से    उम्मीद  रखते  हैं
हज़ारों  नौजवां  ख़ुश  हैं,  मैं  क्या  बोलूं

सफ़र  भटका  हुआ  है  ख़ुशनसीबी  का
अमीरे-कारवां  ख़ुश  हैं,  मैं  क्या  बोलूं

ख़ुदा  ने  छीन  ली  छत  भी  ग़रीबों  से
रईसों  के  मकां  ख़ुश  हैं,  मैं  क्या  बोलूं

हमारे  हाथ  है    परचम     बग़ावत  का
शह्र   के  बेज़ुबां  ख़ुश  हैं,  मैं  क्या  बोलूं

बचा  ली  ज़लज़ले  ने  शर्म  आंखों  की
ख़ुदा  के  राज़दां  ख़ुश  हैं,  मैं  क्या  बोलूं  ?

                                                                              (2015)

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़ह्र: आपदा; हुक्मरां: शासक गण; परस्तारे-ख़िज़ां: पतझड़ के समर्थक; दाग़: कलंक; बुतपरस्ती: व्यक्ति-पूजा; मेह्रबां: कृपालु; ख़ुशनसीबी: सौभाग्य; अमीरे-कारवां: यात्री-समूह के प्रमुख; रईसों: धनवानों; मकां: घर; परचम: ध्वज, पताका; बग़ावत: विद्रोह; शह्र: शहर, नगर; बेज़ुबां: वाणी रहित, दीन-हीन लोग;   ज़लज़ले: भूकंप; राज़दां: रहस्य जानने वाले ।

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

ख़ुदा नहीं देंगे !

'दिल न देंगे', 'दुआ नहीं देंगे'
और बतलाएं, क्या नहीं देंगे !

जान देंगे मगर करीने से
आपको मुद्द'आ नहीं देंगे

देख ली आपकी वफ़ा हमने
दिल कभी आईंदा नहीं देंगे

ख़ूब हैं चार:गर हमारे भी
दर्द देंगे, दवा नहीं देंगे

ख़्वाब की खिड़कियां खुली रखिए
क्या हमें रास्ता नहीं देंगे ?

और कुछ दें, न दें गुज़ारिश है
आप अब फ़लसफ़ा नहीं देंगे

शाह अब अर्श पर मकां कर ले
हम ज़मीं को सज़ा नहीं देंगे

बेईमां हों अगर सियासतदां
कौन-से दिन दिखा नहीं देंगे


हो सके तो हमें मिटा देखें
.खौफ़ से तो ख़ुदा नहीं देंगे !

                                                                 (2015)

                                                           -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: करीने से: व्यवस्थित रूप से; मुद्द'आ: टिप्पणी करने का अवसर, विषय; वफ़ा: निष्ठा; आईंदा: आज के बाद; चार:गर: उपचारक; गुज़ारिश: अनुरोध; फ़लसफ़ा: दर्शन, कोरे आश्वासन, झांसा; अर्श: आकाश, स्वर्ग;   मकां: आवास, गृह; ज़मीं: पृथ्वी; सज़ा: दंड; 
बेईमां: निष्ठाविहीन; सियासतदां: राजनीति करने वाले; .खौफ़: भय । 

गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

ग़ुरूर का पुतला ...

आजकल  कौन  घर  में  रहता  है
हर  दरिंदा  ख़बर  में  रहता  है

दिल  झुका  है  हुज़ूर  में  जिसके
वो  हसीं  किस  शहर  में  रहता  है

इश्क़ो-उन्सो-ख़ुलूस  का  रिश्ता
दोस्ती  की  बह् र  में  रहता  है

हक़परस्ती  शुऊर  है  जिसका
दुश्मनों  की  नज़र  में  रहता  है

शाह  है  या  ग़ुरूर  का  पुतला
किस  अना  के  असर  में  रहता  है

साथ  को  अस्लहे  ज़रूरी  हैं
शाह  किस  शै  के  डर  में  रहता  है

शान-शौकत  महज़  दिखावे  हैं
क्या  ख़ुदा  मालो-ज़र  में  रहता  है ?

                                                                  (2015)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: दरिंदा: पशु-स्वभाव वाला; हुज़ूर: सम्मान; हसीं: सुंदर, प्रिय, यहां ईश्वर; इश्क़ो-उन्सो-ख़ुलूस: प्रेम,स्नेह और आत्मीयता; बह् र: छंद; हक़परस्ती: न्याय-प्रियता; शुऊर: विवेक, समझ; ग़ुरूर: घमंड; अना: अहंकार; अस्लहे: हथियार; शै: बात, व्यक्ति; शान-शौकत: भव्यता और समृद्धि; महज़: केवल; मालो-ज़र: धन-संपत्ति। 

बुधवार, 15 अप्रैल 2015

आंसू परिंदों के ...

ख़ुदा  का  डर  दिखा  कर  रिंदगी  को  ख़ाक  कर  डाला
दयारे-मैकदा     को     शैख़   ने    नापाक     कर  डाला

कहां   वो    आईने   के    सामने   भी    सर  झुकाते  थे
कहां   बस   एक   सोहबत  ने  उन्हें  बेबाक  कर  डाला

कहा   था   दोस्तों   ने   यार   का    चेहरा   दिखाने  को
सुबूते-इश्क़    में   सीना   किसी  ने   चाक   कर  डाला

किसी   ग़ुस्ताख़   मौसम  ने    बहारों  से    दग़ा  की  है
हवाओं  ने    चमन  की  रूह    को   ख़ाशाक  कर  डाला

कहीं   मंहगाई   का   मातम   कहीं   ईमान   की   ईज़ा
फ़रेबे-शाह    ने  हर  शख़्स   को   चालाक    कर  डाला

कभी    देखे   किसी   ने   आंख   में   आंसू    परिंदों  के 
किसी   सय्याद  ने   परवाज़  को  ग़मनाक  कर  डाला

कहां   से   ताब   लाए   वो   तुम्हारे   नूर   की   या  रब
शराबे-शौक़   ने   जिसका   जिगर  कावाक  कर  डाला  !

                                                                                                (2015)

                                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रिंदगी: मद्यपान की प्रवृत्ति, ललक; ख़ाक: राख़, भस्म; दयारे-मैकदा: मदिरापान का पवित्र स्थान;  शैख़: धर्मोपदेशक; नापाक: अपवित्र; सोहबत: संगति, मिलन; बेबाक: निर्भय,निर्लज्ज; सुबूते-इश्क़: प्रेम का प्रमाण; सीना: वक्ष-स्थल; चाक: चीरना; ग़ुस्ताख़: उद्दंड; दग़ा: छल; चमन: उपवन; रूह: आत्मा;   ख़ाशाक: कूड़ा, व्यर्थ, निकृष्ट; मातम: शोक; ईमान की ईज़ा: धर्म-संकट; फ़रेबे-शाह: शासक का छल; शख़्स: व्यक्ति;   परिंदों: पक्षियों; सय्याद: बहेलिया; परवाज़: उड़ान; ग़मनाक: शोकपूर्ण; ताब: धैर्य; नूर: प्रकाश; या रब : हे प्रभु; शराबे-शौक़: इच्छाओं की मदिरा; जिगर: यकृत, आत्म-बल; कावाक: खोखला, तत्व-विहीन।