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मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

चांद मरने लगा...

आप  एहसान  मत  कीजिए
जान  हलकान  मत  कीजिए

शक्ल  ही  जब  गवारा  नहीं
जान  पहचान  मत  कीजिए

ठीक   है,  हम   हुए  आपके
अब  परेशान  मत  कीजिए

चांद  मरने  लगा  आप  पर
और  हैरान   मत   कीजिए

जाइए    लौटने    के   लिए
घर  बियाबान  मत  कीजिए

मुश्किलें  आएं,   आती  रहें
रोज़  मेहमान  मत  कीजिए

ख़ून  में  हो   सुफ़ैदी   अगर
सुर्ख़  अरमान  मत  कीजिए

क़ातिलों  की  ख़ुशी  के  लिए
ख़्वाब  क़ुर्बान  मत  कीजिए

आप  ख़ुद को  ख़ुदा  मान कर
पोच    ऐलान    मत  कीजिए

ज़लज़ला  हो  कि  सैलाब  हो
राह   आसान    मत  कीजिए

                                                        (2015)

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  एहसान: अनुग्रह; हलकान: थकान से शिथिल; गवारा: सहनीय; बियाबान: शोभा विहीन, निर्जन; सुफ़ैदी: श्वेताभा; सुर्ख़ अरमान: उत्तेजनापूर्ण अभिलाषा; क़ुर्बान: बलिदान; पोच: खोखला, निरर्थक; ऐलान: घोषणा; ज़लज़ला: भूकंप; सैलाब: बाढ़ ।

                                                            



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