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बुधवार, 19 नवंबर 2014

सियासत मुस्कुराने की

कहां  औक़ात  अपनी  सोहबते-हज़रात  पाने  की
बुज़ुर्गों  ने  मनाही  कर  रखी  है  सर  झुकाने  की

हमारे  साथ   रहने  के    बहुत  सारे   मफ़ायद   हैं
कि  जैसे  सीख  लोगे  तुम  सियासत  मुस्कुराने  की

मुअम्मा  है,  समझ  लोगे  ज़रा-सा  ज़र्फ़  आने  पर
अभी  से  क्या  पड़ी  है  शायरी  में  सर  खपाने  की

मरासिम   तर्क  कर  दें  या  बढ़ाएं,   आपकी  मर्ज़ी
ज़रूरत  क्या  हमें  इस  उम्र  में  तोहमत  उठाने  की

हुदूदे-दोस्ती  से    दो  क़दम    आगे  बढ़े     हम  भी
ज़रा  ज़हमत  उठाएं  आप  भी  नज़दीक  आने  की

न  जाने  कौन  है    जो  तूर  से     आवाज़  देता  है
हमारी  चाह  भी  है  यूं  किसी  को  मुंह  दिखाने  की

ज़मीं  पर  भेज  कर  हमको  न  यूं  पछताइए,  साहब
अभी  कुछ  और  कोशिश  कीजिए,  हमको  भुलाने  की  !

                                                                                        (2014)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: औक़ात: सामर्थ्य; सोहबते-हज़रात: गणमान्य व्यक्तियों की संगति; बुज़ुर्गों: पूर्वजों; मफ़ायद: लाभ; सियासत: लोक-व्यवहार; मुअम्मा: पहेली; ज़र्फ़: गंभीरता; मरासिम: संबंध; तर्क: त्याग; तोहमत: कलंक; हुदूदे-दोस्ती: मित्रता की सीमाएं; ज़हमत: कष्ट; 
तूर: मिस्र में एक मिथकीय पर्वत जहां हज़रत मूसा अ.स. को ईश्वर की झलक दिखाई दी थी; साहब: श्रीमान, यहां ख़ुदा । 
 

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

...हमारी छुवन में

रहे  ही  कहां  हम  तुम्हारे  ज़ेह् न  में
न  ख़ामोशियों  में,  न  शे'रो-सुख़न  में

नए  ज़ाविए  से  पढ़ो  तो  किसी  दिन
बहुत  कुछ  मिलेगा  हमारी  कहन  में

बहारें    गले   यूं    मिलीं    दोस्तों   से
हरारत   बढ़ा  दी  शह् र   के  बदन  में

फ़क़त  नर्म  जज़्बात  की  चांदनी  है
शरारे     नहीं  हैं    हमारी   छुवन  में

जिसे   चाहिए,     देनदारी   चुका  दे
ख़ुदा  के  यहां  दिल  पड़ा  है  रहन  में

न  साक़ी,  न  पैमां,  न  शैख़ो-मुअज़्ज़िन
कहां   आ  फंसे  हम,  ख़ुदा  के  वतन  में !

ग़ज़ब  की  कशिश  है,  तुम्हारी  अज़ां  में
फ़रिश्ते   उतर  आए  हैं    अंजुमन  में  !


                                                                 (2014)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ेह् न: मस्तिष्क, विचार; शे'रो-सुख़न: शे'र/काव्य और सृजन; ज़ाविए: कोण; कहन: कथन-शैली; हरारत: ऊष्मा, तापमान; 
बदन: शरीर; फ़क़त: मात्र; नर्म: कोमल; जज़्बात: भावनाएं; शरारे: चिंगारियां; छुवन: स्पर्श; देनदारी: ऋण; रहन: गिरवी; साक़ी: मदिरा देने वाला; पैमां: मदिरा-पात्र; शैख़ो-मुअज़्ज़िन: धर्मभीरु और अज़ान देने वाला; ग़ज़ब की: चमत्कारिक; कशिश: आकर्षण; फ़रिश्ते: देवदूत; अंजुमन: सभा। 

                                                                 



रविवार, 16 नवंबर 2014

किसको ख़ुदा कह दें ?

हमारा  क्या   यक़ीं,  हम  आज  क्या,  कल  और  क्या  कह  दें
हसीनों   को    ख़ुदा    कह  दें,    ख़ुदा  को     दिलरुबा   कह  दें  !

सियासतदां      हमारे      मुल्क  के          बेशर्म  हैं         इतने
सरासर    क़त्ल  को  भी     मुस्कुरा  कर      हादसा     कह  दें  !

अदब  की   बंदिशें    अक्सर    बहुत  आसां    नहीं,     लेकिन
अकेले  में,   कहो  तो    हम  तुम्हें      बाद-ए-सबा      कह  दें

हमारे    ख़ैरख्वाः       यूं  तो      बहुत       उस्ताद     बनते  हैं
मगर  यह  भी  नहीं  होता  कि  खुल  कर  "मरहबा"  कह  दें  !

हमारी      सख़्त    बातों   से     जिन्हें    तकलीफ़     होती  है
बताएं  तो  सही,     इस  दौर  में    किसको     ख़ुदा  कह  दें  ?

समंदर   है,    मगर     इतना    नहीं  है     ज़र्फ़     हममें  भी
कि  क़ातिल  को   कभी  अपने  वतन  का   रहनुमा  कह  दें  !

हमारा  साथ     शायद     आपको     अच्छा       नहीं  लगता
कहें     तो  आज  ही    हम  इस  जहां  को  अलविदा  कह  दें  !

                                                                                                   (2014)

                                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: यक़ीं: विश्वास;  हसीनों: सुंदर व्यक्तियों;  दिलरुबा: चित्ताकर्षक, मनमोहक;  सियासतदां: राजनीतिज्ञ;  सरासर: स्पष्टत:; 
क़त्ल: हत्या;  हादसा: दुर्घटना;  अदब: साहित्य; बंदिशें: बंधन, सीमाएं; अक्सर: सामान्यतः; आसां: सरल;  बाद-ए-सबा: प्रातः समीर; ख़ैरख्वाः: शुभचिंतक; उस्ताद: गुरु; मरहबा: धन्य, साधु; सख़्त: कठोर; तकलीफ़: कष्ट; समंदर: समुद्र; ज़र्फ़: गहराई, धैर्य; क़ातिल: हत्यारा; रहनुमा: नायक,पथ-प्रदर्शक; अलविदा: अंतिम प्रणाम । 

सोमवार, 10 नवंबर 2014

मंज़र देख डाले...

तलाशे-नूर  में  हमने  कई  दर  देख  डाले  हैं
वो  कोहे-तूर,  वो  मूसा,  वो  मंज़र  देख  डाले  हैं

लहू-ए-जुस्तजू  है,  आप  जिसको  अश्क  कहते  हैं
कि  इस  क़तरे  ने  दरिय:-ओ-समंदर  देख  डाले  हैं

भरोसा  ही  नहीं  तुम  पर,  तुम्हारी  होशियारी  पर
बुज़ुर्गों  ने  कई  मुश्ताक़-ओ-मुज़्तर  देख  डाले  हैं

छुपाएंगे  कहां  तक  आप  अपनी  बेक़रारी  को
हमारे  ख़्वाब  ने  बेज़ार  बिस्तर  देख  डाले  हैं

हमारा  क्या  बिगाड़ेंगी,  निगाहें  हुस्न  वालों  की
दिले-फ़ौलाद  ने  शमशीरो-ख़ंजर   देख  डाले  हैं

ये  कचरा  बीनते  बच्चे,  ज़रा  पेशानियां  देखो
कि  नाज़ुक़  उम्र  में  क्या-क्या  मनाज़िर  देख  डाले  हैं

सियासत  में  कहां  तख़्ता  पलटते  देर  लगती  है
अवामे-हिंद  ने    कितने  क़लंदर     देख  डाले  हैं  !

                                                                                        (2014)

                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तलाशे-नूर: प्रकाश की खोज; दर: द्वार; कोहे-तूर: मिस्र के साम क्षेत्र में एक मिथकीय पर्वत, जिस पर हज़रत मूसा अ.स. ने ख़ुदा के प्रकाश की झलक देखी थी; मंज़र: दृश्य; लहू-ए-जुस्तजू: अभिलाषाओं का रक्त; अश्क: अश्रु; क़तरे: बूंद; दरिय:-ओ-समंदर: नदी और समुद्र; बुज़ुर्गों: बड़े-बूढ़ों; मुश्ताक़-ओ-मुज़्तर: अभिलाषी और व्यग्र; बेक़रारी:विकलता; बेज़ार: निराश; दिले-फ़ौलाद: इस्पाती हृदय; शमशीरो-खंजर: तलवार और क्षुरी; पेशानियां: मस्तक (बहु.); नाज़ुक़ उम्र: कोमल आयु; मनाज़िर: दृश्य (बहु.); सियासत: राजनीति; तख़्ता: राजासन; अवामे-हिंद: भारतीय जन-गण;  क़लंदर: धृष्ट व्यक्ति। 

शनिवार, 8 नवंबर 2014

निगाहों में आए कि ...

निगाहों  में  आए  कि  मारे  गए
रहे  दूर  जो,  बे-सहारे  गए

फ़सादों  में  इंसान  मारे  गए
हमारे  गए  या  तुम्हारे  गए

ज़ईफ़ी  ज़ेह् न  पर  सितम  कर  गई
नज़र  से  निकलते  शरारे  गए

सिकंदर  गया,  ग़जनवी  भी  गया
जहां  नामवर  ढेर-सारे  गए

बहुत  देर  तक  तख़्त  हंसता  रहा
शहंशाह  जब-जब  उतारे  गए

हमारे  मक़बरे  का  एजाज़  है
यहां  सब  मुक़द्दर  संवारे  गए

किसी  की  नमाज़ें,  किसी  की  दुआ
नए  नाम  हर  दिन  पुकारे  गए

मुक़द्दस  हुई  कर्बला  की  ज़मीं
जहां  पर  नबी  के  दुलारे  गए

ख़ुदा  ने  ख़ुशी  से  हमें  ख़ुल्द  दी
मगर  हम  ख़ुदी  के  इदारे  गए !

                                                                 (2014)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़सादों: दंगों, उपद्रवों; ज़ईफ़ी: वृद्धावस्था; ज़ेह् न: मस्तिष्क; सितम: अत्याचार; शरारे: चिंगारियां; सिकंदर: यूनान का महान योद्धा; ग़जनवी: अफ़ग़ानिस्तान के ग़ज़नी का लुटेरा आक्रमणकारी शासक, जिसने सोमनाथ मंदिर को लूटा था; नामवर: प्रसिद्ध व्यक्ति; मक़बरा: समाधि, क़ब्र; एजाज़: प्रतिष्ठा; मुक़द्दर: भाग्य; नमाज़ें: मृतक के सम्मान में की जाने वाली नमाज़ें; दुआ: आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना; मुक़द्दस: पवित्र; कर्बला: ईराक़ का एक स्थान, जहां नबी (इस्लाम के अंतिम पैग़ंबर, हज़रत मुहम्मद साहब स.अ.व) के 
वंशज तत्कालीन अधर्मी शासक यज़ीद की सेना के हाथों वीरगति को प्राप्त हुए; ख़ुल्द: स्वर्ग; ख़ुदी: स्वाभिमान; इदारे: संस्थान। 

शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

मचलना सीख जाते हैं ...

नए  बच्चे  बहुत  जल्दी  मचलना  सीख  जाते  हैं
नज़र  चूकी  कि  बस,  हद  से  निकलना  सीख  जाते  हैं

जहां  मां-बाप  के  दिल  में  मुनासिब  फ़िक्र  होती  है
वहां  बच्चे  किताबों  से  बहलना  सीख  जाते  हैं

न  जाने  नौजवां  क्यूं  इस  क़दर  बेताब  होते  हैं
ज़रा-सी  कामयाबी  से  उछलना  सीख  जाते  हैं

कभी  ताजिर,  कभी  ख़ादिम,  कहीं  गांधी,  कहीं  हिटलर
सियासत  में  सभी  चेहरे  बदलना  सीख  जाते  हैं

चरिंदों  को  शिकायत  है  कि  हम  परवाज़  भरते  हैं
मुक़ाबिल  आ  नहीं  सकते  तो  जलना  सीख  जाते  हैं

जिन्हें  आता  नहीं  अपनी  बह् र  को  थामना,  अक्सर
हमारे  दुश्मनों  के  साथ  चलना  सीख  जाते  हैं

हमारी  राह  में  हरदम  फ़रिश्ते  ख़ार  बोते  हैं
मगर  हम  वक़्त  से  पहले  संभलना  सीख  जाते  हैं  !

                                                                                       (2014)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुनासिब फ़िक्र : समुचित चिंता; इस क़दर : इस सीमा तक; बेताब: व्यग्र; ताजिर : व्यापारी; ख़ादिम : सेवक; सियासत: राजनीति; चरिंदों : थल चरों; परवाज़: उड़ान; मुक़ाबिल: सामने, प्रतियोगिता में; बह् र: छंद, मानसिक संतुलन; फ़रिश्ते: देवदूत; 
ख़ार: कांटे ।

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

हुस्ने-शाह से तौबा !

कहां-कहां  जनाब  आजकल  भटकते  हैं
तरह-तरह  के  इत्र  जिस्म  से  महकते  हैं

किया  सलाम  किसी  ने  कि  हंस  के  देख  लिया
तो  देखिए  कि  मियां  किस  क़दर  चहकते  हैं

न  आएं  आप  बे-हिजाब  ये  गुज़ारिश  है
यहां  तमाम  बे-शऊर  दिल  धड़कते  हैं

अजब  निज़ाम  चुना  है  अवाम  ने  अबके
कि  गांव-गांव  तिफ़्ल  भूख  से  सिसकते  हैं

उन्हें  शराब  दिखाना  सही  नहीं  होगा
बिना  पिए  जनाब  बज़्म  में  बहकते  हैं

ख़ुदा  बचाए  हमें  हुस्ने-शाह  से,  तौबा
नज़र  पड़ी  नहीं  कि  आईने  चटकते  हैं

'हज़्रते-दाग़  जहां  बैठ  गए,  बैठ  गए'
ख़ुदा  उठाए,  मगर  आप  कब  सरकते  हैं !

                                                                        (2014)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जनाब: श्रीमान; इत्र: सुगंध-सार; जिस्म: शरीर; बे-हिजाब: निरावरण; गुज़ारिश: निवेदन; बे-शऊर: अशिष्ट; निज़ाम: सरकार, व्यवस्था; अवाम: जन-साधारण; तिफ़्ल: शिशु; बज़्म: गोष्ठी, सभा; हुस्ने-शाह: 'शाह' की सुंदरता; तौबा: त्राहिमाम; हज़्रते-दाग़: उर्दू के सबसे बड़े समर्थक, विश्व-विख्यात शायर, यह पंक्ति उन्हीं की ।