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रविवार, 13 जुलाई 2014

इतने बुरे दिन....

आ  रहा  है  आसमां  से  रोज़  दावा  इश्क़  का
सोचते  हैं  आज  कर  ही  लें  इरादा  इश्क़  का

ताइरे-उम्मीद  के  इतने  बुरे  दिन  आ  गए
दिन-ब-दिन  सय्याद  करता  है  तक़ाज़ा  इश्क़  का

मिट  गई  तहज़ीब  जबसे  क़ैस-ओ-फ़रहाद  की
रोज़  करते-तोड़ते  हैं  लोग  वादा  इश्क़  का

आप  भी  तो  हाथ  से  दिल  छीन  कर  चलते  बने
क्या  बताएं  आपको  क्या  है  मुदावा  इश्क़  का

बदज़नी,  बदकारियां, बे-हुरमती,  दौरे-जिना:
देख  ही  ले  ख़ूब  दुनिया  अब  ख़राबा  इश्क़  का

कुछ  बहारों  की  अना  तो  कुछ  ग़ुरूरे-बाग़बां
आशिक़े-गुलशन  सजाते  हैं  जनाज़ा  इश्क़  का

साफ़  कहिए,  आपको  अब  रास  हम  आते  नहीं 
क्या  ज़रूरी  है  किया  जाए  दिखावा  इश्क़  का ?

                                                                                     (2014)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ताइरे-उम्मीद: आशाओं के पक्षी; सय्याद: बहेलिया; तक़ाज़ा: पुनर्स्मरण कराना, मांगना; तहज़ीब: सभ्यता; क़ैस-ओ-फ़रहाद: लैला और शीरीं के प्रेमी, मिथकीय चरित्र; मुदावा : उपचार ; बदज़नी: द्वेष; बदकारियां: दुराचार; बे-हुरमती: स्त्रियॉं का शील-भंग; दौरे-जिनां: अवैध संबंधों का युग; ख़राबा: बर्बादी, विकार; अना: अहंकार; ग़ुरूरे-बाग़बां: माली का घमंड; आशिक़े-गुलशन: उपवन के प्रेमी; जनाज़ा: अर्थी। 

रविवार, 6 जुलाई 2014

सलवटें पड़ जाएंगी ...

एक  मिसरा  भी  न  हो  जब  पास  में
क्या  ग़ज़ल  कहिए  हुज़ूरे-ख़ास  में

सिर्फ़  बिस्मिल  जानते  हैं  इश्क़  के
क्या  मज़ा  है  दर्द  के  एहसास  में

आए  हैं  वो  आज  पुरशिस  के  लिए
इक  तबस्सुम  है  नसीबे-यास  में

कल  यहां  कुछ  और  मुंसिफ़  बिक  गए
अब  कहां  इंसाफ़  इस  इजलास  में

आपका  भी  फ़र्ज़  है,  कुछ  कीजिए
दूरियां  पैदा  न  हों  इख़्लास    में

नाम  मिट  तो  जाएगा  दिल  से  मगर
सलवटें  पड़  जाएंगी  क़िरतास  में

दूर  करना  चाहते  हैं  वो  हमें
बाल  हो  जैसे  दिले-अलमास  में  !

                                                                         (2014)

                                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मिसरा: पंक्ति; हुज़ूरे-ख़ास: विशिष्ट जन की गोष्ठी, दरबार; बिस्मिल: घायल; एहसास: अनुभूति; पुरशिस: हाल-चाल पूछना; तबस्सुम: स्मित, मुस्कान; नसीबे-यास: निराश व्यक्ति का प्रारब्ध; मुंसिफ़: न्यायाधीश; इजलास: अदालत; इख़्लास: मित्रता; 
क़िरतास: काग़ज़; बाल: दोष, केश जैसी दरार; दिले-अलमास: हीरे का हृदय, मध्य भाग।


शनिवार, 5 जुलाई 2014

ज़ीस्त मुमकिन है...

रंजो-ग़म  हर  नफ़्स  में  शामिल  सही
ज़ीस्त  मुमकिन  है,  भले  मुश्किल  सही

हम  गदा  बन  कर  खड़े  हैं  सामने
तू  अगर  ईमां   न  दे  तो  दिल  सही

चंद  लम्हे  लूट  कर  ले  जाएंगे
मौत  चाहे  आख़िरी  मंज़िल  सही

बेहतरी  की  फ़िक्र  कैसे  छोड़  दें
शाह  अपने  मुल्क  का  क़ातिल  सही

मात  ना-मंज़ूर  है  तूफ़ान  से
सामने  सुख-चैन  का  साहिल  सही

बात  हक़  की  ही  कहेंगे  ख़ुल्द  में
गो  ख़्याले-यार  में  ग़ाफ़िल  सही

इब्ने-आदम  को  न  मानेंगे  ख़ुदा
सूलियां  सच्चाई  का  हासिल  सही !

                                                          (2014)

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रंजो-ग़म: खेद और दुःख; नफ़्स: सांस; ज़ीस्त: जीवन; मुमकिन: संभव; गदा: भिक्षुक; ईमां: आस्था; चंद: चार; लम्हे: क्षण; 
मात: पराजय; साहिल: तट; हक़: न्याय; ख़ुल्द: ईश्वर का देश, स्वर्ग; गो: यद्यपि; ख़्याले-यार: प्रिय, ईश्वर का चिंतन; ग़ाफ़िल: असावधान; इब्ने-आदम: मनुष्य की संतान; हासिल: उपलब्धि, अभिप्राप्ति।

सोमवार, 30 जून 2014

फ़रेब है हुज़ूर...

जिन्हें  न  होश  रहा  ज़िंदगी  की  राहों  का
सुना  रहे  हैं  हमें  फ़लसफ़ा  गुनाहों  का

मिला  न  पीर  हमें  कोई  इस  ज़माने  में
तलाशते  हैं  पता  रोज़  ख़ानक़ाहों  का

'लगो  न  शाह  के  मुंह', 'दूर  रहो  हाकिम  से'
ज़रा  बताएं  कि  हम  क्या  करें  सलाहों  का  ?

ख़्याल  नेक  नहीं  है  तिरी  अदालत  का
मिज़ाज   ठीक  नहीं  है  मिरे  गवाहों  का

कहीं  बहार  न  बादे-सबा,  न  'अच्छे  दिन'
फ़रेब  है  हुज़ूर  आपकी  निगाहों  का

बुज़ुर्गे-क़ौमो-दीन,  वाल्दैन  ही  काफ़ी
हुआ  न  हमसे  एहतराम  कभी  शाहों  का

तिरे  गुनाह  ख़ुदा  गिन  रहा  है  बरसों  से
हिसाब  मांग  रहा  है  तमाम  आहों  का  !

                                                                    (2014)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़लसफ़ा: दर्शन; पीर: सिद्ध व्यक्ति; ख़ानक़ाहों: मठों, सिद्ध व्यक्तियों का स्थान; हाकिम: प्रशासक, अधिकारी; नेक: शुभ, अच्छा; मिज़ाज: मनःस्थिति;  बादे-सबा: सबेरे की पुरवाई; फ़रेब: छल, कपट; बुज़ुर्गे-क़ौमो-दीन: राष्ट्र  और धर्म के पूर्वज, मान्य व्यक्ति; 
वाल्दैन: माता-पिता; एहतराम: सम्मान।  

शनिवार, 28 जून 2014

सूलियां तैयार हैं ...

है  अजब  दीवानगी  सय्याद  की
चाहता  है  जां  दिले-नाशाद  की

चांद  के  दिल  पर  गिरी  है  बर्क़-सी
चांदनी  ने  क्यूं  हमारी  याद  की

है  निगाहे-यार  में  सारी  शिफ़ा
बेवजह  अत्तार  से  फ़र्याद  की

आशिक़ी  में  लुट  गए  दोनों  जहां
नस्ले-आदम  शौक़  ने  बर्बाद  की

रोटियां  मत  मांगना,  फ़ाक़ाकशॉ
सूलियां  तैयार  हैं  जल्लाद  की

क्या  सिकंदर  और  क्या  चंगेज़,  सब
बात  करते  हैं  मिरे  फ़ौलाद  की

जिस  ख़ुदा  के  हाथ  में  थी  ज़िंदगी
याद  उसने  मग़फ़िरत  के  बाद  की  !

                                                             (2014)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: दीवानगी: उन्माद, अतिशय प्रेम; सय्याद: बहेलिया; दिले-नाशाद: दु:खी हृदय; बर्क़: आकाशीय तड़ित, बिजली; 
निगाहे-यार: प्रेमी की दृष्टि; अत्तार: दवा बेचने वाला; फ़र्याद: प्रार्थना; नस्ले-आदम: मनुष्य की पीढ़ी; फ़ाक़ाकश: भूखे पेट सोने वाले; 
फ़ौलाद: तलवार का लोहा; मग़फ़िरत: मोक्ष ।

शुक्रवार, 27 जून 2014

ख़ुदा को कौन समझाए ?

अर्श  पर  तूफ़ां  उठा  आए  युं  ही
हम  ख़ुदा  का  दिल  चुरा  लाए  युं  ही

चांद  से  कुछ  दिल्लगी  की  बात  की
और  दीवाना  बना  आए  युं  ही

चश्म  नादां  जिस  तरह  बा-सब्र  है
चैन  बेबस  रूह  भी  पाए  युं  ही

खोल  कर  रख  दी  हक़ीक़त  सामने
शाह  की  नज़रें  झुका  आए  युं  ही

दांव  पर  है  ज़िंदगी  दहक़ान  की
इक  उमीदों  की  घटा  छाए  युं  ही

क़ैद  है  दिल  की  रग़ों  में  जो  लहू
अश्क  बन  कर  आज  बह जाए  युं  ही

उम्र  भर  ईमान  पर  क़ायम  रहे
पर  ख़ुदा  को  कौन  समझाए  युं  ही  !

                                                                   (2014)

                                                          -सुरेश स्वप्निल

शब्दार्थ: अर्श: आकाश, स्वर्ग; दिल्लगी: मनोविनोद; चश्म: आंख; नादां: अबोध; बा-सब्र: धैर्यवान; बेबस: विवश; 
रूह: आत्मा; हक़ीक़त: यथार्थ; दहक़ान: कृषक-जन; रग़ों: शिराओं, धमनियों; ईमान: आस्था। 
  


बुधवार, 25 जून 2014

हां, बग़ावत भी करेंगे...

लोग  हमसे  पूछते  हैं  साथ  क्या  ले  जाएंगे
हाथ  ख़ाली  आए  थे,  भर  कर  दुआ  ले  जाएंगे

चाक  दामन,  सर  निगूं,  नीची  नज़र;  दरबार  में
मुफ़लिसो-मज़लूम  आख़िर  और  क्या  ले  जाएंगे

शाह  के  आलिम  ग़ज़ल  का  कर  रहे  हैं  तब्सिरा
हम  अगर मुजरिम  रहे,  हंस  कर  सज़ा  ले  जाएंगे

हां, बग़ावत  भी  करेंगे  ज़िंदगी  के  वास्ते
इस  मुहिम  में  सर  हथेली  पर  कटा  ले  जाएंगे

है  बला  का  ज़ोर  हम  फ़ाक़ाकशों  की  आह  में
लब  हिले  तो  तख़्ते-शाही  को  उड़ा  ले  जाएंगे

आएगा  मेहनतकशों  का  राज  जिस  दिन  मुल्क  में
अर्श  तक  हिन्दोस्तां  का  मर्तबा  ले  जाएंगे

है  बहुत-कुछ  ख़ुल्द  में,  मुमकिन  हुआ  तो  देखिए
वापसी  में  साथ  अपने  इक  ख़ुदा  ले  जाएंगे  !

                                                                                  (2014)

                                                                          -सुरेश स्वप्निल

शब्दार्थ: चाक: फटा हुआ; दामन: उपरिवस्त्र; निगूं: झुका हुआ; मुफ़लिसो-मज़लूम: निर्धन एवं अत्याचार-पीड़ित; आलिम: विद्वत्जन; तब्सिरा: समीक्षा; मुजरिम: अपराधी; बग़ावत: विद्रोह; मुहिम: अभियान; फ़ाक़ाकश: भूखे पेट रहने वाले; लब: ओष्ठ; तख़्ते-शाही: राजासन; मेहनतकश: श्रमिक-जन; अर्श: आकाश; मर्तबा: प्रतिष्ठा; ख़ुल्द: स्वर्ग; मुमकिन: संभव।