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बुधवार, 23 अप्रैल 2014

जफ़ा करते, नफ़ा पढ़ते !

न  दिल  पर  बात  लेते  औ'  न  ख़ुद  का  फ़ातिहा  पढ़ते
सियासत   में   लगे   रहते,    जफ़ा   करते,   नफ़ा  पढ़ते

न   होता   दर्द   सीने   में    किसी   की     ग़मगुसारी   से
बहाते    अश्क    आंखों    से,    ज़ेह्न   में    फ़ायदा   पढ़ते

तिजारत    के    लिए   हममें    हज़ारों    ख़ूबियां    होतीं
सुख़न   के    नाम    पर    सरमाएदारों   का  कहा   पढ़ते

बिना  रिश्वत  लिए   करते   न  कोई  काम    दुनिया  का
न  का'बे  की  ख़बर  रखते,  न  मस्जिद  का  पता  पढ़ते

तुम्हीं   को   शौक़   क्या   है,  इश्क़  में   क़ुर्बान  होने  का
कि  औरों  की   तरह  तुम  भी   रक़म  का  क़ायदा  पढ़ते

हमारी    शख़्सियत    को    आप    समझेंगे    भला   कैसे 
लगन   होती   तो   ग़ालिब  से    हमारा  सिलसिला  पढ़ते

चले   हैं    अर्श   की    जानिब,    वफ़ाए-दुश्मनां    ले  कर 
हमारे    वास्ते     ऐ  काश  !   वो:   भी    इक   दुआ  पढ़ते  !

                                                                                               
                                                                                          (2014)

                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़ातिहा: मृतक के सम्मान में पढ़ी जाने वाली प्रार्थना; जफ़ा:छल; नफ़ा: लाभ (का गणित);   ग़मगुसारी: दु:ख समझना; 
ज़ेह्न: मस्तिष्क; तिजारत: व्यापार; सुख़न: साहित्य; सरमाएदारों: पूंजीपतियों; का'बा: ईश्वर की उपस्थिति का प्रतीक, मुस्लिमों का तीर्थ-स्थान;   क़ुर्बान: बलिदान; रक़म  का  क़ायदा: धन/कमाई का सिद्धांत; शख़्सियत: व्यक्तित्व; ग़ालिब: हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, उर्दू के महानतम शायर; सिलसिला: आनुवंशिक संबंध; अर्श: आकाश; जानिब: ओर; वफ़ाए-दुश्मनां: शत्रुओं की आस्थाएं । 


मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

सफ़र की इब्तिदा...

हवाओं  में  नमी  कम   हो  गई  है
चमन  की  आह  मातम  हो  गई  है

सियासत  ने  समेटे   दोस्ताने
मिरी  तन्हाई  हमदम  हो  गई  है

सफ़र  की  इब्तिदा  ही  अब  हुई  है
अभी  से   सांस   मद्धम  हो  गई  है

हक़ीक़त  का  छिड़ा  है  ज़िक्र  जबसे
ये:  गर्दन  किसलिए  ख़म  हो  गई  है

अवामे-हिंद  के  हालात  सुन  कर
नज़र  अल्लाह  की  नम   हो  गई  है 

उठी  जो  ना'र:-ए-तक्बीर  बन  कर
वो:  मुट्ठी  आज  परचम  हो  गई  है

मिरे  मोहसिन  मिरे  दर  पर  खड़े  हैं
नज़र  ख़ुद  ख़ैर-मक़दम  हो  गई  है  !

                                                           (2014)

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मातम: शोक-गीत; दोस्ताने: मित्रताएं; तन्हाई: एकांत; हमदम: साथी; सफ़र  की  इब्तिदा:यात्रा का समारंभ; 
मद्धम: मध्यम, धीमी; हक़ीक़त: वास्तविकता; ज़िक्र: उल्लेख; ख़म: झुकी हुई; अवामे-हिंद: भारत की जनता; 
ना'र:-ए-तक्बीर: ईश्वर की सर्वोच्चता का नाद, 'अल्लाह-ओ-अकबर'; परचम: ध्वज;   मोहसिन: कृपालु; दर: द्वार; ख़ैर-मक़दम: स्वागत । 

सोमवार, 21 अप्रैल 2014

बस्तियां जलाते हैं ...

हर   हुनर  हम  पे  आज़माते  हैं
जाने  किस-किस  से  सीख   आते  हैं

आप  जब  बेरुख़ी  दिखाते  हैं
रूह  की  मुश्किलें  बढ़ाते  हैं

दूर  रह  कर  निगाह  से  अक्सर
आप  नज़दीक़  हुए  जाते  हैं

आप  अपनी  क़सम  न  दोहराएं
हम  सभी  फ़ैसले  निभाते  हैं

मौत  आ  जाए  उन  ख़यालों  को
जो  उन्हें  बेवफ़ा  बनाते  हैं

दोस्तों  में  कमाल  का  दम  है
रात-भर   फ़लसफ़ा  सुनाते  हैं

वो:  तरक़्क़ी  की  बात  करते  हैं
और  फिर  बस्तियां  जलाते  हैं

आईना  देखते  नहीं  ख़ुद  वो:
ग़ैर  पर  उंगलियां  उठाते  हैं

बज़्म  में  सर  झुकाए  रहते  हैं
अर्श  से  बिजलियां  गिराते  हैं  !

                                                   (2014)

                                          -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ:  हुनर: कौशल; बेरुख़ी: उपेक्षा;   फ़लसफ़ा: दर्शन; तरक़्क़ी: प्रगति; बज़्म: सभा; अर्श: आकाश । 

रविवार, 20 अप्रैल 2014

कुछ इशारा करें ...

किसलिए  आप  हमसे  किनारा  करें
फिर  पलट  कर  हमीं  को  पुकारा  करें

बात  ख़ामोशियों   से  बनेगी  नहीं
कुछ  कहें,  कुछ  सुनें,  कुछ  इशारा  करें

सांस  घुटती  है  मंहगाइयों  के  तले
किस  तरह  मुफ़लिसी  में  गुज़ारा  करें

सिर्फ़  चेहरे  पे  हरदम  तवज्जो  न  हो
रूह  के  नक़्श  को  भी  संवारा  करें

नुस्ख़ :-ए-कीमिया  हुस्ने-नायाब  का :
आशिक़ों   की   बलाएं   उतारा    करें 

तूर  पर  आ  गए   सुन  के  दिल  की  सदा
आज  फिर  वो  करिश्मा  दोबारा  करें  !

                                                                    (2014)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ: मुफ़लिसी: निर्धनता; तवज्जो: ध्यान; नक़्श: आकृति; नुस्ख़ :-ए-कीमिया: रासायनिक योग; हुस्ने-नायाब: दुर्लभ सौंदर्य; 
तूर: अरब के शाम क्षेत्र में एक मिथकीय पर्वत, जहां हज़रत मूसा स.अ. को ख़ुदा के प्रकाश की झलक मिली थी ।



मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

डूबने की जगह...

लोग  ख़ामोश  रह  नहीं  पाते
और  खुल कर  भी  कह  नहीं  पाते

ज़ीस्त का  हाथ  छोड़ने  वाले
मौत  का  साथ  सह  नहीं  पाते

अश्क   उठते  ज़रूर  हैं  दिल  से
चश्म  तक  आके  बह  नहीं  पाते

दोस्त  गिरते  हैं  जब  निगाहों  से
डूबने  की  जगह  नहीं  पाते

क़ीमतों  पर  अगर  बहस  होती
वो:  हमें  इस  तरह  नहीं  पाते

रास  आने  लगे  जिन्हें  झुकना
टूटने  की  वजह  नहीं  पाते

ख़्वाब  जो  रूह  में  न  बसते  हों
ज़िंदगी  की  सुबह  नहीं  पाते

शाह  दिल  से  न  हम  रहे  होते
रोज़  अपनों  से  शह  नहीं  पाते  !

                                                       (2014)

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ीस्त: जीवन; अश्क: आंसू; चश्म: आंख; रूह: आत्मा; शह: चुनौती। 

रविवार, 13 अप्रैल 2014

राज़ अफ़शा न हो...

आह  निकली  है  ग़मगुसारों  की
जान  जाए  न  बेक़रारों  की 

आए  हैं  बाग़  में  सनम  जबसे
गुमशुदा  है  अना  बहारों  की

राज़  अफ़शा  न  हो  शहंशह  का
सांस  अटकी  है  राज़दारों  की

जो  कहें  वो: ज़ुबां-ए-दिल  से  कहें
आज  क़ीमत  नहीं  इशारों  की 

फ़िक्र  करते  नहीं  सियासतदां 
मुल्क  में  पड़  रही  दरारों  की

तख़्त  पर  एक  बार  बैठे,  तो
कौन  सुनता  है  ख़ाकसारों  की

मुल्क  हो  आग  के  हवाले  जब
बात  क्या  कीजिए  शरारों  की  !

                                                     (2014)

                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ग़मगुसार: दूसरों का दु:ख दूर करने वाले; बेक़रार: व्यथित, व्याकुल; अना: घमंड, अहंकार; राज़: रहस्य; अफ़शा: प्रकट; राज़दार: रहस्य जानने वाले; ज़ुबां-ए-दिल: हृदय से; सियासतदां: राजनैतिक लोग; ख़ाकसार: दलित/वंचित; शरारे: चिंगारियां। 


शनिवार, 12 अप्रैल 2014

हुनर भूल जाएंगे !

हम  इल्मे-ग़ज़लगोई  अगर  भूल  जाएंगे
समझो  कि  ज़िंदगी  का  हुनर  भूल  जाएंगे

साहब  हैं  आप,  आपकी  बातों  का  क्या  यक़ीं
कहते  हैं  जो  इधर  वो:  उधर  भूल  जाएंगे

रखते  हैं  यार  याद  ज़माने  की  हर  गली
लेकिन  हमारे  घर  की  डगर  भूल  जाएंगे

साक़ी  से   कभी  आंख  मिला  कर  तो  देखिए
दुनिया  की  शराबों  का  असर  भूल  जाएंगे

क़ातिल  को  ये:  गुमां  है,  नए  रंग-रूप  से
सब  उसके  गुनाहों  की  ख़बर  भूल  जाएंगे

बेशक़   ख़ुदा  हों  आप  मगर  हम  भी  कम  नहीं
हद  की  तो  हम  आदाबे-नज़र  भूल  जाएंगे

देखा  कहां  जनाब  शबे-तार  का  जमाल
पर्दा  उठा  तो  हुस्ने-क़मर  भूल  जाएंगे

कब  तक  बना  रहेगा  शबे-वस्ल  का  ग़ुरूर
हमसे  नज़र  मिली  तो  बह्र  भूल  जाएंगे  !

                                                                    (2014)

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इल्मे-ग़ज़लगोई: ग़ज़ल कहने की कला; हुनर: कौशल; साक़ी: मदिरा-पात्र देने वाला; गुमां:भ्रम; गुनाहों: अपराधों; हद: अति; आदाबे-नज़र: दृष्टि का सम्मान; शबे-तार: अमावस्या, अंधेरी रात; जमाल: यौवन; हुस्ने-क़मर: चंद्रमा का सौंदर्य; शबे-वस्ल: मिलन-निशा; ग़ुरूर: गर्व,अहंकार; बह्र: छंद, मानसिक संतुलन।