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मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

आस्मां होने की कोशिश

मियां  मश्ग़ूल  हैं  फिर  से  जवां  होने  की  कोशिश  में
ज़ईफ़ी  में  किसी  पर  मेहरबां   होने  की  कोशिश  में

न  मिलने  का  सलीक़ा  है  न  ज़ौक़े-पैरहन   उनमें
लतीफ़ा   बन  गए  हैं  दास्तां  होने  की  कोशिश  में

परिंदों  की  तरह  उड़ना  बहुत  आसान  लगता  है
ज़मीं  पर  आ  गिरेंगे  आस्मां  होने  की  कोशिश  में

हज़ारों  हमसफ़र  थे  मंज़िले-मक़सूद  की  रह  पर
हुए  तन्हा  अमीरे-कारवां  होने  की  कोशिश  में

ख़ुदी  की  बात  है  किसको  सुनाएं   हाल  हम  दिल  का
हुई  है  चश्म  नम  फिर  बे-ज़ुबां  होने  की  कोशिश  में

संभल  कर  खेलिए  साहब  इसे  शतरंज  कहते  हैं
न  प्यादों  से  पिटें  शाहे-जहां  होने  की  कोशिश  में

ख़ुदा  जिनको  समझती  थी  हज़ारों  साल  से  दुनिया
हमें  दिल  दे  गए  अपना  अयां  होने  की  कोशिश  में  !

                                                                                                      (2016)

                                                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मश्ग़ूल: तल्लीन, व्यस्त; जवां : युवा; ज़ईफ़ी : वृद्धावस्था; मेह्रबां : कृपालु; सलीक़ा : शिष्टाचार, समझ; ज़ौक़े-पैरहन : वस्त्र-विन्यास की अभिरुचि, समझ; लतीफ़ा : चुटकुला; दास्तां : आख्यान; परिंदों : पक्षियों; जमीं : पृथ्वी; आस्मां : आकाश; हमसफ़र : सहयात्री; मंज़िले-मकसूद : अभीष्ट लक्ष्य; रह : राह, पथ; तन्हा : निस्संग; अमीरे-कारवां : यात्री-समूह का नायक; ख़ुदी : स्वाभिमान; चश्म : नयन; नम : गीले; बे-ज़ुबां : मौन; प्यादों : पैदल सैनिक; शाहे-जहां : संसार का राजा; अयां : प्रकट ।

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