कुछ लोग मिरी बज़्मे-सुख़न से निकल गए
कुछ घर के आस-पास, सहन से निकल गए
कुछ दिल में आए भी तो ज़ेह् न से निकल गए
कुछ बदनसीब बू-ए-बदन से निकल गए
क्या-क्या हिदायतें कि क़लम कांपने लगे
क्या-क्या महीन लफ़्ज़ कहन से निकल गए
क़ीमत चुकाएं भी वो नमक की तो किस तरह
ज़र के लिए जो शख़्स वतन से निकल गए
सय्याद का निज़ाम न पहरे बिठा सका
परवाज़ ले परिंद चमन से निकल गए
मर कर भी शैख़ जी की आदतें वही रहीं
ज़िक्रे-शराब सुन के क़फ़न से निकल गए
क्या ख़ूब शबे-वस्ल ने तोहफ़ा दिया हमें
दिन के रहीन ख़्वाब रसन से निकल गए !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: बज़्मे-सुख़न: रचना-गोष्ठी, रचना-कर्म; सहन: दालान; ज़ेह् न: मस्तिष्क, चिंतन; बदनसीब: अभागे; बू-ए-बदन: देह-गंध; हिदायतें: दिशा-निर्देश, प्रतिबंध; क़लम: लेखनी; महीन: सूक्ष्म; लफ़्ज़: शब्द; कहन: अभिव्यक्ति; ज़र: सोना, धन-संपत्ति; शख़्स: व्यक्ति; सय्याद: बहेलिया, क्रूर शासक; निज़ाम: प्रशासन; परवाज़: उड़ान; परिंद: पक्षी; चमन: उपवन; शैख़: धर्म-भीरु; ज़िक्रे-शराब: मद्य-चर्चा; क़फ़न: शवावरण; शबे-वस्ल: मिलन-निशा; तोहफ़ा: उपहार; रहीन: बंधक, गिरवी; रसन: फंदा ।
कुछ घर के आस-पास, सहन से निकल गए
कुछ दिल में आए भी तो ज़ेह् न से निकल गए
कुछ बदनसीब बू-ए-बदन से निकल गए
क्या-क्या हिदायतें कि क़लम कांपने लगे
क्या-क्या महीन लफ़्ज़ कहन से निकल गए
क़ीमत चुकाएं भी वो नमक की तो किस तरह
ज़र के लिए जो शख़्स वतन से निकल गए
सय्याद का निज़ाम न पहरे बिठा सका
परवाज़ ले परिंद चमन से निकल गए
मर कर भी शैख़ जी की आदतें वही रहीं
ज़िक्रे-शराब सुन के क़फ़न से निकल गए
क्या ख़ूब शबे-वस्ल ने तोहफ़ा दिया हमें
दिन के रहीन ख़्वाब रसन से निकल गए !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: बज़्मे-सुख़न: रचना-गोष्ठी, रचना-कर्म; सहन: दालान; ज़ेह् न: मस्तिष्क, चिंतन; बदनसीब: अभागे; बू-ए-बदन: देह-गंध; हिदायतें: दिशा-निर्देश, प्रतिबंध; क़लम: लेखनी; महीन: सूक्ष्म; लफ़्ज़: शब्द; कहन: अभिव्यक्ति; ज़र: सोना, धन-संपत्ति; शख़्स: व्यक्ति; सय्याद: बहेलिया, क्रूर शासक; निज़ाम: प्रशासन; परवाज़: उड़ान; परिंद: पक्षी; चमन: उपवन; शैख़: धर्म-भीरु; ज़िक्रे-शराब: मद्य-चर्चा; क़फ़न: शवावरण; शबे-वस्ल: मिलन-निशा; तोहफ़ा: उपहार; रहीन: बंधक, गिरवी; रसन: फंदा ।
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