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रविवार, 6 सितंबर 2015

दिन के रहीन ख़्वाब...

कुछ  लोग  मिरी  बज़्मे-सुख़न  से  निकल  गए
कुछ  घर  के  आस-पास,  सहन  से  निकल  गए

कुछ  दिल  में  आए  भी  तो  ज़ेह् न  से  निकल  गए
कुछ  बदनसीब  बू-ए-बदन  से  निकल  गए

क्या-क्या  हिदायतें  कि  क़लम  कांपने  लगे
क्या-क्या  महीन  लफ़्ज़  कहन  से  निकल  गए

क़ीमत  चुकाएं  भी  वो  नमक  की  तो  किस  तरह
ज़र  के  लिए  जो  शख़्स  वतन  से  निकल  गए

सय्याद  का  निज़ाम  न  पहरे  बिठा  सका
परवाज़   ले    परिंद   चमन  से  निकल  गए

मर  कर   भी  शैख़  जी  की  आदतें  वही  रहीं
ज़िक्रे-शराब  सुन  के  क़फ़न  से  निकल  गए

क्या  ख़ूब  शबे-वस्ल  ने  तोहफ़ा  दिया  हमें
दिन  के  रहीन  ख़्वाब  रसन  से  निकल  गए !

                                                                                          (2015)

                                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बज़्मे-सुख़न: रचना-गोष्ठी, रचना-कर्म; सहन: दालान;  ज़ेह् न: मस्तिष्क, चिंतन; बदनसीब: अभागे; बू-ए-बदन: देह-गंध; हिदायतें: दिशा-निर्देश, प्रतिबंध; क़लम: लेखनी; महीन: सूक्ष्म;  लफ़्ज़: शब्द; कहन: अभिव्यक्ति; ज़र: सोना, धन-संपत्ति; शख़्स: व्यक्ति; सय्याद: बहेलिया, क्रूर शासक; निज़ाम: प्रशासन; परवाज़: उड़ान; परिंद: पक्षी; चमन: उपवन; शैख़: धर्म-भीरु; ज़िक्रे-शराब: मद्य-चर्चा;  क़फ़न: शवावरण; शबे-वस्ल: मिलन-निशा; तोहफ़ा: उपहार; रहीन: बंधक, गिरवी;  रसन: फंदा । 



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