वो जो दिल की किताब पढ़ते हैं
ख़ार को भी गुलाब पढ़ते हैं
हम उन्हें माहताब लिखते हैं
वो हमें आफ़ताब पढ़ते हैं
नक़्शे-महबूब हों अयां हम पर
हौले-हौले हिजाब पढ़ते हैं
ख़्वाब में और क्या करें हम भी
ख़्वाहिशों के जवाब पढ़ते हैं
वक़्त के हाथ खेलने वाले
आशिक़ी को अज़ाब पढ़ते हैं
शाहे-जम्हूर वो हुए जब से
चश्मे-नम को सराब पढ़ते हैं
आप जब मन की बात कहते हैं
कुर्सियों का हिसाब पढ़ते हैं
आईन-ए-हिंद की क़सम ले कर
नफ़रतों की किताब पढ़ते हैं
शायरी ने ख़ुदा बनाया है
लोग ख़ाना-ख़राब पढ़ते हैं !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ख़ार: कांटे; माहताब: चांदनी;आफ़ताब: सूर्य; नक़्शे-महबूब: प्रिय की मुखाकृति; अयां: प्रकट, स्पष्ट; हौले-हौले: धीमे-धीमे;
हिजाब: मुखावरण; ख़्वाहिशों: इच्छाओं; आशिक़ी: प्रेम; अज़ाब: पाप; शाहे-जम्हूर: लोकतंत्र के राजा; चश्मे-नम: आंख की नमी, आंसू; सराब: मृगजल; आईन-ए-हिंद: भारत का संविधान; नफ़रतों: घृणाओं; ख़ाना-ख़राब: घर मिटाने वाला, यहां-वहां भटकने वाला।
ख़ार को भी गुलाब पढ़ते हैं
हम उन्हें माहताब लिखते हैं
वो हमें आफ़ताब पढ़ते हैं
नक़्शे-महबूब हों अयां हम पर
हौले-हौले हिजाब पढ़ते हैं
ख़्वाब में और क्या करें हम भी
ख़्वाहिशों के जवाब पढ़ते हैं
वक़्त के हाथ खेलने वाले
आशिक़ी को अज़ाब पढ़ते हैं
शाहे-जम्हूर वो हुए जब से
चश्मे-नम को सराब पढ़ते हैं
आप जब मन की बात कहते हैं
कुर्सियों का हिसाब पढ़ते हैं
आईन-ए-हिंद की क़सम ले कर
नफ़रतों की किताब पढ़ते हैं
शायरी ने ख़ुदा बनाया है
लोग ख़ाना-ख़राब पढ़ते हैं !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ख़ार: कांटे; माहताब: चांदनी;आफ़ताब: सूर्य; नक़्शे-महबूब: प्रिय की मुखाकृति; अयां: प्रकट, स्पष्ट; हौले-हौले: धीमे-धीमे;
हिजाब: मुखावरण; ख़्वाहिशों: इच्छाओं; आशिक़ी: प्रेम; अज़ाब: पाप; शाहे-जम्हूर: लोकतंत्र के राजा; चश्मे-नम: आंख की नमी, आंसू; सराब: मृगजल; आईन-ए-हिंद: भारत का संविधान; नफ़रतों: घृणाओं; ख़ाना-ख़राब: घर मिटाने वाला, यहां-वहां भटकने वाला।
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