हम गो मानिंदे-शम्.अ जलते हैं
पर बहुत देर में पिघलते हैं
जिनके दिल में फ़रेब पलते हैं
वो बहुत जल्द हाथ मलते हैं
रंज अफ़सोस हवादिस सदमात
सब मिरे साथ-साथ चलते हैं
अश्क आएं तो टूट कर आएं
जैसे दर्या कहीं उबलते हैं
जाम मत पेश कीजियो मुहसिन
हम ज़रा देर में संभलते हैं
क्या ग़ज़ब रोज़गार है उनका
शाह की चादरें बदलते हैं
ग़ैब पर ग़ैर की हुकूमत है
हम फ़लक पर सुबह निकलते हैं !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: गो: यद्यपि; मानिंदे-शम्.अ: दीपिका की भांति; फ़रेब: छल, षड्यंत्र; रंज: दुःख; अफ़सोस: खेद; हवादिस: दुर्घटनाएं;
सदमात: आघात; दर्या: नदी; जाम: मदिरा-पात्र; मुहसिन: कृपालु; ग़ज़ब: आश्चर्यजनक; रोज़गार: आजीविका; ग़ैब: अदृश्य लोक, परलोक; ग़ैर: अन्य व्यक्ति; हुकूमत: शासन; फ़लक: क्षितिज ।
पर बहुत देर में पिघलते हैं
जिनके दिल में फ़रेब पलते हैं
वो बहुत जल्द हाथ मलते हैं
रंज अफ़सोस हवादिस सदमात
सब मिरे साथ-साथ चलते हैं
अश्क आएं तो टूट कर आएं
जैसे दर्या कहीं उबलते हैं
जाम मत पेश कीजियो मुहसिन
हम ज़रा देर में संभलते हैं
क्या ग़ज़ब रोज़गार है उनका
शाह की चादरें बदलते हैं
ग़ैब पर ग़ैर की हुकूमत है
हम फ़लक पर सुबह निकलते हैं !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: गो: यद्यपि; मानिंदे-शम्.अ: दीपिका की भांति; फ़रेब: छल, षड्यंत्र; रंज: दुःख; अफ़सोस: खेद; हवादिस: दुर्घटनाएं;
सदमात: आघात; दर्या: नदी; जाम: मदिरा-पात्र; मुहसिन: कृपालु; ग़ज़ब: आश्चर्यजनक; रोज़गार: आजीविका; ग़ैब: अदृश्य लोक, परलोक; ग़ैर: अन्य व्यक्ति; हुकूमत: शासन; फ़लक: क्षितिज ।
लाजवाब...हमेशा की तरह...
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