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शनिवार, 28 मार्च 2015

रोज़गार खो बैठे !

तलाशे-गुल  में  रहे  औ'  बहार  खो  बैठे
हम  अपने  दिल  प'  सभी  एतिबार  खो  बैठे

हरेक  मोड  पे  पाई  नवाज़िशें  उसकी
मिला  नसीब  मगर  बार-बार  खो  बैठे

उन्हें  ख़बर  कहां  कि  किस  गली  से  कब  गुज़रे
कहां-कहां  ग़रीब  रोज़गार  खो  बैठे

किया  ख़राब  जिन्हें  क़ुर्बते-सियासत  ने
तमाम  दोस्त  यार  ग़मगुसार  खो  बैठे

अजीब  रंग  हैं  इस  दौर में  वफ़ाओं  के
सुकूं  ख़रीद  लिया  तो  क़रार  खो  बैठे

हमें  क़ुबूल  नहीं  'आप'का  करिश्मा  भी
ज़ुबां  पे  आप  अगर  इख़्तियार   खो बैठे

ये कुर्सियों  की  सिफ़्'अत  है  कि  आदमी  का  ज़ेह्न
हुए  जो  शाह  यहां  वो  वक़ार  खो  बैठे

सरे-नक़ाब  किसी   चांद  पर  नज़र  करके
ख़ुदा  के  सामने  अपना  मयार  खो  बैठे !

                                                                                     (2015)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तलाशे-गुल: पुष्प की खोज; एतिबार: विश्वास; नवाज़िशें: कृपाएं, देन; नसीब: सौभाग्य; क़ुर्बते-सियासत: राजनीतिक निकटता; ग़मगुसार: दुःख में सांत्वना देने वाले; दौर: काल-खंड; वफ़ाओं: आस्थाओं; सुकूं: संतोष; क़रार: मानसिक स्थायित्व; क़ुबूल: स्वीकार; करिश्मा: चमत्कार; ज़ुबां: वाणी; इख़्तियार: अधिकार, नियंत्रण; सिफ़्'अत: गुण; ज़ेह्न: मस्तिष्क; वक़ार: प्रतिष्ठा; सरे-नक़ाब: मुखावरण के नीचे; मयार: समुचित स्थान । 

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