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गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

जरायम भुला दें ?

चलो,  आज  दिल  को  ठिकाने  लगा  दें
किसी  और  बेहतर  जगह  पर  बसा  दें

नज़र  के  लिए  तरबियत  है  ज़रूरी
इसे  अब  धड़कना,  तड़पना  सिखा  दें

ज़ेह् न  कह  रहा  है,  मियां ! बख़्श  भी  दो
कहां  तक  तुम्हें  ज़िंदगी  की  दुआ  दें

जिगर  है  कि  बस,  डूबना  चाहता  है
न  आएं, मगर  कुछ  मदावा  बता  दें

न  हाथों  में  ताक़त,  न  पांवों  में  क़ुव्वत
क़लम  से  तो  हम  आसमां  को  झुका  दें

हमें  शाह  से     दुश्मनी      तो  नहीं  है
मगर  किस  तरह  से  जरायम  भुला  दें  ?

मिलेंगे  किसी  और  दिन  ज़िंदगी  से
अभी  मौत  से  एक  वादा  निभा  दें  !

                                                                         (2015)

                                                                -सुरेश   स्वप्निल 

शब्दार्थ: तरबियत: संस्कार, शिक्षा; ज़ेह् न: मस्तिष्क; बख़्श: छोड़ना; जिगर: यकृत, साहस; मदावा: उपचार; ताक़त: शक्ति, क़ुव्वत: सामर्थ्य; क़लम: लेखनी; आसमां: आकाश, ईश्वर; ज़रायम: अपराध (बहुव.) ।

1 टिप्पणी:

  1. वाह.. क्या कहने...

    न हाथों में ताक़त, न पांवों में क़ुव्वत
    क़लम से तो हम आसमां को झुका दें


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