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सोमवार, 29 जुलाई 2013

रहबरों की वुज़ू

इश्क़   में     घर    लुटाए    फिरते  हैं
शर्म    से     सर   झुकाए    फिरते  हैं

क्या  ग़ज़ल  नज़्म  क्या   दिखावे  हैं
सब     हक़ीक़त   छुपाए    फिरते  हैं

हुस्न   को     कोई   शै     हराम  नहीं
सैकड़ों      दिल    चुराए      फिरते  हैं

आप   यूं   शक़   न  कीजिए   हम  पे
हम   युं   ही     मुस्कुराए    फिरते  हैं

याद    वो:     कर    गए    ग़ज़ल  मेरी
भीड़     में      गुनगुनाए      फिरते  हैं

टोपियों     की       दुकां       चलाते  हैं
और   हम     सर   बचाए     फिरते  हैं

क्या   ख़बर    नींद    कहां    आए  हमें
साथ     बिस्तर     उठाए      फिरते  हैं

शैख़    जी      घिर    गए     हसीनों  में
ख़ुल्द      में      बौख़लाए      फिरते  हैं

रहबरों   की     वुज़ू  को    क्या  कहिए
मालो-ज़र    में      नहाए     फिरते  हैं !

                                            ( 2013 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: हक़ीक़त: यथार्थ; शै: वस्तु, कर्म; हराम: अपवित्र, धर्म-विरुद्ध; दुकां: दूकान; ख़ुल्द: स्वर्ग, जन्नत; रहबर: नेता; 
वुज़ू: नमाज़ के  लिए किया जाने वाला शौच-कर्म; मालो-ज़र: समृद्धि और स्वर्ण।

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