लोग हम दीवानों पे उंगलियां उठाते हैं
ख़ुद 'उयूब पे अपने आलता लगाते हैं
आप की अदाओं से उम्र-भर से वाक़िफ़ हैं
बेवजह निगाहों में क्यूं फ़रेब लाते हैं
हम उठे जो महफ़िल से लौट के न आएंगे
देखिए वो: फ़ुर्क़त को किस तरह निभाते हैं
आप लफ़्ज़-ए-उल्फ़त को भूल क्यूं नहीं जाते
रोज़ दिल लगाते हैं रोज़ ग़म उठाते हैं
लोग इस ज़माने के इस क़दर जियाले हैं
दोपहर में सूरज को आइना दिखाते हैं
नींद यूं नहीं आती आपको मियां ग़ालिब
खिडकियां रहें बंद तो ख़्वाब रूठ जाते हैं
जब तलक जिए हम वो: रू-बरू न होते थे
अब हमारे रौज़े पे हाज़िरी लगाते हैं !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: 'उयूब: अवगुण, दोष; वाक़िफ़: परिचित; फ़रेब: छल; फ़ुर्क़त: विछोह; लफ़्ज़-ए-उल्फ़त: प्रेम-शब्द;
जियाले: दुस्साहसी; रू-ब-रू: आमने-सामने; रौज़ा: प्रतीकात्मक क़ब्र, दरगाह ।
ख़ुद 'उयूब पे अपने आलता लगाते हैं
आप की अदाओं से उम्र-भर से वाक़िफ़ हैं
बेवजह निगाहों में क्यूं फ़रेब लाते हैं
हम उठे जो महफ़िल से लौट के न आएंगे
देखिए वो: फ़ुर्क़त को किस तरह निभाते हैं
आप लफ़्ज़-ए-उल्फ़त को भूल क्यूं नहीं जाते
रोज़ दिल लगाते हैं रोज़ ग़म उठाते हैं
लोग इस ज़माने के इस क़दर जियाले हैं
दोपहर में सूरज को आइना दिखाते हैं
नींद यूं नहीं आती आपको मियां ग़ालिब
खिडकियां रहें बंद तो ख़्वाब रूठ जाते हैं
जब तलक जिए हम वो: रू-बरू न होते थे
अब हमारे रौज़े पे हाज़िरी लगाते हैं !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: 'उयूब: अवगुण, दोष; वाक़िफ़: परिचित; फ़रेब: छल; फ़ुर्क़त: विछोह; लफ़्ज़-ए-उल्फ़त: प्रेम-शब्द;
जियाले: दुस्साहसी; रू-ब-रू: आमने-सामने; रौज़ा: प्रतीकात्मक क़ब्र, दरगाह ।
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