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शनिवार, 20 अप्रैल 2013

दिल से जाओ तो जानें ..

छुड़ा  के  हाथ  चले,  दिल  से  जाओ  तो  जानें
हमारा  नाम  ज़ेहन  में  न  लाओ  तो  जानें

निभा  रहे  हो  शराइत  सभी  ज़माने  की
रुसूम-ए-इश्क़-ओ-इबादत  निभाओ  तो  जानें

गिरा  रहे  हो  हम  पे  बर्क़  यूं  सर-ए-महफ़िल
हमारे  ख़्वाब  में  आ  के  सताओ  तो  जानें

तुम्हारे  सोज़  के  क़िस्से  सुना  किए  हैं  बहुत
कभी  हमारी  ग़ज़ल  गुनगुनाओ  तो  जानें

हमारा  इश्क़  भुलाना  तो  बहुत  आसां  है
बंदिश-ए-दीन-ओ-दुनिया  भुलाओ  तो  जानें

हर  एक  घर  में  पल  रहे  हैं  दुश्मन-ए-हव्वा
दरिंदगी  के  सिलसिले  मिटाओ  तो  जानें

लकब  तुम्हारा  रहीम-ओ-करीम  ज़ाहिर  है
सुख़नवरों  पे  इनायत  लुटाओ  तो  जानें !

                                                             ( 2013 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ेहन: मस्तिष्क; शराइत: शर्त्त का बहुव., उपबन्ध; रुसूम-ए-इश्क़-ओ-इबादत: प्रेम और पूजा की प्रथाएं; 
         बर्क़: बिजली; सर-ए-महफ़िल: सबके बीच; सोज़: मधुर गायन; बंदिश-ए-दीन-ओ-दुनिया: धर्म और समाज के प्रतिबंध; 
        दुश्मन-ए-हव्वा: हव्वा ( ईश्वर द्वारा रचित प्रथम स्त्री, स्त्रीत्व का प्रतीक) के शत्रु; दरिंदगी: पशुत्व; सिलसिले: अनुक्रम; 
       लकब: उपनाम; रहीम-ओ-करीम: दयालु और कृपालु; ज़ाहिर: प्रसिद्ध; सुख़नवर: सब के शुभाकांक्षी, साहित्यकार, इनायत: देन।

1 टिप्पणी:

  1. बहूत अच्छा
    हर एक घर में पल रहे हैं दुश्मन-ए-हव्वा
    दरिंदगी के सिलसिले मिटाओ तो जानें

    जवाब देंहटाएं